भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली में "आरोपों का गठन" (Framing of Charge) एक महत्वपूर्ण कदम है। यह वह प्रक्रिया है जिसमें अदालत यह तय करती है कि अभियुक्त (Accused) पर कौन से अपराध के लिए मुकदमा चलाया जाएगा। यह प्रक्रिया न केवल अभियुक्त को यह बताती है कि उस पर क्या आरोप हैं, बल्कि यह भी सुनिश्चित करती है कि मुकदमा निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से चले। इस लेख में हम CrPC Section 228 और BNSS Section 251 के तहत आरोपों के गठन को सरल भाषा में विस्तार से समझेंगे। हम यह भी देखेंगे कि नई कानूनी व्यवस्था, Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita (BNSS) 2023, में क्या बदलाव आए हैं।
आरोपों
का गठन क्या है?
आरोपों
का गठन वह प्रक्रिया है जिसमें अदालत अभियुक्त को यह बताती है कि उस पर कौन से
अपराध के लिए मुकदमा चलाया जाएगा। यह एक औपचारिक दस्तावेज या बयान होता है,
जिसमें अपराध की प्रकृति, समय, स्थान और संबंधित कानूनी धाराएं स्पष्ट की जाती हैं। इसका मुख्य उद्देश्य
है:
- अभियुक्त को सूचित करना:
ताकि वह अपने बचाव की तैयारी कर सके।
- मुकदमे को दिशा देना:
यह तय करना कि मुकदमा किन मुद्दों पर केंद्रित होगा।
- निष्पक्षता सुनिश्चित करना:
यह सुनिश्चित करना कि अभियुक्त को अनजाने में कोई अन्याय न हो।
Read also:सत्र न्यायालय में लोक अभियोजक की भूमिका एवं महत्व: CrPC की धारा 225 और BNSS की धारा 248 को जाने।
CrPC
Section 228: आरोपों का गठन (पुरानी व्यवस्था)
Code
of Criminal Procedure (CrPC), 1973 की धारा 228
सत्र न्यायालय (Sessions Court) में आरोपों के
गठन की प्रक्रिया को नियंत्रित करती है। यह तब लागू होती है जब कोई मामला
मजिस्ट्रेट द्वारा सत्र न्यायालय को भेजा जाता है (Section 209 CrPC के तहत)। आइए इसकी प्रक्रिया को समझें:
प्रक्रिया
1. प्रारंभिक
जांच:
o सत्र
न्यायाधीश (Sessions Judge) अभियोजन पक्ष द्वारा
प्रस्तुत सामग्री (जैसे चार्जशीट, दस्तावेज, साक्ष्य) की जांच करता है।
o वह
यह देखता है कि क्या अभियुक्त के खिलाफ अपराध का प्रथम दृष्टया (Prima
Facie) मामला बनता है।
2. आरोपों
का गठन:
o यदि
पर्याप्त आधार हैं, तो न्यायाधीश लिखित रूप में
आरोप तैयार करता है।
o आरोप
में अपराध की विशिष्ट धारा (जैसे IPC की
धारा) और उसका विवरण शामिल होता है।
3. अभियुक्त
को सूचित करना:
o आरोप
को अभियुक्त के सामने पढ़ा जाता है और समझाया जाता है।
o अभियुक्त
से पूछा जाता है कि क्या वह अपराध के लिए दोषी मानता है या मुकदमे का सामना करना
चाहता है।
4. दोषी
न मानने पर:
o यदि
अभियुक्त दोषी नहीं मानता, तो मुकदमा शुरू होता है।
o यदि
अपराध सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय नहीं है तो वह अभियुक्त के खिलाफ आरोप विचरित
कर सकता है और उस मामले को विचारण के लिए मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (Chief
Judicial Magistrate) आदि को अंतरित कर सकता है और तब मुख्य न्यायिक
मजिस्ट्रेट (Chief Judicial Magistrate) पुलिस रिपोर्ट पर
संस्थित वॉरन्ट मामलों के लिए निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार विचारण करेगा।
5. दोषी
मानने पर:
o यदि
अभियुक्त दोषी मानता है, तो अदालत उसे दोषी ठहरा
सकती है।
महत्व
- पारदर्शिता:
यह सुनिश्चित करता है कि अभियुक्त को स्पष्ट रूप से पता हो कि
उस पर क्या आरोप हैं।
- निष्पक्षता:
यह अभियुक्त को बचाव का मौका देता है, जिससे
अनुचित मुकदमे की संभावना कम होती है।
- कानूनी आधार:
यह मुकदमे के लिए एक स्पष्ट कानूनी ढांचा तैयार करता है।
उदाहरण
मान
लीजिए किसी व्यक्ति पर IPC की धारा 302 (हत्या) के तहत आरोप है। सत्र न्यायाधीश चार्जशीट और साक्ष्यों की जांच
करता है। यदि उसे लगता है कि प्रथम दृष्टया मामला बनता है, तो
वह लिखित रूप में आरोप तैयार करता है, जैसे: "15 जून 2024 को दिल्ली
में X की हत्या की।" यह आरोप अभियुक्त को पढ़कर सुनाया
जाता है।
कानूनी
मिसालें
- Litty Thomas Case (Kerala High Court):
इस मामले में अदालत ने कहा कि आरोपों का गठन करने से पहले
न्यायाधीश को साक्ष्यों की सावधानीपूर्वक जांच करनी चाहिए। यदि पर्याप्त आधार
नहीं हैं, तो आरोप रद्द किए जा सकते हैं।
- V. C. Shukla v. State (1979):
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरोपों का गठन इस तरह होना चाहिए कि
अभियुक्त को अपराध की प्रकृति के बारे में स्पष्ट और सटीक जानकारी मिले।
