धारा
216 CrPC (239 BNSS) का मतलब है कि अदालत को यह अधिकार है कि वह किसी भी समय मुकदमे के दौरान
चार्ज (आरोप) में बदलाव या जोड़ सकता है। यह तब होता है जब कोर्ट को लगता है कि
मामले के तथ्यों और सबूतों के आधार पर मौजूदा आरोपों में संशोधन की जरूरत है।
मुख्य बिंदु
1. अदालत
का अधिकार: कोर्ट किसी भी समय, मुकदमा शुरू होने से लेकर फैसला सुनाने से पहले, चार्ज
में बदलाव कर सकता है। यह बदलाव सबूतों या तथ्यों के आधार पर हो सकता है।
o उदाहरण:
अगर कोई व्यक्ति चोरी के आरोप में मुकदमा शुरू करता है,
लेकिन सबूतों से पता चलता है कि उसने डकैती की, तो कोर्ट चार्ज को चोरी से डकैती में बदल सकता है।
2. कब
लागू होती है?:
o जब
नए सबूत सामने आएं जो पहले के आरोपों को बदलने की जरूरत दिखाएं।
o जब
कोर्ट को लगे कि मौजूदा चार्ज सही नहीं है या अधूरा है।
o जब
अपराध की गंभीरता या प्रकृति बदल जाए।
3. प्रक्रिया:
o कोर्ट
पहले पक्षों (अभियोजन और बचाव पक्ष) को सुनता है।
o अगर
चार्ज में बदलाव होता है, तो कोर्ट नए सिरे से आरोप
पढ़कर सुनाता है।
o अगर
जरूरी हो,
तो बचाव पक्ष को नए सिरे से अपनी बात रखने का मौका दिया जाता है।
o अगर
नए गवाह या सबूत लाने की जरूरत हो, तो कोर्ट
उनकी अनुमति दे सकता है।
4. न्याय
का उद्देश्य: यह धारा इसलिए बनाई गई है
ताकि सही अपराधी को सही सजा मिले और गलत या अधूरे आरोपों की वजह से न्याय में कमी
न आए।
5. सीमाएँ:
o कोर्ट
मनमाने ढंग से चार्ज नहीं बदल सकता। बदलाव तथ्यों और सबूतों पर आधारित होना चाहिए।
o अगर
बदलाव से अभियुक्त को नुकसान हो सकता है, तो कोर्ट
यह सुनिश्चित करता है कि उसे उचित मौका मिले अपनी बात रखने का।
उदाहरण
मान लीजिए, अजय पर धारा 323 (मारपीट) का केस चल रहा है। मुकदमे के दौरान सबूत मिलते हैं कि उसने हथियार से हमला किया था। अब कोर्ट धारा 216 CrPC (239 BNSS) के तहत चार्ज को धारा 323 से धारा 326 (खतरनाक हथियार से गंभीर चोट) में बदल सकता है। अजय को नए आरोपों के बारे में बताया जाएगा और उसे बचाव का मौका मिलेगा।
निष्कर्ष:
धारा 216 CrPC (239 BNSS) न्याय के लिए बहुत जरूरी है क्योंकि यह सुनिश्चित करता है कि सही अपराध के लिए सही आरोप लगाए जाएं। यह लचीलापन देता है, लेकिन साथ ही अभियुक्त के अधिकारों का भी ध्यान रखता है।