अधिवक्ता अधिनियम, 1961
(1961 का अधिनियम संख्यांक 25)
[19 मई, 1961]
विधि व्यवसायियों से संबंधित विधि का संशोधन और समेकन करने तथा विधिज्ञ परिषदों
और अखिल भारतीय विधिज्ञ परिषद् का गठन करने हेतु उपबन्ध करने के लिए अधिनियम
भारत
गणराज्य के बारहवें वर्ष में संसद् द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित हो: -
अध्याय 1
प्रारम्भिक
1. संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारम्भ-(1)
इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम अधिवक्ता अधिनियम, 1961 है ।
[(2)
इसका विस्तार सम्पूर्ण भारत पर है ।]
(3)
यह [उपधारा (4) में निर्दिष्ट राज्यक्षेत्रों
से भिन्न राज्यक्षेत्र के सम्बन्ध में उस तारीख को प्रवृत्त होगा] जो केन्द्रीय
सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, नियत
करे और इस अधिनियम के विभिन्न उपबन्धों के लिए विभिन्न तारीखें नियत की जा सकेंगी
।
[(4)
जम्मू-कश्मीर राज्य। और गोवा, दमन और दीव संघ
राज्यक्षेत्र के सम्बन्ध में यह अधिनियम उस तारीख को प्रवृत्त होगा, जो केंद्रीय सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा,
इस निमित्त नियत करे और इस अधिनियम के विभिन्न उपबन्धों के लिए
विभिन्न तारीखें नियत की जा सकेंगी ।]
2. परिभाषाएं- [(1)] इस अधिनियम में,
जब तक कि सन्दर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, -
(क) अधिवक्ता" से इस अधिनियम के उपबंधों के अधीन किसी नामावली में
दर्ज अधिवक्ता अभिप्रेत है;
(ख) इस अधिनियम के किसी उपबंध के सम्बन्ध में नियत दिन" से वह दिन
अभिप्रेत है जिसको वह उपबन्ध प्रवृत्त होता है;
(घ) विधिज्ञ परिषद्" से इस अधिनियम के अधीन गठित विधिज्ञ परिषद्
अभिप्रेत है;
(ङ) भारतीय विधिज्ञ परिषद्" से उन राज्यक्षेत्रों के लिए जिन पर इस
अधिनियम का विस्तार है, धारा 4 के अधीन
गठित विधिज्ञ परिषद् अभिप्रेत है;
(छ) उच्च न्यायालय" के अन्तर्गत, धारा 34
की उपधारा (1) [और उपधारा (1क)] और धारा 42 तथा धारा 43 के
सिवाय, न्यायिक आयुक्त का न्यायालय नहीं है, और किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् के सम्बन्ध में, -
(i)
किसी राज्य के लिए या किसी राज्य और एक या अधिक संघ राज्यक्षेत्रों
के लिए गठित किसी विधिज्ञ परिषद् की दशा में, उस राज्य का
उच्च न्यायालय अभिप्रेत है;
(ii)
दिल्ली के लिए गठित विधिज्ञ परिषद् की दशा में [दिल्ली का उच्च
न्यायालय] अभिप्रेत है;
(ज) विधि स्नातक" से कोई ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है, जिसने भारत में विधि द्वारा स्थापित किसी विश्वविद्यालय से विधि में
स्नातक की उपाधि प्राप्त की है;
(झ) [विधि व्यवसायी" से किसी उच्च न्यायालय का अधिवक्ता या वकील,
कोई प्लीडर, मुख्तार या राजस्व अभिकर्ता
अभिप्रेत है];
(ञ) विहित" से इस अधिनियम के अधीन बनाए गए नियमों द्वारा विहित
अभिप्रेत है;
(ट) नामावली" से इस अधिनियम के अधीन तैयार की गई और रखी गई अधिवक्ता
नामावली अभिप्रेत है;
(ठ) राज्य" के अन्तर्गत संघ राज्यक्षेत्र नहीं है;
(ड) राज्य विधिज्ञ परिषद्" से धारा 3 के अधीन
गठित विधिज्ञ परिषद् अभिप्रेत है;
(ढ) राज्य नामावली" से धारा 17 के अधीन किसी
राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा तैयार की गई और रखी गई अधिवक्ता नामावली अभिप्रेत है
।
4[(2)
इस अधिनियम में किसी ऐसी विधि के प्रति, जो
जम्मू-कश्मीर राज्य या गोवा, दमन और दीव संघ राज्यक्षेत्र
में प्रवृत्त नहीं है, किसी निर्देश का, उस राज्य या उस राज्यक्षेत्र के सम्बन्ध में, यह
अर्थ लगाया जाएगा कि वह, यथास्थिति, उस
राज्य या राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त तत्स्थानी विधि के प्रति, यदि कोई हो, निर्देश है ।]
अध्याय 2
विधिज्ञ परिषद्
3. राज्य विधिज्ञ परिषद्-(1)
(क) आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, [जम्मू-कश्मीर,] [झारखंड,]
[मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़], [कर्नाटक],
उड़ीसा, राजस्थान और [उत्तर प्रदेश, [उत्तराखण्ड, मेघालय, मणिपुर और
त्रिपुरा]] राज्य में से प्रत्येक के लिए, उस राज्य की
विधिज्ञ परिषद् के नाम से ज्ञात, एक विधिज्ञ परिषद् होगी;
[(ख) अरुणाचल प्रदेश, असम, मिजोरम
और नागालैंड राज्यों के लिए अरुणाचल प्रदेश, असम, मिजोरम और नागालैंड विधिज्ञ परिषद् के नाम से ज्ञात विधिज्ञ परिषद् होगी;]
(ग) केरल राज्य और [लक्षद्वीप] संघ राज्यक्षेत्र के लिए, केरल विधिज्ञ परिषद् के नाम से ज्ञात एक विधिज्ञ परिषद् होगी;
[(गग) [तमिलनाडु राज्य] तथा पांडिचेरी संघ राज्यक्षेत्र के लिए, मद्रास विधिज्ञ परिषद् के नाम से ज्ञात एक विधिज्ञ परिषद् होगी;]
[(गगग) महाराष्ट्र और गोवा राज्यों के लिए और दादरा और नागर हवेली तथा दमण
और दीव के संघ राज्यक्षेत्र के लिए होगी जिसका नाम महाराष्ट्र और गोवा विधिज्ञ
परिषद् होगा;]
[(घ) पंजाब और हरियाणा राज्यों के लिए तथा चंडीगढ़ संघ राज्यक्षेत्र के लिए,
पंजाब और हरियाणा विधिज्ञ परिषद् के नाम से ज्ञात, एक विधिज्ञ परिषद् होगी;
(घघ) हिमाचल प्रदेश राज्य के लिए, हिमाचल प्रदेश
विधिज्ञ परिषद् के नाम से ज्ञात एक विधिज्ञ परिषद् होगी;]
(ङ) पश्चिमी बंगाल राज्य तथा [अंदमान और निकोबार द्वीप समूह संघ
राज्यक्षेत्र] के लिए, पश्चिमी बंगाल विधिज्ञ परिषद् के नाम
से ज्ञात एक विधिज्ञ परिषद् होगी; और
(च) दिल्ली संघ राज्यक्षेत्र के लिए, दिल्ली विधिज्ञ
परिषद् के नाम से ज्ञात एक विधिक परिषद् होगी;
(2)
राज्य विधिज्ञ परिषद् निम्नलिखित सदस्यों से मिलकर बनेगी, अर्थात्: -
(क) दिल्ली राज्य विधिज्ञ परिषद् की दशा में भारत का अपर महासालिसिटर,
पदेन; 1[असम, अरुणाचल
प्रदेश, मिजोरम और नागालैंड राज्य विधिज्ञ परिषद् की दशा में
प्रत्येक राज्य, अर्थात् असम, अरुणाचल
प्रदेश, मिजोरम, और नागालैंड का
महाधिवक्ता] पदेन, पंजाब और हरियाणा राज्य विधिज्ञ परिषद् की
दशा में प्रत्येक राज्य, अर्थात् पंजाब और हरियाणा का
महाधिवक्ता, पदेन; और किसी अन्य राज्य
विधिज्ञ परिषद् की दशा में उस राज्य का महाधिवक्ता, पदेन;
[(ख) पांच हजार से अनधिक के निर्वाचक-मंडल वाली राज्य विधिज्ञ परिषद् की दशा
में, पन्द्रह सदस्य, पांच हजार से अधिक
किन्तु दस हजार से अनधिक के निर्वाचक-मंडल वाली राज्य विधिज्ञ परिषद् की दशा में
बीस सदस्य, और दस हजार से अधिक के निर्वाचक-मंडल वाली राज्य
विधिज्ञ परिषद् की दशा में पच्चीस सदस्य, जो राज्य विधिज्ञ
परिषद् की निर्वाचक नामावली के अधिवक्ताओं में से आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के
अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा निर्वाचित हों:]
[परन्तु ऐसे निर्वाचित सदस्यों में से यथासंभव आधे के निकट सदस्य, ऐसे नियमों के अधीन रहते हुए, जो भारतीय विधिज्ञ
परिषद् द्वारा इस निमित्त बनाए जाएं, ऐसे व्यक्ति होंगे जो
किसी राज्य नामावली में कम से कम दस वर्ष तक अधिवक्ता रहे हों, और ऐसे किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में दस वर्ष की उक्त अवधि की संगणना करने
में वह अवधि भी सम्मिलित की जाएगी, जिसके दौरान ऐसा व्यक्ति
भारतीय विधिज्ञ परिषद् अधिनियम, 1926 (1926 का 38) के अधीन नामंकित अधिवक्ता रहा हो ।]
[(3)
प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद् का एक अध्यक्ष और उपाध्यक्ष होगा जो
उस परिषद् द्वारा ऐसी रीति से निर्वाचित किया जाएगा जो विहित की जाए ।]
(3क) अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1977 (1977 का 38)
के प्रारम्भ के ठीक पूर्व किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् के अध्यक्ष या
उपाध्यक्ष का पद धारण करने वाला प्रत्येक व्यक्ति, ऐसे
प्रारम्भ पर, यथास्थिति, अध्यक्ष या
उपाध्यक्ष का पद धारण नहीं करेगा:
परन्तु
ऐसा प्रत्येक व्यक्ति अपने पद के कर्तव्यों का तब तक पालन करता रहेगा जब तक कि
प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद् का, यथास्थिति,
