भारत
की आपराधिक न्याय प्रणाली में हर मुकदमे की एक निर्धारित प्रक्रिया होती है। जब
अभियोजन (सरकारी पक्ष) और बचाव (अभियुक्त) पक्ष अपने-अपने साक्ष्य और गवाह पेश कर
लेते हैं,
तो मुकदमे का अगला महत्वपूर्ण चरण होता है — बहस (Arguments)। यह वह चरण है जहां दोनों पक्ष अपनी अंतिम दलीलें अदालत के समक्ष रखते
हैं।
दंड
प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 234 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता,
2023 (BNSS) की धारा 257 इस बहस प्रक्रिया
को नियंत्रित करती हैं। इस लेख में, हम इन दोनों धाराओं को
सरल भाषा में विस्तार से समझेंगे और इनके बीच समानताएं व अंतर स्पष्ट करेंगे।
CrPC धारा 234: तर्क (Arguments)
“जब बचाव पक्ष के साक्षियों (यदि कोई हो) की परीक्षा पूरी हो जाए, तो अभियोजक अपना मामला समाप्त करेगा और अभियुक्त या उसका वकील उत्तर देने
का हकदार होगा:
परन्तु
जहां अभियुक्त या उसके अधिवक्ता द्वारा कोई विधि प्रश्न उठाया जाता है,
वहां अभियोजन पक्ष न्यायाधीश की अनुमति से ऐसे विधि प्रश्न के संबंध
में अपना निवेदन कर सकेगा।”
टिप्पणी
- प्रक्रिया का प्रारंभ:
जब बचाव पक्ष अपने गवाहों (यदि कोई हों) की जिरह पूरी कर लेता
है, तो अभियोजन पक्ष अपनी अंतिम दलीलें (final
arguments) पेश करता है। इसमें अभियोजक यह समझाने की कोशिश
करता है कि अभियुक्त ने अपराध किया है और उसे सजा मिलनी चाहिए।
- बचाव पक्ष का अधिकार:
इसके बाद, अभियुक्त या उसका वकील अपनी
दलीलें प्रस्तुत करता है। यहाँ वे यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि
अभियुक्त निर्दोष है या साक्ष्य अपर्याप्त हैं।
- कानूनी प्रश्न का प्रावधान:
यदि बचाव पक्ष कोई कानूनी मुद्दा (point of law) उठाता है, जैसे कि साक्ष्य की वैधता या
प्रक्रिया में त्रुटि, तो अभियोजन पक्ष को न्यायाधीश की
अनुमति से उस मुद्दे पर अपनी दलील रखने का अवसर मिल सकता है।
प्रक्रिया का क्रम
1. बचाव
पक्ष के साक्ष्य और जिरह पूरी होती है।
2. अभियोजन
पक्ष अपनी अंतिम दलीलें पेश करता है।
3. बचाव
पक्ष अपनी दलीलें प्रस्तुत करता है।
4. यदि
कोई कानूनी प्रश्न उठता है, तो अभियोजन पक्ष न्यायाधीश
की अनुमति से उस पर अपनी बात रख सकता है।
5. अंत
में,
अदालत निर्णय सुनाती है।
उदाहरण
मान
लीजिए,
एक हत्या के मामले में अभियोजन पक्ष यह साबित करता है कि अभियुक्त
ने अपराध किया, और इसके लिए गवाहों व साक्ष्यों का हवाला
देता है। बचाव पक्ष का वकील दलील देता है कि अभियुक्त घटनास्थल पर मौजूद नहीं था
और उसके पास एक ठोस alibi (स्थान-प्रमाण) है। यदि वकील यह
कहता है कि “पुलिस ने साक्ष्य एकत्र करने में CrPC की धारा
का उल्लंघन किया,” तो यह एक कानूनी प्रश्न है। इस पर अभियोजन
पक्ष को न्यायाधीश की अनुमति से जवाब देने का मौका मिल सकता है।
महत्वपूर्ण बिंदु
- यह धारा केवल सत्र न्यायालय (Sessions
Trial) में लागू होती है।
- दोनों पक्षों को समान अवसर मिलना
अनिवार्य है।
- न्यायाधीश का दायित्व है कि वह
दोनों पक्षों की दलीलें ध्यान से सुने।
- विधिक प्रश्न पर अभियोजन का जवाब
न्यायाधीश की अनुमति पर निर्भर करता है।
BNSS धारा 257: तर्क (Arguments)
“जब बचाव पक्ष के साक्षियों (यदि कोई हो) की परीक्षा पूरी हो जाती है,
तो अभियोजक अपना मामला संक्षेप में प्रस्तुत करेगा और अभियुक्त या
उसका वकील निम्नलिखित उत्तर देने का हकदार होगा:
परन्तु
जहां अभियुक्त या उसके अधिवक्ता द्वारा कोई विधि प्रश्न उठाया जाता है,
वहां अभियोजन पक्ष न्यायाधीश की अनुमति से ऐसे विधि प्रश्न के संबंध
में अपना निवेदन कर सकेगा।”
टिप्पणी
- प्रक्रिया का प्रारंभ:
बचाव पक्ष के गवाहों की जिरह पूरी होने के बाद, अभियोजन पक्ष अपने तर्क संक्षेप में प्रस्तुत करता है। यहाँ वह यह
साबित करता है कि अभियुक्त दोषी है और उसे सजा मिलनी चाहिए।