- सोम चक्रवर्ती बनाम स्टेट ए0 आई0 आर0 2007 एस सी 2149 के मामले मे उच्चतम न्यायालय
द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि- आरोप विचरित करने के लिए अभिलेख पर मात्र ऐसे
तथ्यों का विधमान होना पर्याप्त है जिससे न्यायालय को यह प्रतीत हो कि अभियुक्त
द्वारा कोई अपराध कारित किया गया है।
- स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश बनाम मोहन लाल सोनी ए0 आई0 आर0 2000 एस सी 2583 के मामले मे उच्चतम
न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि आरोप विचरित किए जाते समय अभियुक्त
द्वारा कोई दस्तावेज प्रस्तुत किए जाते है तो उन पर विचार करना चाहिए।
BNSS
Section 251: आरोपों का गठन (नई व्यवस्था)
Bharatiya
Nagarik Suraksha Sanhita (BNSS), 2023 ने CrPC
को प्रतिस्थापित किया है। BNSS की धारा 251
सत्र न्यायालय में आरोपों के गठन की प्रक्रिया को नियंत्रित करती है,
जो CrPC की धारा 228 का
स्थान लेती है। इसमें कुछ नए बदलाव शामिल किए गए हैं ताकि प्रक्रिया को और तेज और
तकनीकी रूप से उन्नत बनाया जा सके।
प्रक्रिया
1. 60
दिन की समय सीमा:
o BNSS
Section 251(1)(b) के तहत, आरोपों को पहली
सुनवाई (First Hearing) की तारीख से 60 दिनों के भीतर तैयार करना अनिवार्य है। यह CrPC में
नहीं था।
2. इलेक्ट्रॉनिक
माध्यम:
o Section
251(2) के तहत, आरोपों को अभियुक्त को वीडियो
कॉन्फ्रेंसिंग जैसे ऑडियो-वीडियो माध्यमों से पढ़ा और समझाया जा सकता है। इससे
अभियुक्त की शारीरिक उपस्थिति की जरूरत कम हो जाती है।
3. प्रारंभिक
जांच:
o CrPC
की तरह, सत्र न्यायाधीश साक्ष्यों और चार्जशीट
की जांच करता है।
o यदि
पर्याप्त आधार हैं, तो आरोप लिखित रूप में
तैयार किए जाते हैं।
4. अभियुक्त
को सूचित करना:
o आरोप
पढ़े और समझाए जाते हैं, और अभियुक्त से पूछा जाता
है कि वह दोषी मानता है या नहीं।
5. आगे
की प्रक्रिया:
o यदि
अभियुक्त दोषी नहीं मानता, तो मुकदमा शुरू होता है।
o यदि
अपराध सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय नहीं है, तो इसे
मजिस्ट्रेट को भेजा जाता है। और तब मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (Chief
Judicial Magistrate) आदि पुलिस रिपोर्ट पर संस्थित वॉरन्ट मामलों के
लिए निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार विचारण करेगा।
BNSS
के लाभ
- तेजी से न्याय:
60 दिन की समय सीमा से मुकदमे में देरी कम होती है।
- तकनीकी प्रगति:
वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग जैसे साधनों का उपयोग समय और संसाधनों की
बचत करता है।
- पारदर्शिता:
डिजिटल माध्यमों से प्रक्रिया को और पारदर्शी बनाया गया है।
उदाहरण
मान
लीजिए किसी व्यक्ति पर चोरी (IPC धारा 379) का आरोप है। BNSS के तहत, सत्र
न्यायाधीश 60 दिनों के भीतर चार्जशीट की जांच करता है और
आरोप तैयार करता है। यदि अभियुक्त जेल में है, तो उसे वीडियो
कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए आरोप पढ़े जा सकते हैं, जैसे: "1 मई 2024 को मुंबई में
Y का सामान चुराया।"
BNSS
में अन्य संबंधित धाराएं
- Section 250 (BNSS):
सत्र न्यायालय में डिस्चार्ज के लिए आवेदन 60 दिनों के भीतर करना होगा।
- Section 238 (BNSS):
आरोपों में त्रुटि या चूक तब तक महत्वपूर्ण नहीं मानी जाती,
जब तक कि इससे अभियुक्त को गुमराह न किया जाए या न्याय में
बाधा न पड़े।
- Section 239 (BNSS):
अदालत को फैसले से पहले आरोपों में संशोधन या जोड़ने का अधिकार
है।
निष्कर्ष
CrPC
Section 228 और BNSS Section 251 दोनों का उद्देश्य आपराधिक मुकदमों में निष्पक्षता और पारदर्शिता
सुनिश्चित करना है। हालांकि, BNSS ने समय सीमा और तकनीकी
प्रगति जैसे बदलावों के साथ इस प्रक्रिया को और तेज और प्रभावी बनाया है। यह न
केवल अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि न्याय
प्रणाली को अधिक कुशल और आधुनिक बनाता है।
आरोपों
का गठन एक ऐसी प्रक्रिया है जो अभियुक्त को अपने खिलाफ लगे आरोपों को समझने और
बचाव तैयार करने का मौका देती है। यह आपराधिक न्याय प्रणाली का आधार है और यह
सुनिश्चित करता है कि हर व्यक्ति को निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार मिले।
सुझाव
- अभियुक्त के लिए:
अपने वकील से संपर्क करें और सभी दस्तावेजों की जांच करें।
- न्यायिक अधिकारियों के लिए:
साक्ष्यों की सावधानीपूर्वक जांच करें और समय सीमा का पालन
करें।
- आम लोगों के लिए:
कानूनी प्रक्रियाओं को समझें ताकि आप अपने अधिकारों के प्रति
जागरूक रहें।