अध्यक्ष या उपाध्यक्ष, जो अधिवक्ता (संशोधन)
अधिनियम, 1977 (1977 का 38) के प्रारंभ
के पश्चात् निर्वाचित हुआ है, पद भार संभाल नहीं लेता ।]
[(4)
कोई अधिवक्ता उपधारा (2) के अधीन किसी
निर्वाचन में मतदान करने, या किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् के
सदस्य के रूप में चुने जाने और सदस्य होने के लिए तब तक निरर्हित होगा जब तक उसके
पास ऐसी अर्हताएं न हों या वह ऐसी शर्तें पूरी न करता हो, जो
भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा इस निमित्त विहित की जाएं, और
किन्हीं ऐसे नियमों के अधीन रहते हुए, जो बनाए जाएं, प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा निर्वाचक नामावली तैयार की जाएगी और
समय-समय पर पुनरीक्षित की जाएगी ।
(5)
उपधारा (2) के परन्तुक की कोई भी बात, अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1964 (1964 का 21)
के प्रारम्भ के पूर्व निर्वाचित किसी सदस्य की पदावधि पर प्रभाव
नहीं डालेगी, किन्तु ऐसे प्रारम्भ के पश्चात् प्रत्येक
निर्वाचन, उक्त परन्तुक को प्रभावी करने के लिए, भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा बनाए गए नियमों के उपबन्धों के अनुसार कराया
जाएगा ।]
[(6)
उपधारा (2) के खंड (ख) की कोई भी बात, अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1973 (1973 का 60)
के प्रारम्भ के ठीक पूर्व गठित किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् में
निर्वाचित सदस्यों के प्रतिनिधित्व पर तब तक प्रभाव नहीं डालेगी जब तक वह राज्य
विधिज्ञ परिषद् इस अधिनियम के उपबन्धों के अनुसार पुनर्गठित नहीं की जाती ।]
4. भारतीय विधिज्ञ परिषद्-(1)
उन राज्यक्षेत्रों के लिए, जिस पर इस अधिनियम
का विस्तार है, भारतीय विधिज्ञ परिषद् के नाम से ज्ञात एक
विधिज्ञ परिषद् होगी जो निम्नलिखित सदस्यों से मिलकर बनेगी, अर्थात्:
-
(क) भारत का महान्यायवादी, पदेन;
(ख) भारत का महासालिसिटर, पदेन;
(ग) प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा, अपने
सदस्यों में से निर्वाचित एक सदस्य ।
[(1क) कोई भी व्यक्ति भारतीय विधिज्ञ परिषद् के सदस्य के रूप में निर्वाचित
होने के लिए तब तक पात्र नहीं होगा जब तक उसके पास धारा 3 की
उपधारा (2) के परन्तुक में विनिर्दिष्ट अर्हताएं न हों ।]
[(2)
भारतीय विधिज्ञ परिषद् का एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष होगा जो उस
परिषद् द्वारा ऐसी रीति से निर्वाचित किया जाएगा जो विहित की जाए ।
(2क) अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1977 (1977 का 38)
के प्रारम्भ के ठीक पूर्व भारतीय विधिज्ञ परिषद् के अध्यक्ष या
उपाध्यक्ष का पद धारण करने वाला व्यक्ति ऐसे प्रारम्भ पर, यथास्थिति,
अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद धारण नहीं करेगा:
परन्तु
ऐसा व्यक्ति अपने पद के कर्तव्यों का पालन तब तक करता रहेगा जब तक कि परिषद् का,
यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष, जो अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1977 (1977 का 38)
के प्रारम्भ के पश्चात् निर्वाचित हुआ है, पद
भार संभाल नहीं लेता ।]
[(3)
भारतीय विधिज्ञ परिषद् के ऐसे सदस्य की, जो
राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा निर्वाचित किया गया हो, पदावधि,
-
(i)
राज्य विधि परिषद् के ऐसे सदस्य की दशा में, जो
वह पद पदेन धारण करता हो, उसके निर्वाचन की तारीख से दो वर्ष
होगी 4[या उस अवधि तक होगी जिसको वह राज्य विधिज्ञ परिषद् का
सदस्य न रह जाए, इनमें से जो भी अवधि पहले हो,] और
(ii)
किसी अन्य दशा में, उतनी अवधि के लिए होगी
जितनी के लिए वह राज्य विधिज्ञ परिषद् के सदस्य के रूप में पद धारण करता हो:
परन्तु
प्रत्येक ऐसा सदस्य भारतीय विधिज्ञ परिषद् के सदस्य के रूप में अपने पद पर तब तक
बना रहेगा जब तक उसका उत्तराधिकारी निर्वाचित नहीं कर लिया जाता है ।]
5. विधिज्ञ परिषद् का निगमित निकाय होना-प्रत्येक विधिज्ञ परिषद् शाश्वत उत्तराधिकार और सामान्य मुद्रा वाली एक
निगमित निकाय होगी जिसे स्थावर तथा जंगम, दोनों प्रकार की
सम्पत्ति अर्जित और धारण करने तथा संविदा करने की शक्ति होगी और जिस नाम से वह
ज्ञात हो उस नाम से वह वाद ला सकेगी और उस पर वाद लाया जा सकेगा ।
6. राज्य विधिज्ञ परिषदों के कृत्य-(1)
राज्य विधिज्ञ परिषद् के निम्नलिखित कृत्य होंगे, -
(क) अपनी नामावली में अधिवक्ता के रूप में व्यक्तियों को प्रविष्ट करना;
(ख) ऐसी नामावली तैयार करना और बनाए रखना;
(ग) अपनी नामावली के अधिवक्ताओं के विरुद्ध अवचार के मामले ग्रहण करना और
उनका अवधारण करना;
(घ) अपनी नामावली के अधिवक्ताओं के अधिकारों, विशेषाधिकारों
और हितों की रक्षा करना;
[(घघ) इस धारा की उपधारा (2) के खंड (क) और धारा 7
की उपधारा (2) के खंड (क) में निर्दिष्ट
कल्याणकारी स्कीमों के प्रभावपूर्ण कार्यान्वयन के प्रयोजनों के लिए विधिज्ञ
संगमों के विकास का उन्नयन करना;]
(ङ) विधि सुधार का उन्नयन और उसका समर्थन करना;
[(ङङ) विधिक विषयों पर प्रतिष्ठित विधि-शास्त्रियों द्वारा परिसंवादों का
संचालन और वार्ताओं का आयोजन करना और विधिक रुचि की पत्र-पत्रिकाएं और लेख
प्रकाशित करना;
(ङङङ) विहित रीति से निर्धनों को विधिक सहायता देने के लिए आयोजन करना;]
(च) विधिज्ञ परिषद् की निधियों का प्रबन्ध और उनका विनिधान करना;
(छ) अपने सदस्यों के निर्वाचन की व्यवस्था करना;
1[(छछ) धारा 7 की उपधारा (1) के
खंड (झ) के अधीन दिए गए निदेशों के अनुसार विश्वविद्यालयों में जाना और उनका
निरीक्षण करना;]
(ज) इस अधिनियम द्वारा या उसके अधीन उसे प्रदत्त अन्य सभी कृत्यों का पालन
करना;
(झ) पूर्वोक्त कृत्यों के निर्वहन के लिए आवश्यक अन्य सभी कार्य करना ।
[(2)
राज्य विधिज्ञ परिषद्, विहित रीति से एक या
अधिक निधियों का गठन निम्नलिखित प्रयोजन के लिए, अर्थात्: -
(क) निर्धन, निःशक्त या अन्य अधिवक्ताओं के लिए
कल्याणकारी स्कीमों के संचालन के लिए वित्तीय सहायता देने के लिए,
(ख) इस निमित्त बनाए गए नियमों के अनुसार विधिक सहायता या सलाह देने के लिए,
1[(ग) विधि पुस्तकालयों की स्थापना करने के लिए ।]
कर
सकेगी ।
(3)
राज्य विधिज्ञ परिषद्, उपधारा (2) में विनिर्दिष्ट सभी प्रयोजनों या उनमें से किसी प्रयोजन के लिए अनुदान,
संदान, दान या उपकृतियां प्राप्त कर सकेगी,
जो उस उपधारा के अधीन गठित समुचित निधि या विधियों में जमा की
जाएंगी ।
7. भारतीय विधिज्ञ परिषद् के कृत्य-
[(1)] भारतीय विधिज्ञ परिषद् के कृत्य निम्नलिखित होंगे-
(ख) अधिवक्ताओं के लिए वृत्तिक आचार और शिष्टचार के मानक निर्धारित करना;
(ग) अपनी अनुशासन समिति द्वारा और प्रत्येक राज्य विधिज्ञ परिषद् की
अनुशासन समिति द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया निर्धारित करना;
(घ) अधिवक्ताओं के अधिकारों, विशेषाधिकारों और हितों
की रक्षा करना;
(ङ) विधि सुधार का उन्नयन और उसका समर्थन करना;
(च) इस अधिनियम के अधीन उत्पन्न होने वाले किसी ऐसे मामले में कार्यवाही
करना और उसे निपटाना, जो उसे किसी राज्य विधिज्ञ परिषद्
द्वारा निर्दिष्ट किया जाए;
(छ) राज्य विधिज्ञ परिषदों का साधारण पर्यवेक्षण और उन पर नियंत्रण रखना;
(ज) विधि शिक्षा का उन्नयन करना और ऐसी शिक्षा प्रदान करने वाले भारत के
विश्वविद्यालयों और राज्य विधिज्ञ परिषदों से विचार-विमर्श करके ऐसी शिक्षा के
मानक निर्धारित करना;
(झ) ऐसे विश्वविद्यालयों को मान्यता देना, जिनकी विधि
की उपाधि अधिवक्ता के रूप में नामांकित किए जाने के लिए अर्हता होगी और उस प्रयोजन
के लिए विश्वविद्यालयों में जाना और उनका निरीक्षण करना; [या
राज्य विधिज्ञ परिषदों को, ऐसे निदेशों के अनुसार जो वह इस
निमित्त दे, विश्वविद्यालयों में जाने देना और उनका निरीक्षण
कराना];
[(झक) विधिक विषयों पर प्रतिष्ठित विधि शास्त्रियों द्वारा परिसंवादों का