- बचाव पक्ष का अधिकार:
अभियुक्त या उसका वकील इसके बाद अपनी दलीलें रखता है, जिसमें वह अभियुक्त की निर्दोषता या साक्ष्यों की कमी को साबित करने
की कोशिश करता है।
- कानूनी प्रश्न का प्रावधान:
यदि बचाव पक्ष कोई कानूनी मुद्दा (जैसे, प्रक्रियात्मक
त्रुटि) उठाता है, तो अभियोजन पक्ष को न्यायाधीश की
अनुमति से उस मुद्दे पर अपनी दलील रखने का मौका मिल सकता है।
प्रक्रिया का क्रम
1. बचाव
पक्ष के साक्ष्य पूरे होते हैं।
2. अभियोजन
पक्ष अपने तर्क संक्षेप में प्रस्तुत करता है।
3. अभियुक्त
या उसका वकील अपनी दलीलें रखता है।
4. यदि
कोई कानूनी प्रश्न उठता है, तो अभियोजन पक्ष न्यायाधीश
की अनुमति से जवाब दे सकता है।
5. अंत
में,
अदालत निर्णय सुनाती है।
उदाहरण
एक
चोरी के मामले में, अभियोजन पक्ष कहता है कि
गवाहों और CCTV फुटेज से साबित होता है कि अभियुक्त ने चोरी
की। बचाव पक्ष का वकील दलील देता है कि अभियुक्त घटनास्थल पर नहीं था और उसके पास
गवाह हैं। यदि वकील कहता है कि “FIR दर्ज करने में
BNSS की प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ,” तो यह एक कानूनी प्रश्न है। इस पर अभियोजन पक्ष को न्यायाधीश की अनुमति से
जवाब देने का मौका मिल सकता है।
महत्वपूर्ण बिंदु
- यह धारा केवल सत्र न्यायालय (Sessions
Trial) में लागू होती है।
- दोनों पक्षों को समान अवसर मिलना
अनिवार्य है।
- न्यायाधीश का दायित्व है कि वह
दोनों पक्षों की दलीलें ध्यान से सुने।
- विधिक प्रश्न पर अभियोजन का जवाब
न्यायाधीश की अनुमति पर निर्भर करता है।
CrPC धारा 234 और BNSS धारा 257 में समानताएं और अंतर
समानताएं
1. उद्देश्य:
दोनों धाराएँ आपराधिक मुकदमे में तर्क (arguments) की प्रक्रिया को नियंत्रित करती हैं, जिससे निष्पक्ष
सुनवाई सुनिश्चित होती है।
2. प्रक्रिया:
दोनों में प्रक्रिया का क्रम समान है — पहले अभियोजन पक्ष, फिर बचाव पक्ष, और फिर कानूनी प्रश्न पर अभियोजन का
जवाब (न्यायाधीश की अनुमति से)।
3. न्यायाधीश
की भूमिका: दोनों धाराओं में न्यायाधीश का दायित्व
है कि वह दोनों पक्षों की दलीलें ध्यान से सुने और निष्पक्ष निर्णय ले।
4. लागू
होने का दायरा: दोनों धाराएँ केवल सत्र
न्यायालय (Sessions Trial) में लागू होती हैं।
अंतर
पहलू |
CrPC
धारा 234 |
BNSS
धारा 257 |
भाषा
में अंतर |
अभियोजक
“मामला समाप्त” करता है। |
अभियोजक
“मामला संक्षेप में प्रस्तुत” करता है। |
नया
कानून |
1973
का पुराना कानून। |
2023
का नया कानून, जो CrPC को प्रतिस्थापित करता है। |
आधुनिकता |
पुरानी
भाषा और संदर्भ। |
आधुनिक
और संक्षिप्त भाषा का उपयोग। |
दोनों धाराओं का महत्व
- निष्पक्षता:
दोनों धाराएँ यह सुनिश्चित करती हैं कि अभियोजन और बचाव पक्ष
को अपनी बात रखने का समान अवसर मिले।
- कानूनी प्रश्नों का समाधान:
विधिक प्रश्न उठने पर अभियोजन को जवाब देने का अवसर देकर,
ये धाराएँ प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाती हैं।
- न्याय का आधार:
तर्कों का चरण मुकदमे का अंतिम और निर्णायक हिस्सा होता है,
जो अदालत को सही निर्णय लेने में मदद करता है।
निष्कर्ष
CrPC
की धारा 234 और BNSS
की धारा 257 आपराधिक मुकदमों में बहस (arguments)
की प्रक्रिया को व्यवस्थित और निष्पक्ष बनाती हैं। ये धाराएँ
सुनिश्चित करती हैं कि दोनों पक्ष अपनी बात पूरी तरह से अदालत के सामने रख सकें,
और कोई भी कानूनी प्रश्न उठने पर उसका उचित समाधान हो। चाहे पुराना CrPC
हो या नया BNSS, दोनों का उद्देश्य एक ही है —
न्यायपूर्ण और पारदर्शी सुनवाई।
यह
प्रक्रिया न केवल अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा करती है,
बल्कि अभियोजन को भी यह साबित करने का मौका देती है कि अपराध हुआ
है। अंत में, यह अदालत को सही और निष्पक्ष निर्णय लेने में
मदद करती है।