संचालन और वार्ताओं का आयोजन करना और विधिक रुचि की पत्र-पत्रिकाएं और लेख
प्रकाशित करना;
(झख) विहित रीति से निर्धनों को विधिक सहायता देने के लिए आयोजन करना;
(झग) भारत के बाहर प्राप्त विधि की विदेशी अर्हताओं को, इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में प्रवेश पाने के प्रयोजन के लिए,
पारस्परिक आधार पर मान्यता देना;]
(ञ) विधिज्ञ परिषद् की निधियों का प्रबन्ध और उनका विनिधान करना;
(ट) अपने सदस्यों के निर्वाचन की व्यवस्था करना;
(ठ) इस अधिनियम द्वारा या उसके अधीन विधिज्ञ परिषद् को प्रदत्त अन्य सभी
कृत्यों का पालन करना;
(ड) पूर्वोक्त कृत्यों के निर्वहन के लिए आवश्यक अन्य सभी कार्य करना ।
2[(2)
भारतीय विधिज्ञ परिषद् विहित रीति से एक या अधिक निधियों का गठन
निम्नलिखित प्रयोजन के लिए, अर्थात्: -
(क) निर्धन, निःशक्त या अन्य अधिवक्ताओं के लिए
कल्याणकारी स्कीमों के संचालन के लिए वित्तीय सहायता देने के लिए;
(ख) इस निमित्त बनाए गए नियमों के अनुसार विधिक सहायता या सलाह देने के लिए,
[(ग) विधि पुस्तकालयों की स्थापना करने के लिए,]
कर
सकेगी ।
(3)
भारतीय विधिज्ञ परिषद् उपधारा (2) में
विनिर्दिष्ट सभी प्रयोजनों या उनमें से किसी प्रयोजन के लिए अनुदान, संदान, दान या उपकृतियां प्राप्त कर सकेगी, जो उस उपधारा के अधीन गठित समुचित निधि या निधियों में जमा की जाएगी ।]
[7क. अन्तरराष्ट्रीय निकायों की सदस्यता-भारतीय विधिज्ञ परिषद् अन्तरराष्ट्रीय विधिक निकायों जैसे इन्टरनेशलन बार
एसोसिएशन या इन्टरनेशनल लीगल ऐड एसोसिएशन की सदस्य बन सकेगी, अभिदान के तौर पर या अन्यथा ऐसे निकायों को, ऐसी
राशियों का अभिदाय कर सकेगी, जिन्हें वह ठीक समझे और किसी
अन्तरराष्ट्रीय विधि सम्मेलन या परिसंवाद में अपने प्रतिनिधियों के भाग लेने के
सम्बन्ध में व्यय प्राधिकृत कर सकेगी ।]
[8. राज्य विधिज्ञ परिषद् के सदस्यों की पदावधि-राज्य विधिज्ञ परिषद् के
(धारा 54 में निर्दिष्ट उसके निर्वाचित सदस्य से भिन्न) किसी
निर्वाचित सदस्य की पदावधि उसके निर्वाचन के परिणाम के प्रकाशन की तारीख से पांच
वर्ष की होगी:
परन्तु
जहां कोई राज्य विधिज्ञ परिषद् उक्त पदावधि की समाप्ति के पूर्व अपने सदस्यों के
निर्वाचन की व्यवस्था करने में असफल रहती है वहां भारतीय विधिज्ञ परिषद्,
आदेश द्वारा और ऐसे कारणों से जो लेखबद्ध किए जाएंगे, उक्त पदावधि को ऐसी अवधि के लिए बढ़ा सकेगी जो छह मास से अधिक नहीं होगी ।
8क. निर्वाचन के अभाव में विशेष समिति का गठन-(1)
जहां कोई राज्य विधिज्ञ परिषद्, धारा 8
में निर्दिष्ट, यथास्थिति, पांच वर्ष की पदावधि या बढ़ाई गई पदावधि की समाप्ति के पूर्व अपने सदस्यों
के निर्वाचन की व्यवस्था करने में असफल रहती है वहां भारतीय विधिज्ञ परिषद् ऐसी
समाप्ति के दिन के ठीक बाद की तारीख से ही, इस अधिनियम के
अधीन विधिज्ञ परिषद् का गठन होने तक, राज्य विधिज्ञ परिषद्
के कृत्यों का निर्वहन करने के लिए एक विशेष समिति का गठन करेगी जो निम्नलिखित से
मिलकर बनेगी, अर्थात् :-
(i)
धारा 3 की उपधारा (2) के
खंड (क) में निर्दिष्ट राज्य विधिज्ञ परिषद् का पदेन सदस्य जो अध्यक्ष होगा:
परन्तु
जहां एक से अधिक पदेन सदस्य हैं वहां उनमें से ज्येष्ठतम सदस्य,
अध्यक्ष होगा, और
(ii)
दो सदस्य जो राज्य विधिज्ञ परिषद् की निर्वाचक नामवली के अधिवक्ताओं
में से भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा नामनिर्देशित किए जाएंगे ।
(2)
विशेष समिति का गठन हो जाने पर और राज्य विधिज्ञ परिषद् का गठन किए
जाने तक-
(क) राज्य विधिज्ञ परिषद् में निहित सभी सम्पत्ति और आस्तियां, विशेष समिति में निहित होंगी;
(ख) राज्य विधिज्ञ परिषद् के सभी अधिकार, दायित्व और
बाध्यताएं, चाहे वे किसी संविदा से उद्भूत हों या अन्यथा,
विशेष समिति के अधिकार, दायित्व और बाध्यताएं
होंगी;
(ग) राज्य विधिक परिषद् के समक्ष किसी अनुशासनिक विषय की बाबत या अन्यथा
लंबित सभी कार्यवाहियां विशेष समिति को अन्तरित हो जाएंगी ।
(3)
उपधारा (1) के अधीन गठित विशेष समिति, ऐसे निर्देशों के अनुसार जो भारतीय विधिज्ञ परिषद् इस निमित्त उसे दे,
उपधारा (1) के अधीन उसके गठन के तारीख से छह
मास की अवधि के भीतर राज्य विधिज्ञ परिषद् के लिए निर्वाचन कराएगी और जहां किसी
कारण से विशेष समिति उक्त छह मास की अवधि के भीतर निर्वाचन का संचालन कराने की
स्थिति में नहीं है वहां भारतीय विधिज्ञ परिषद् ऐसे कारणों से जो उसके द्वारा
लेखबद्ध किए जाएंगे, उक्त अवधि को बढ़ा सकेगी ।]
[9. अनुशासन समितियां-(1)
विधिज्ञ परिषद् एक या अधिक अनुशासन समितियों का गठन करेगी ।
प्रत्येक ऐसी समिति तीन व्यक्तियों से मिलकर बनेगी । इसमें दो परिषद् द्वारा अपने
सदस्यों में से निर्वाचित व्यक्ति होंगे और तीसरा परिषद् द्वारा ऐसे अधिवक्ताओं
में से सहयोजित व्यक्ति होगा जिसके पास धारा 3 की उपधारा (2)
के परन्तुक में विनिर्दिष्ट अर्हताएं हों और जो परिषद् का सदस्य न
हो । किसी अनुशासन समिति के सदस्यों में से ज्येष्ठतम अधिवक्ता उसका अध्यक्ष होगा
।
(2)
उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी,
अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1964 (1964 का 21)
के प्रारम्भ के पूर्व गठित कोई अनुशासन समिति अपने समक्ष लंबित
कार्यवाहियों का निपटारा इस प्रकार कर सकेगी मानो यह धारा उक्त अधिनियम द्वारा
संशोधित ही न की गई हो ।]
[9क. विधिक सहायता समितियों का गठन-(1)
विधिज्ञ परिषद् एक या अधिक विधिक सहायता समितियों का गठन कर सकेगी ।
ऐसी प्रत्येक समिति में अधिक से अधिक नौ और कम से कम पांच ऐसे सदस्य होंगे जो
विहित किए जाएं ।
(2)
विधिक सहायता समिति के सदस्यों की अर्हताएं, उनके
चयन की पद्धति और उनकी पदावधि वह होगी जो विहित की जाए ।]
10. अनुशासन समितियों से भिन्न समितियों का गठन-(1) राज्य विधिज्ञ परिषद्
निम्नलिखित स्थायी समितियों का गठन करेगी, अर्थात्: -
(क) एक कार्यकारिणी समिति, जो परिषद् द्वारा अपने
सदस्यों में से निर्वाचित पांच सदस्यों में मिलकर बनेगी;
(ख) एक नामांकन समिति, जो परिषद् द्वारा अपने सदस्यों
में से निर्वाचित तीन सदस्यों से मिलकर बनेगी ।
(2)
भारतीय विधिज्ञ परिषद् निम्नलिखित स्थायी समितियों का गठन करेगी,
अर्थात्: -
(क) एक कार्यकारिणी समिति, जो परिषद् द्वारा अपने
सदस्यों में से निर्वाचित नौ सदस्यों से मिलकर बनेगी;
(ख) एक विधि शिक्षा समिति जो दस सदस्यों से मिलकर बनेगी । इसमें पांच सदस्य
परिषद् द्वारा अपने सदस्यों में से निर्वाचित व्यक्ति होंगे और पांच सदस्य परिषद्
द्वारा सहयोजित ऐसे व्यक्ति होंगे जो उसके सदस्य नहीं हैं ।
(3)
राज्य विधिज्ञ परिषद् और भारतीय विधिज्ञ परिषद् अपने सदस्यों में से
ऐसी अन्य समितियों का गठन करेगी जिन्हें वह अधिनियम के उपबंधों को कार्यान्वित
करने के प्रयोजन के लिए आवश्यक समझे ।
[10क. विधिज्ञ परिषदों और उनकी समितियों द्वारा कारबार के संव्यवहार- [(1) भारतीय विधिज्ञ
परिषद् का अधिवेशन नई दिल्ली में या ऐसे अन्य स्थान पर होगा जो वह, ऐसे कारणों से जो लेखबद्ध किए जाएंगे, अवधारित करे ।
(2)
राज्य विधिज्ञ परिषद् का अधिवेशन उसके मुख्यालय में या ऐसे अन्य
स्थान पर होगा जो वह, ऐसे कारणों से जो लेखबद्ध किए जाएंगे,
अवधारित करे ।]
(3)
विधिज्ञ परिषदों द्वारा गठित अनुशासन समितियों से भिन्न समितियों का
अधिवेशन विधिज्ञ परिषदों के अपने-अपने मुख्यालयों में होगा ।
(4)
प्रत्येक विधिज्ञ परिषद् और अनुशासन समितियों से भिन्न उसकी
प्रत्येक समिति अपने अधिवेशनों में कारबार के संव्यवहार की बाबत प्रक्रिया के ऐसे
नियमों का अनुपालन करेगी जो विहित किए जाएं ।
(5)
धारा 9 के अधीन गठित अनुशासन समितियों का
अधिवेशन ऐसे समय और स्थानों पर होगा और वे अपने अधिवेशनों में कारबार के संव्यवहार
की बाबत प्रक्रिया के ऐसे नियमों का अनुपालन करेगी जो विहित किए जाएं ।
[
[10ख.] विधिज्ञ परिषदों के सदस्यों की निरर्हता-विधिज्ञ
परिषद् के किसी निर्वाचित सदस्य ने अपना पद रिक्त किया है ऐसा तब समझा जाएगा जब
उसके बारे में उस विधिज्ञ परिषद् द्वारा, जिसका वह
सदस्य है, यह घोषित किया गया हो कि वह उस परिषद् के लगातार
तीन अधिवेशनों में पर्याप्त कारण के बिना अनुपस्थित रहा है या जब उसका नाम किसी
कारणवश अधिवक्ताओं की नामावली से हटा दिया गया हो या जब वह भारतीय विधिज्ञ परिषद्
द्वारा बनाए गए किसी नियम के अधीन अन्यथा निरर्हित हो गया हो ।]
11. विधिज्ञ परिषद् का कर्मचारिवृन्द-(1) प्रत्येक
विधिज्ञ परिषद् एक सचिव की नियुक्ति करेगी और एक लेखापाल और ऐसे अन्य व्यक्तियों
की अपने कर्मचारिवृन्द के रूप में नियुक्त कर सकेगी जिन्हें वह आवश्यक समझे ।
(2)
सचिव और लेखापाल की, यदि कोई हों, अर्हताएं वे होंगी जो विहित की जाएं ।
12. लेखा तथा लेखापरीक्षा-(1)
प्रत्येक विधिज्ञ परिषद् ऐसी लेखा बहियां और अन्य बहियां ऐसे प्ररूप
में और ऐसी रीति से रखवाएगी जो विहित की जाएं ।
(2)
विधिज्ञ परिषद् के लेखाओं की लेखापरीक्षा, कम्पनी
अधिनियम, 1956 (1956 का 1) के अधीन
कम्पनियों के लेखापरीक्षकों के रूप में कार्य करने के लिए सम्यक् रूप से अर्हित
लेखापरीक्षकों द्वारा, ऐसे समयों पर और ऐसी रीति से की जाएगी,
जो विहित की जाएं ।
[(3)
प्रत्येक वित्तीय वर्ष की समाप्ति पर, यथासाध्य
शीघ्रता से, किन्तु ठीक अगले वर्ष के दिसम्बर के 31वें दिन के पश्चात् नहीं, राज्य विधिज्ञ परिषद् अपने
लेखाओं की एक प्रति, लेखापरीक्षकों की रिपोर्ट की एक प्रति
सहित, भारतीय विधिज्ञ परिषद् को भेजेगी और उसे राजपत्र में
प्रकाशित करवाएगी ।]
(4)
प्रत्येक वित्तीय वर्ष की समाप्ति पर, यथासाध्य
शीघ्रता से, किन्तु ठीक अगले वर्ष के दिसम्बर के 31वें दिन के पश्चात् नहीं, भारतीय विधिज्ञ परिषद्
अपने लेखाओं की एक प्रति, लेखापरीक्षकों की रिपोर्ट की एक
प्रति सहित, केन्द्रीय सरकार को भेजेगी और उसे भारत के
राजपत्र में प्रकाशित करवाएगी ।
13. विधिज्ञ परिषद् और उसकी समितियों में रिक्ति होने के कारण की गई कार्रवाही का अविधिमान्य न होना-विधिज्ञ
परिषद् या उसकी किसी समिति द्वारा किया गया कोई भी कार्य केवल इस आधार पर प्रश्नगत
नहीं किया जाएगा कि, यथास्थिति, परिषद् या समिति में कोई रिक्ति विद्यमान थी या उसके गठन में कोई त्रुटि
थी ।
14. विधिज्ञ परिषद् के निर्वाचन का कुछ आधारों पर प्रश्नगत नहीं किया जाना-विधिज्ञ परिषद् के लिए किसी सदस्य का कोई भी निर्वाचन केवल इस आधार पर
प्रश्नगत नहीं किया जाएगा कि उसमें मत देने के लिए हकदार किसी व्यक्ति को उसकी
सम्यक् सूचना नहीं दी गई है, यदि निर्वाचन की तारीख की सूचना,
कम से कम उस तारीख से तीस दिन पहले, राजपत्र
में प्रकाशित कर दी गई हो ।
15. नियम बनाने की शक्ति-(1) विधिज्ञ परिषद् इस
अध्याय के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए नियम बना सकेगी ।
(2)
विशिष्टतया तथा पूर्वगामी शक्ति की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव
डाले बिना, ऐसे नियम निम्नलिखित के लिए उपबन्ध कर सकेंगे-
[(क) विधिज्ञ परिषद् के सदस्यों का गुप्त मतदान द्वारा निर्वाचन, जिसके अन्तर्गत वे शर्तें भी हैं जिनके अधीन रहते हुए व्यक्ति डाक मतपत्र
द्वारा मतदान के अधिकार का प्रयोग कर सकते हैं, निर्वाचक
नामावलियां तैयार करना और उनका पुनरीक्षण और वह रीति जिससे निर्वाचन के परिणाम
प्रकाशित किए जाएंगे;]
[(ग) विधिज्ञ परिषद् के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के निर्वाचन की रीति;]
(घ) वह रीति, जिससे, और वह
प्राधिकारी जिसके द्वारा विधिज्ञ परिषद् के लिए 4[या अध्यक्ष
या उपाध्यक्ष के पद के लिएट किसी निर्वाचन की विधिमान्यता के बारे में शंकाओं और
विवादों का अन्तिम रूप से विनिश्चय किया जाएगा;
(च) विधिज्ञ परिषद् में आकस्मिक रिक्तियों का भरना;
(छ) विधिज्ञ परिषद् के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष की शक्तियां और कर्तव्य;
[(छक) धारा 6 की उपधारा (2) और
धारा 7 की उपधारा (2) में निर्दिष्ट
वित्तीय सहायता देने या विधिक सहायता या सलाह देने के प्रयोजन के लिए विधिज्ञ
परिषद् द्वारा एक या अधिक निधियों का गठन;
(छख) निर्धनों के लिए विधिक सहायता और सलाह देने के लिए आयोजन, और उस प्रयोजन के लिए समितियों और उपसमितियों का गठन और उनके कृत्य तथा उन
कार्यवाहियों का विवरण जिनके सम्बन्ध में विधिक सहायता या सलाह दी जा सकती है;]
(ज) विधिज्ञ परिषद् के अधिवेशन बुलाना और उनका आयोजन, ॥। उनमें कारबार का संचालन और उनमें गणूपर्ति के लिए आवश्यक सदस्य-संख्या
(झ) विधिज्ञ परिषद् की किसी समिति का गठन और उसके कृत्य और किसी ऐसी समिति
के सदस्यों की पदावधि;
(ञ) ऐसी किसी समिति के अधिवेशन बुलाना और उनका आयोजन, उनमें कारबार के संव्यवहार और गणपूर्ति के लिए आवश्यक सदस्य-संख्या;
(ट) विधिज्ञ परिषद् के सचिव, लेखापाल और अन्य
कर्मचारियों की अर्हताएं और उनकी सेवा की शर्तें;
(ठ) विधिज्ञ परिषद् द्वारा लेखा-बहियों तथा अन्य पुस्तकों का रखा जाना;
(ड) लेखापरीक्षकों की नियुक्ति और विधिज्ञ परिषद् के लेखाओं की लेखापरीक्षा
।
(ण) विधिज्ञ परिषद् की निधियों का प्रबन्ध और विनिधान ।
(3)
किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा इस धारा के अधीन बनाए गए नियम तब
तक प्रभावी नहीं होंगे जब तक भारतीय विधिज्ञ परिषद् उनका अनुमोदन न कर दे ।
अध्याय 3
अधिवक्ताओं का प्रवेश और नामांकन
16. वरिष्ठ तथा अन्य अधिवक्ता-(1) अधिवक्ताओं के दो
वर्ग होंगे, अर्थात् वरिष्ठ अधिवक्ता और अन्य अधिवक्ता ।
(2)
कोई अधिवक्ता, अपनी सहमति से, वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में अभिहित किया जा सकेगा यदि उच्चतम न्यायालय या
किसी उच्च न्यायालय की यह राय है कि वह अपनी योग्यता [विधि व्यवसायी वर्ग में विधि
व्यवसाय काल या विधि विषयक विशेष ज्ञान या अनुभवट के आधार पर ऐसे सम्मान के योग्य
है ।
(3)
वरिष्ठ अधिवक्ता अपने विधि व्यवसाय के मामले में ऐसे निर्बनों के
अधीन होंगे, जिन्हें भारतीय विधिज्ञ परिषद् विधि व्यवसाय के
हित में, विहित करे ।
(4)
उच्चतम न्यायालय का ऐसा अधिवक्ता, जो नियत दिन
के ठीक पूर्व उस न्यायालय का वरिष्ठ अधिवक्ता था, इस धारा के
प्रयोजनों के लिए, वरिष्ठ अधिवक्ता समझा जाएगा:
[परन्तु जहां कोई ऐसा वरिष्ठ अधिवक्ता 31 दिसम्बर,
1965 के पूर्व उस विधिज्ञ परिषद् को जो ऐसी नामावली रखती है जिसमें
उसका नाम दर्ज किया गया है, आवेदन करता है कि वह वरिष्ठ
अधिवक्ता नहीं बना रहना चाहता है वहां, विधिज्ञ परिषद् उस
आवेदन को मंजूर कर सकेगी और तदनुसार नामावली परिवर्तित की जाएगी ।]
17. राज्य विधिज्ञ परिषद् अधिवक्ताओं की नामावली रखेगी-(1) प्रत्येक राज्य विधिज्ञ
परिषद् अधिवक्ताओं की ऐसी नामावली तैयार करेगी और रखेगी जिसमें-
(क) ऐसे सभी व्यक्तियों के नाम और पते दर्ज किए जाएंगे जो नियत दिन के ठीक
पूर्ण भारतीय विधिज्ञ परिषद् अधिनियम, 1926 (1926 का 38)
के अधीन किसी उच्च न्यायालय की अधिवक्ता नामावली में अधिवक्ता के
रूप में दर्ज थे [और इसके अन्तर्गत उन व्यक्तियों के
नाम और पते भी होंगे जो भारत के नागरिक होते हुए 15 अगस्त,
1947 के पूर्व, उक्त अधिनियम के अधीन अधिवक्ता
के रूप में ऐसे क्षेत्र में नामांकित थे जो उक्त तारीख के पूर्व भारत शासन अधिनियम,
1935 (25 और 26, जॉ० 5 सी
42) द्वारा परिनिश्चित क्षेत्र में समाविष्ट थे और जो]
विधिज्ञ परिषद् की अधिकारिता के भीतर विधि व्यवसाय करने का अपना आशय विहित रूप में
2[किसी भी समय] अभिव्यक्त करें;
(ख) ऐसे सभी अन्य व्यक्तियों के नाम और पते होंगे जो राज्य विधिज्ञ परिषद्
की नामावली में, नियत दिन को या उसके पश्चात् इस अधिनियम के
अधीन अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किए गए हों ।
(2)
अधिवक्ताओं की प्रत्येक ऐसी नामावली के दो भाग होंगे-प्रथम भाग में
वरिष्ठ अधिवक्ताओं के नाम होंगे और दूसरे भाग में अन्य अधिवक्ताओं के नाम ।
(3)
किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा इस धारा के अधीन तैयार की गई और
रखी गई अधिवक्ताओं की नामावली के प्रत्येक भाग में प्रविष्टियां ज्येष्ठता के क्रम
से होंगी, [और किसी ऐसे नियम के अधीन रहते हुए, जो भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा इस निमित्त बनाया जाए, ऐसी ज्येष्ठता निम्नलिखित रूप में अवधारित की जाएगी]: -
(क) उपधारा (1) के खंड (क) में निर्दिष्ट किसी
अधिवक्ता की ज्येष्ठता, भारतीय विधिज्ञ परिषद् अधिनियम,
1926 (1926 का 38) के अधीन उसके नामांकन की
तारीख के अनुसार अवधारित की जाएगी;
(ख) किसी ऐसे व्यक्ति की ज्येष्ठता, जो नियत दिन के
ठीक पूर्व उच्चतम न्यायालय का वरिष्ठ अधिवक्ता था, राज्य
नामावली के प्रथम भाग के प्रयोजनों के लिए, ऐसे सिद्धान्तों
के अनुसार अवधारित की जाएगी, जिन्हें भारतीय विधिज्ञ परिषद्
विनिर्दिष्ट करे;
(घ) किसी अन्य व्यक्ति की ज्येष्ठता, जो नियत दिन को
या उसके पश्चात् वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामांकित किया गया है या अधिवक्ता के
रूप में प्रविष्ट किया गया है, यथास्थिति, ऐसे नामांकन या प्रवेश की तारीख के आधार पर अवधारित की जाएगी;
[(ङ) खण्ड (क) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी किसी नामांकित
अटर्नी की [चाहे वह अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1980 के
प्रारम्भ के पूर्व या पश्चात् नामांकित होट ज्येष्ठता, अधिवक्ता
के रूप में उस तारीख के अनुसार अवधारित की जाएगीट जो उसके अटर्नी के रूप में
नामांकित किए जाने की तारीख हो ।]
(4)
कोई भी व्यक्ति एक से अधिक राज्य विधिज्ञ परिषदों की नामावली में
अधिवक्ता के रूप में नामांकित नहीं किया जाएगा ।
18. एक राज्य की नामावली से दूसरे राज्य की नामावली में नाम का अन्तरण-(1) धारा 17 में किसी बात के होते हुए भी, कोई व्यक्ति, जिसका नाम किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामावली में अधिवक्ता के रूप में
दर्ज है, अपना नाम उस राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामावली से
किसी अन्य राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामावली में अन्तरित कराने के लिए, विहित रूप में, भारतीय विधिज्ञ परिषद् को आवेदन कर
सकेगा और ऐसे आवेदन की प्राप्ति पर भारतीय विधिज्ञ परिषद् यह निदेश देगी कि ऐसे
व्यक्ति का नाम, किसी फीस के संदाय के बिना, प्रथम वर्णित राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामावली से हटा कर उस अन्य राज्य परिषद् की नामावली में दर्ज किया जाए और सम्बद्ध राज्य विधिज्ञ
परिषद् ऐसे निदेश का अनुपालन करेगी :
[परन्तु जहां अन्तरण के लिए ऐसा कोई आवेदन ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया है
जिसके विरुद्ध कोई अनुशासिक कार्यवाही लंबित है या जहां किसी अन्य कारण से भारतीय
विधिज्ञ परिषद् को यह प्रतीत होता है कि अन्तरण के लिए आवेदन सद्भावपूर्वक नहीं
किया गया है और अन्तरण नहीं किया जाना चाहिए वहां भारतीय विधिज्ञ परिषद् आवेदन
करने वाले व्यक्ति को इस निमित्त अभ्यावेदन करने का अवसर देने के पश्चात् आवेदन
नामंजूर कर सकेगी ।]
(2)
शंकाओं को दूर करने के लिए इसके द्वारा यह घोषित किया जाता है कि
जहां उपधारा (1) के अधीन किसी अधिवक्ता द्वारा किए गए आवेदन
पर, उसका नाम एक राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामावली से किसी
अन्य राज्य की नामावली में अन्तरित किया जाता है वहां उस पश्चात्कथित नामावली में
उसकी वही ज्येष्ठता बनी रहेगी जिसका वह पूर्ववर्ती नामावली में हकदार था ।
19. अधिवक्ताओं की नामावलियों की प्रतियों का राज्य विधिज्ञ परिषदों द्वारा भारतीय विधिज्ञ परिषद् को भेजा जाना-प्रत्येक राज्य विधिज्ञ
परिषद्, इस अधिनियम के अधीन अपने द्वारा पहली बार बनाई गई
अधिवक्ताओं की नामवली की एक अधिप्रमाणित प्रति भारतीय विधिज्ञ परिषद् को भेजेगी और
उसके पश्चात् नहीं, ऐसी नामावली में किए गए सभी परिवर्तन और
परिवर्धन, उनके किए जाने के पश्चात् यथाशक्य शीघ्र, भारतीय विधिज्ञ परिषद् को संसूचित करेगी ।
[20. उच्चतम न्यायालय के कुछ अधिवक्ताओं के नामांकन के लिए विशेष उपबन्ध-(1)
इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी, प्रत्येक
ऐसा अधिवक्ता, जो नियत दिन के ठीक पूर्व उच्चतम न्यायालय में
विधि व्यवसाय करने के लिए साधिकार हकदार था और जिसका नाम किसी राज्य नामावली में
दर्ज नहीं है, किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामावली में
अपना नाम दर्ज कराने का आशय विहित समय के भीतर, विहित प्ररूप
में भारतीय विधिज्ञ परिषद् को प्रकट कर सकेगा और उसके प्राप्त हो जाने पर भारतीय
विधिज्ञ परिषद् यह निदेश देगी कि ऐसे अधिवक्ता का नाम, किसी
फीस के संदाय के बिना, उस राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामावली
में दर्ज किया जाए, और सम्बद्ध राज्य विधिज्ञ परिषद् ऐसे
निदेश का अनुपालन करेगी ।
(2)
भारतीय विधिज्ञ परिषद् के उपधारा (1) के अधीन
निदेश के अनुपालन में राज्य नामावली में कोई भी प्रविष्टि धारा 17 की उपधारा (3) के उपबंधों के अनुसार अवधारित
ज्येष्ठता के क्रम से की जाएगी ।
(3)
जहां उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट कोई अधिवक्ता,
विहित समय के भीतर अपना आशय प्रकट करने में लोप करता है या असफल
रहता है वहां उसका नाम दिल्ली की राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामावली में दर्ज किया
जाएगा ।]
21. ज्येष्ठता के बारे में विवाद-(1)
जहां दो या उससे अधिक व्यक्तियों की ज्येष्ठता की तारीख एक ही हो,
वहां आयु में ज्येष्ठ व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से ज्येष्ठ माना जाएगा
।
[(2)
यथापूर्वोक्त के अधीन रहते हुए, यदि किसी
व्यक्ति की ज्येष्ठता के बारे में, कोई विवाद उत्पन्न होता
है, तो उसे सम्बद्ध राज्य विधिज्ञ परिषद् को विनिश्चय के लिए
विनिर्दिष्ट किया जाएगा ।]
[22. नामांकन प्रमाणपत्र-(1)
राज्य विधिज्ञ परिषद् प्रत्येक ऐसे व्यक्ति को, जिसका नाम इस अधिनियम के अधीन उसके द्वारा रखी गई अधिवक्ता नामावली में
दर्ज है, विहित प्ररूप में नामांकन प्रमाणपत्र जारी करेगी ।
(2)
ऐसा प्रत्येक व्यक्ति जिसका नाम राज्य नामावली में इस प्रकार दर्ज
है, अपने स्थायी निवास स्थान में किसी परिवर्तन की सूचना
सम्बद्ध राज्य विधिज्ञ परिषद् को ऐसे परिवर्तन के नब्बे दिन के भीतर देगा ।]
23. पूर्व सुनवाई का अधिकार-(1) भारत के महान्यायवादी की
सुनवाई अन्य सभी अधिवक्ताओं से पूर्व होगी ।
(2)
उपधारा (1) के उपबन्धों के अधीन रहते हुए,
भारत के महासालिसिटर की सुनवाई अन्य सभी अधिवक्ताओं से पूर्व होगी ।
(3)
उपधारा (1) और उपधारा (2) के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, भारत के अपर
महासालिसिटर की सुनवाई अन्य सभी अधिवक्ताओं से पूर्व होगी ।
[(3क) उपधारा (1), उपधारा (2) और
उपधारा (3) के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, भारत के द्वितीय अपर महासालिसिटर की सुनवाई अन्य सभी अधिवक्ताओं से पूर्व
होगी ।]
(4)
उपधारा (1), [उपधारा (2), उपधारा (3) और उपधारा (3क)] के
उपबन्धों के अधीन रहते हुए, किसी राज्य के महाधिवक्ता की
सुनवाई अन्य सभी अधिवक्ताओं से पूर्व होगी और महाधिवक्ताओं में परस्पर पूर्व
सुनवाई का अधिकार उनकी अपनी-अपनी ज्येष्ठता के अनुसार अवधारित किया जाएगा ।
(5)
यथापूर्वोक्त के अधीन रहते हुए-
(i)
वरिष्ठ अधिवक्ताओं की सुनवाई अन्य अधिवक्ताओं से पूर्व होगी,
और
(ii)
वरिष्ठ अधिवक्ताओं में परस्पर और अन्य अधिवक्ताओं में परस्पर पूर्व
सुनवाई का अधिकार उनकी अपनी-अपनी ज्येष्ठता के अनुसार अवधारित किया जाएगा ।
24. वे व्यक्ति, जिन्हें किसी राज्य नामावली में अधिवक्ताओं के रूप में प्रविष्ट किया जा सकता है-(1) इस अधिनियम और उसके अधीन
बनाए गए नियमों के उपबन्धों के अधीन रहते हुए कोई व्यक्ति किसी राज्य नामावली में
अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किए जाने के लिए अर्हित तभी होगा जब वह निम्नलिखित
शर्तें पूरी करे, अर्थात्: -
(क) वह भारत का नागरिक हो:
परन्तु
इस अधिनियम के अन्य उपबन्धों के अधीन रहते हुए, किसी अन्य
देश का राष्ट्रिक किसी राज्य नामावली में अधिवक्ता के रूप में उस दशा में प्रविष्ट
किया जा सकेगा जब सम्यक् रूप से अर्हित भारत के नागरिक उस अन्य देश में विधि
व्यवसाय करने के लिए अनुज्ञात हों;
(ख) उसने इक्कीस वर्ष की आयु पूरी कर ली है;
(ग) उसने-
(i)
भारत के राज्यक्षेत्र के किसी विश्वविद्यालय से [12 मार्च, 1967] से पूर्व विधि की उपाधि प्राप्त कर ली
है;
(ii)
किसी ऐसे क्षेत्र के, जो भारत शासन अधिनियम,
1935 द्वारा परिनिश्चित भारत के भीतर 15 अगस्त,
1947 के पूर्व समाविष्ट था, किसी
विश्वविद्यालय से, उस तारीख के पूर्व विधि की उपाधि प्राप्त
कर ली है; या
[(iii)
उपखण्ड (त्त्त्क) में जैसा उपबन्धित है उसके सिवाय, विधि विषय में तीन वर्ष के पाठ्यक्रम को पूरा करने के पश्चात् भारत के
किसी ऐसे विश्वविद्यालय से जिसे भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा, इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए मान्यता प्राप्त है, 12 मार्च, 1967 के पश्चात् विधि की उपाधि प्राप्त कर ली
है; या
(त्त्त्क) विधि विषय में ऐसा पाठ्यक्रम पूरा करने के पश्चात् जिसकी अवधि
शिक्षण वर्ष 1967-68 या किसी पूर्ववर्ती शिक्षण वर्ष से
आरम्भ होकर दो शिक्षण वर्षों से कम की न हो, भारत के किसी
ऐसे विश्वविद्यालय से जिसे भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा, इस
अधिनियम के प्रयोजनों के लिए मान्यता प्राप्त है, विधि की
उपाधि प्राप्त कर ली है; या]
[(iv)
किसी अन्य दशा में भारत के राज्यक्षेत्र से बारह के किसी
विश्वविद्यालय से विधि की उपाधि प्राप्त की है, यदि उस उपाधि
को इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए, भारतीय विधिज्ञ परिषद्
द्वारा मान्यता प्राप्त है; या]
[वह बैरिस्टर है और उसे 31 दिसम्बर, 1976 को या उसके पूर्व विधि व्यवसायी वर्ग में लिया गया है,] [अथवा वह मुम्बई अथवा कलकत्ता उच्च न्यायालय के अटर्नी रूप में नामांकन के
लिए मुम्बई या कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा विनिर्दिष्ट आबद्ध शिक्षार्थी की
परीक्षा या किसी अन्य परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुका है;] अथवा
उसने विधिमें ऐसी अन्य विदेशी अर्हता प्राप्त कर ली है जिसे इस अधिनियम के अधीन
अधिवक्ता के रूप में प्रवेश पाने के प्रयोजन के लिए भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा
मान्यता प्राप्त है];
(ङ) वह ऐसी अन्य शर्तें पूरी करता है, जो इस अध्याय
के अधीन राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा बनाए गए नियमों में विनिर्दिष्ट की जाएं;
[(च) उसने, नामांकन के लिए, भारतीय
स्टाम्प अधिनियम, 1899 (1899 का 2) के
अधीन प्रभार्य स्टाम्प शुल्क, यदि कोई हो, और राज्य विधिज्ञ परिषद् को [संदेय छह सौ रुपए और भारतीय विधिज्ञ परिषद्
को, उस परिषद् के पक्ष में लिखे गए बैंक ड्राफ्ट के रूप में,
संदेय एक सौ पचास रुपए की] नामांकन फीस दे दी है:
परन्तु
जहां ऐसा व्यक्ति अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य है और ऐसे प्राधिकारी
से जो विहित किया जाए, उस आशय का प्रमाणपत्र पेश
करता है वहां 7[उसके द्वारा संदेय नामांकन फीस राज्य विधिज्ञ
परिषद् की दशा में एक सौ रुपए और भारतीय विधिज्ञ परिषद् की दशा में पच्चीस रुपए
होगी ।]
[स्पष्टीकरण-इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए किसी
व्यक्ति को भारत के किसी विश्वविद्यालय से विधि की उपाधि-प्राप्त उस तारीख से समझा
जाएगा, जिस तारीख को उस उपाधि की परीक्षा के परिणाम, विश्वविद्यालय द्वारा अपनी सूचना पट्ट पर, प्रकाशित
किए जाते हैं या अन्यथा यह घोषित किया जाता है कि उसने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है
।]
(2)
उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी [कोई
वकील या प्लीडर, जो विधि स्नातक है,] राज्य
नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किया जा सकता है, यदि
वह-
(क) इस अधिनियम के उपबंधों के अनुसार ऐसे नामांकन के लिए आवेदन नियत दिन से
दो वर्ष के भीतर, न कि उसके पश्चात् करता है; और
(ख) उपधारा (1) के खंड (क), (ख),
(ङ) और (च) में विनिर्दिष्ट शर्तें पूरी करता है ।
2[(3)
उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी,
कोई व्यक्ति, जो-
(क) । । । कम से कम तीन वर्ष तक वकील या प्लीडर या मुख्तार रहा हो, या । । । किसी विधि के अधीन किसी भी समय किसी उच्च न्यायालय के (जिसके
अन्तर्गत भूतपूर्व भाग ख राज्य का उच्च न्यायालय भी है) या किसी संघ राज्यक्षेत्र
में न्यायिक आयुक्त के न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में नामांकित किए जाने का
हकदार था; या
[(कक) किसी विधि के उपबंधों के आधार पर (चाहे अभिवचन द्वारा या कार्य द्वारा
या दोनों के द्वारा) विधि व्यवसाय करने के लिए अधिवक्ता से भिन्न रूप में 1
दिसम्बर, 1961 के पूर्व हकदार था, या जो इस प्रकार हकदार होता यदि वह उस तारीख को लोक सेवा में न होता;]
या
(ग) भारत शासन अधिनियम, 1935 (25 और 26 जॉ० 5 सी 42) द्वारा
परिनिश्चित बर्मा में समाविष्ट किसी क्षेत्र के किसी उच्च न्यायालय का, 1 अप्रैल, 1937 के पूर्व अधिवक्ता था; या
(घ) भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा इस निमित्त बनाए गए किसी नियम के अधीन
अधिवक्ता के रूप में नामांकित किए जाने के लिए हकदार है,
किसी
राज्य नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किया जा सकेगा,
यदि वह-
(i)
इस अधिनियम के उपबंधों के अनुसार ऐसे नामांकन के लिए आवेदन करता है;
और
(ii)
उपधारा (1) के खंड (क), (ख), (ङ) और (च) में विनिर्दिष्ट शर्तें पूरी करता है
।]
[24क. नामांकन के लिए निरर्हता-(1)
कोई भी व्यक्ति किसी राज्य नामावली में अधिवक्ता के रूप में
प्रविष्ट नहीं किया जाएगा, यदि-
(क) वह नैतिक अधमता से संबंधित अपराध के लिए सिद्धदोष ठहराया गया है;
(ख) वह अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 (1955 का 22)
के उपबंधों के अधीन किसी अपराध के लिए सिद्धदोष ठहराया गया है;
[(ग) वह किसी ऐसे आरोप पर जिसमें नैतिक अधमता अन्तर्वलित है, राज्य के अधीन नियोजन या पद से हटाया जाता है या पदच्युत किया जाता है ।
स्पष्टीकरण-इस
खंड में राज्य" पद का वही अर्थ है जो संविधान के अनुच्छेद 12
में है:]
परन्तु
नामांकन के लिए यथा पूर्वोक्त निरर्हता, उसके
[निर्मुक्त होने अथवा, यथास्थिति, पदच्युत
किए जाने या पद से हटाए जाने] से दो वर्ष की अवधि की समाप्ति के पश्चात् प्रभावी
नहीं रहेगी ।]
(2)
उपधारा (1) की कोई भी बात दोषी पाए गए किसी
ऐसे व्यक्ति को लागू नहीं होगी जिसके सम्बन्ध में अपराधी परिवीक्षा अधिनियम,
1958 (1958 का 20) के उपबंधों के अधीन
कार्यवाही की गई है ।]
25. प्राधिकरण जिसे नामांकन के लिए आवेदन किए जा सकेंगे-अधिवक्ता के रूप में प्रवेश के लिए आवेदन विहित प्ररूप में उस राज्य
विधिज्ञ परिषद् को किया जाएगा जिसकी अधिकारिता के भीतर आवेदक विधि व्यवसाय करना
चाहता है ।
26. अधिवक्ता के रूप में प्रवेश के लिए आवेदनों का निपटारा-(1) राज्य विधिज्ञ
परिषद् अधिवक्ता के रूप में प्रवेश के लिए प्रत्येक आवेदन को अपनी नामांकन समिति
को निर्दिष्ट करेगी और ऐसी समिति उपधारा (2) और उपधारा (3)
के उपबन्धों के अधीन रहते हुए [और किसी ऐसे निदेश के अधीन रहते हुए,
जो इस निमित्त राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा लिखित रूप में दिया जाए],
विहित रीति से आवेदन का निपटारा करेगी:
9[परन्तु यदि भारतीय विधिज्ञ परिषद् का, या तो इस
निमित्त उसे किए गए निर्देश पर या अन्यथा, यह समाधान हो जाता
है कि किसी व्यक्ति ने किसी आवश्यक तथ्य के सम्बन्ध में दुर्व्यपदेशन द्वारा या
कपट द्वारा या असम्यक् असर डालकर, अधिवक्ता नामावली में अपना
दर्ज करवाया है, तो वह उस व्यक्ति को सुनवाई का अवसर देने के
पश्चात्, उसका नाम अधिवक्ता नामावली में से हटा सकेगी ।]
(2)
जहां किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामांकन समिति, किसी ऐसे आवेदन को इंकार करने का प्रस्ताव करती है वहां वह आवेदन को
भारतीय विधिज्ञ परिषद् की राय के लिए निर्दिष्ट करेगी और प्रत्येक ऐसे निर्देश के
साथ आवेदन के इंकार किए जाने वाले आधारों के समर्थन में विवरण होगा ।
(3)
राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामांकन समिति उपधारा (2) के अधीन भारतीय विधिज्ञ परिषद् को निर्दिष्ट किसी आवेदन का निपटारा भारतीय
विधिज्ञ परिषद् की राय के अनुरूप करेगी ।
[(4)
जहां किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की नामांकन समिति ने अपनी नामावली
में अधिवक्ता के रूप में प्रवेश के लिए किसी आवेदन को नामंजूर किया है वहां वह
राज्य विधिज्ञ परिषद् यथाशक्य शीघ्र, अन्य सभी राज्य विधिज्ञ
परिषदों को ऐसी नामंजूरी की इत्तिला भेजेगी जिसमें उस व्यक्ति के नाम, पते और अर्हताओं का कथन होगा जिसके आवेदन को इंकार किया गया है और आवेदन
के इंकार किए जाने के आधार भी दिए जाएंगे ।]
[26क. नामावली से नाम हटाने की शक्ति-राज्य विधिज्ञ परिषद् ऐसे
किसी भी अधिवक्ता का नाम राज्य नामावली से हटा सकेगी जिसकी मृत्यु हो गई हो या जिस
अधिवक्ता से नाम हटाने के आशय का आवेदन प्राप्त हो गया हो ।]
27. एक बार इंकार किए गए आवेदन का अन्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा कुछ परिस्थितियों के सिवाय, ग्रहण न किया जाना-जहां किसी राज्य विधिज्ञ
परिषद् ने अपनी नामावली में किसी व्यक्ति को अधिवक्ता के रूप में प्रवेश के लिए
उसके आवेदन को इंकार कर दिया है, वहां कोई भी अन्य राज्य
विधिज्ञ परिषद् ऐसे व्यक्ति का आवेदन अपनी नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रवेश
के लिए उस राज्य विधिज्ञ परिषद् की, जिसने आवेदन नामंजूर
किया था, तथा भारतीय विधिज्ञ परिषद् की, लिखित पूर्व सम्मति के बिना, ग्रहण नहीं करेगी ।
28. नियम बनाने की शक्ति-(1) इस अध्याय के प्रयोजनों
को कार्यान्वित करने के लिए राज्य विधिज्ञ परिषद् नियम बना सकेगी ।
(2)
विशिष्टतया और पूर्वगामी शक्ति की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले
बिना, ऐसे नियम निम्नलिखित के लिए उपबंध कर सकेंगे, अर्थात्: -
[(क) वह समय जिसके भीतर और वह प्ररूप, जिसमें कोई
अधिवक्ता धारा 20 के अधीन किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की
नामावली में अपना नाम दर्ज कराने का अपना आशय प्रकट करेगा;
(ग) वह प्ररूप जिसमें विधिज्ञ परिषद् को, उसकी
नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रवेश के लिए आवेदन किया जाएगा और वह रीति,
जिससे ऐसे आवेदन का विधिज्ञ परिषद् की नामांकन समिति द्वारा निपटारा
किया जाएगा;
(घ) वे शर्तें जिनके अधीन रहते हुए, कोई व्यक्ति ऐसी
किसी नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किया जा सकेगा;
(ङ) वे किस्तें जिनमें नामांकन फीस दी जा सकेगी ।
(3)
इस अध्याय के अधीन बनाए गए नियम तब तक प्रभावी नहीं होंगे जब तक वे
भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा अनुमोदित न कर दिए गए हों ।]
अध्याय 4
विधि व्यवसाय का अधिकार
29. केवल अधिवक्ताओं का ही मान्यताप्राप्त व्यक्तियों का वर्ग, विधि व्यवसाय करने के लिए हकदार होना-इस अधिनियम और उसके अधीन बनाए गए किन्हीं नियमों के उपबंधों के अधीन रहते
हुए, नियत दिन से विधि व्यवसाय करने के लिए हकदार व्यक्तियों
का एक ही वर्ग होगा, अर्थात् अधिवक्ता ।
30. अधिवक्ताओं का विधि व्यवसाय का अधिकार-इस अधिनियम के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, प्रत्येक
अधिवक्ता जिसका नाम [राज्य नामावली] में दर्ज है, ऐसे समस्त
राज्यक्षेत्रों के, जिन पर इस अधिनियम का विस्तार है,
-
(i)
सभी न्यायालयों में, जिनमें उच्चतम न्यायालय
भी सम्मिलित है;
(ii)
किसी ऐसे अधिकरण या व्यक्ति के समक्ष, जो
साक्ष्य लेने के लिए वैध रूप से प्राधिकृत है;
(iii)
किसी अन्य ऐसे प्राधिकारी या व्यक्ति के समक्ष जिसके समक्ष ऐसा
अधिवक्ता उस समय प्रवृत्त किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विधि व्यवसाय करने का
हकदार है,
साधिकार
विधि व्यवसाय करने का हकदार होगा ।
31.
[न्यायवादियों के लिए विशेष उपबंध ।]-1976 के अधिनियम सं० 107
की धारा 7 द्वारा (1-1-1977) से निरसित ।
32. विशिष्ट मामलों में उपसंजात होने के लिए अनुज्ञा देने की न्यायालय की शक्ति-इस अध्याय में किसी बात के
होते हुए भी, कोई न्यायालय, प्राधिकरण
या व्यक्ति, अपने समक्ष किसी विशिष्ट मामले में किसी व्यक्ति
को, जो इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में नामांकित
नहीं है, उपसंजात होने की अनुज्ञा दे सकेगा ।
33. विधि व्यवसाय करने के लिए केवल अधिवक्ता हकदार होंगे-इस अधिनियम में या उस समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में जैसा उपबन्धित है
उसके सिवाय, कोई व्यक्ति, नियत दिन को
या उसके पश्चात् किसी न्यायालय में या किसी प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि
व्यवसाय करने का हकदार तब तक नहीं होगा जब तक वह इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के
रूप में नामांकित न हो ।
34. उच्च न्यायालयों की नियम बनाने की शक्ति-(1) उच्च न्यायालय, ऐसी शर्तों को अधिकथित करते हुए नियम बना सकेगा, जिनके
अधीन रहते हुए किसी अधिवक्ता को उच्च न्यायालय में और उसके अधीनस्थ न्यायालयों में
विधि व्यवसाय करने के लिए अनुज्ञात किया जाएगा ।
[(1क) उच्च न्यायालय, अपनी या अपने अधीनस्थ किसी
न्यायालय की सभी कार्यवाहियों में किसी पक्षकार द्वारा, अपने
प्रतिपक्षी के अधिवक्ता की फीस की बाबत खर्चे के रूप में संदेय फीस, विनिर्धारण द्वारा या अन्यथा, नियत और विनियमित करने
के लिए, नियम बनाएगा ।]
[(2)
उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट उपबंधों पर
प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना कलकत्ता स्थित उच्च न्यायालय आबद्ध शिक्षार्थियों के
लिए इन्टरमीडिएट और अंतिम परीक्षाएं लेने का, जो धारा 58कछ में निर्दिष्ट व्यक्तियों को राज्य नामावली में अधिवक्ताओं के रूप में
प्रविष्टि किए जाने के प्रयोजन से उत्तीर्ण करनी होंगी, उपबंध
करने के लिए और उससे सम्बन्धित किसी अन्य विषय के लिए नियम बना सकेगा ।]
अध्याय 5
अधिवक्ताओं का आचरण
35. अवचार के लिए अधिवक्ताओं को दंड-(1)
जहां किसी शिकायत की प्राप्ति पर या अन्यथा, किसी
राज्य विधिज्ञ परिषद् के पास यह विश्वास करने का कारण है कि उसकी नामावली का कोई
अधिवक्ता वृत्तिक या अन्य अवचार का दोषी रहा है वहां वह मामले को, अपनी अनुशासन समिति को निपटारे के लिए, निर्दिष्ट
करेगी ।
[(1क) राज्य विधिज्ञ परिषद् अपनी अनुशासन समिति के समक्ष लंबित किसी
कार्यवाही को, या तो स्वप्रेरणा से या किसी हितबद्ध व्यक्ति
द्वारा उसको दिए गए आवेदन पर, वापस ले सकेगी और यह निदेश दे
सकेगी कि जांच उस राज्य विधिज्ञ परिषद् की किसी अन्य अनुशासन समिति द्वारा की जाए
।]
(2)
राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति । । । मामले की सुनवाई के
लिए तारीख नियत करेगी और उसकी सूचना सम्बद्ध अधिवक्ता को और राज्य के महाधिवक्ता
को दिलवाएगी ।
(3)
राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति, सम्बद्ध
अधिवक्ता और महाधिवक्ता को सुनवाई का अवसर देने के पश्चात्, निम्नलिखित
आदेशों में से कोई आदेश कर सकेगी, अर्थात्: -
(क) शिकायत खारिज कर सकेगी या जहां राज्य विधिज्ञ परिषद् की प्रेरणा पर
कार्यवाहियां आरम्भ की गई थीं वहां यह निदेश दे सकेगी कि कार्यवाहियां फाइल कर दी
जाएं;
(ख) अधिवक्ता को धिग्दंड दे सकेगी;
(ग) अधिवक्ता को विधि व्यवसाय से उतनी अवधि के लिए निलंबित कर सकेगी जितनी
वह ठीक समझे;
(घ) अधिवक्ता का नाम, अधिवक्ताओं की राज्य नामावली
में से हटा सकेगी ।
(4)
जहां कोई अधिवक्ता उपधारा (3) के खंड (ग) के
अधीन विधि व्यवसाय करने से निलंबित कर दिया गया है वहां वह, निलंबन
की अवधि के दौरान, भारत में किसी न्यायालय में या किसी
प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि व्यवसाय करने से विवर्जित किया जाएगा ।
(5)
जहां महाधिवक्ता को उपधारा (2) के अधीन कोई
सूचना जारी की गई हो वहां महाधिवक्ता राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति के
समक्ष, या तो स्वयं या उसकी ओर से हाजिर होने वाले किसी
अधिवक्ता की मार्फत हाजिर हो सकेगा ।
[स्पष्टीकरण-दिल्ली संघ राज्यक्षेत्र के सम्बन्ध
में इस धारा, [धारा 37 और धारा 38]
में, महाधिवक्ता" और राज्य का
महाधिवक्ता" पदों का अर्थ भारत का अपर महासालिसिटर होगा ।]
36. भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासनिक शक्तियां-(1)
जहां किसी शिकायत की प्राप्ति पर या अन्यथा, भारतीय
विधिज्ञ परिषद् के पास यह विश्वास करने का कारण है कि । । । कोई ऐसा अधिवक्ता,
जिसका नाम किसी राज्य नामावली में दर्ज नहीं है, वृत्तिक या अन्य अवचार का दोषी रहा है, वहां वह उस
मामले को, अपनी अनुशासन समिति को निपटारे के लिए, निर्दिष्ट करेगी ।
(2)
इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी, भारतीय
विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति, किसी राज्य विधिज्ञ परिषद्
की अनुशासन समिति के समक्ष किसी अधिवक्ता के विरुद्ध अनुशासनिक कार्रवाई के लिए
लंबित किन्हीं कार्यवाहियों को [या तो स्वप्रेरणा से या किसी राज्य विधिज्ञ परिषद्
की रिपोर्ट पर या किसी हितबद्ध व्यक्ति द्वारा] उसको किए गए आवेदन पर, जांच करने के लिए अपने पास वापस ले सकेगी और उसका निपटारा कर सकेगी ।
(3)
भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति, इस
धारा के अधीन किसी मामले के निपटारे में, धारा 35 में अधिकथित प्रक्रिया का यथाशक्य अनुपालन करेगी, और
उस धारा में महाधिवक्ता के प्रति निर्देशों का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वे भारत के
महान्यायवादी के प्रति निर्देश हैं ।
(4)
इस धारा के अधीन किन्हीं कार्यवाहियों के निपटारे में भारतीय
विधिज्ञ परिषद् को अनुशासन समिति कोई ऐसा आदेश दे सकेगी, जो
किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति धारा 35 की
उपधारा (3) के अधीन दे सकती है और जहां [भारतीय विधिज्ञ
परिषद् की अनुशासन समिति के पास] जांच के लिए किन्हीं कार्यवाहियों को वापस लिया
गया है, वहां सम्बद्ध राज्य विधिज्ञ परिषद् ऐसे आदेश को
प्रभावी करेगी ।
[36क. अनुशासन समितियों के गठन में परिवर्तन-जब कभी धारा 35 या धारा 36 के अधीन की किसी कार्यवाही की बाबत राज्य
विधिज्ञ परिषद् की किसी अनुशासन समिति या भारतीय विधिज्ञ परिषद् की किसी अनुशासन
समिति की अधिकारिता समाप्त हो जाती है और कोई अन्य ऐसी समिति जिसे अधिकारिता
प्राप्त है और जो अधिकारिता का प्रयोग करती है और उसकी उत्तरवर्ती बनती है तब,
यथास्थिति, इस प्रकार उत्तरवर्ती बनने वाली
राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति, या भारतीय विधिज्ञ
परिषद् की अनुशासन समिति, कार्यवाही उसी प्रक्रम से जारी रख
सकेगी जिस प्रक्रम पर उसकी पूर्ववर्ती समिति ने छोड़ी थी ।
36ख. अनुशासनिक कार्यवाहियों का निपटारा-(1)
राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति ऐसी शिकायत का जो उसे धारा 35
के अधीन प्राप्त हुई हो शीघ्रता से निपटारा करेगी और प्रत्येक मामले
में कार्यवाहियां, यथास्थिति, शिकायत
की प्राप्ति की तारीख से या राज्य विधिज्ञ परिषद् की प्रेरणा पर कार्यवाही के
प्रारम्भ होने की तारीख से एक वर्ष की अवधि के भीतर पूरी की जाएगी और ऐसा न किए
जाने पर ऐसी कार्यवाहियां भारतीय विधिज्ञ परिषद् को अन्तरित हो जाएंगी, जो उनका इस प्रकार निपटारा कर सकेगी मानो वह धारा 36 की उपधारा (2) के अधीन जांच के लिए वापस ली गई
कार्यवाही हो ।
(2)
उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी,
जहां अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1973 (1973 का
60) के प्रारम्भ पर, किसी अधिवक्ता के
विरुद्ध किसी अनुशासनिक मामले की बाबत कोई कार्यवाही राज्य विधिज्ञ परिषद् की
अनुशासन समिति के समक्ष लंबित हो वहां राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति उसका
निपटारा ऐसे प्रारम्भ की तारीख से छह मास की अवधि के भीतर या, यथास्थिति, शिकायत की प्राप्ति की तारीख से अथवा
राज्य विधिज्ञ परिषद् की प्रेरणा पर कार्यवाही आरम्भ की जाने की तारीख में से,
जो भी पश्चात्वर्ती हो, उससे एक वर्ष की अवधि
के भीतर करेगी, और ऐसा न किए जाने पर कार्यवाही उपधारा (1)
के अधीन निपटारे के लिए भारतीय विधिज्ञ परिषद् को अन्तरित हो जाएगी
।]
37. भारतीय विधिज्ञ परिषद् को अपील-(1)
किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति की [धारा 35 के अधीन] किए गए आदेश [या राज्य के महाधिवक्ता] के आदेश से व्यथित कोई
व्यक्ति, आदेश की संसूचना की तारीख से साठ दिन के भीतर,
भारतीय विधिज्ञ परिषद् को अपील कर सकेगा ।
(2)
प्रत्येक ऐसी अपील की सुनवाई भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन
समिति द्वारा की जाएगी और वह समिति उस पर ऐसा आदेश [जिसके अन्तर्गत राज्य विधिज्ञ
परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा अधिनिर्णीत दण्ड को परिवर्तित करने का आदेश भी है]
पारित कर सकेगी, जैसा वह ठीक समझे:
1[परन्तु राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति का कोई भी आदेश, व्यथित व्यक्ति को सुनवाई का उचित अवसर दिए बिना, भारतीय
विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा इस प्रकार परिवर्तित नहीं किया जाएगा
जिससे कि उस व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े ।]
38. उच्चतम न्यायालय को अपील-भारतीय विधिज्ञ परिषद् की
अनुशासन समिति द्वारा धारा 36 या धारा 37 के अधीन [या, यथास्थिति,
भारत के महान्यायवादी या सम्बद्ध राज्य के महाधिवक्ता] द्वारा किए
गए आदेश से व्यथित कोई व्यक्ति, उस तारीख से साठ दिन के भीतर,
जिसको उसे वह आदेश संसूचित किया जाता है, उच्चतम
न्यायालय को अपील कर सकेगा और उच्चतम न्यायालय उस पर ऐसा आदेश 2[(जिसके अन्तर्गत भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा अधिनिर्णीत
दण्ड में परिवर्तन करने का आदेश भी है)] पारित कर सकेगा, जैसा
वह ठीक समझे :
2[परन्तु भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति का कोई भी आदेश, व्यथित व्यक्ति को सुनवाई का उचित अवसर दिए बिना उच्चतम न्यायालय द्वारा
इस प्रकार परिवर्तित नहीं किया जाएगा जिससे कि उस व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े
।]
[39. परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 5 और धारा 12 का लागू होना-परिसीमा अधिनियम,
1963 (1963 का 36) की धारा 5 और धारा 12 के उपबन्ध यावत्शक्य धारा 37 और धारा 38 के अधीन की अपीलों को लागू होंगे ।]
40. आदेश का रोका जाना- [(1)] धारा 37 या धारा 38 के अधीन की गई कोई अपील उस आदेश के,
जिसके विरुद्ध अपील की गई है रोके जाने के रूप में प्रवर्तित नहीं
होगी किन्तु, यथास्थिति, भारतीय
विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति या उच्चतम न्यायालय, पर्याप्त
हेतुक होने पर ऐसे निबन्धनों और शर्तों पर, जो वह ठीक समझे,
उस आदेश को प्रभावी होने से रोके जाने का निदेश दे सकेगा ।
[(2)
जहां धारा 37 या 38 के
अधीन उस आदेश से अपील करने के लिए अनुज्ञात समय की समाप्ति के पूर्व आदेश को रोकने
के लिए आवेदन किया जाता है वहां, यथास्थिति, राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति, या भारतीय
विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति, पर्याप्त हेतुक होने पर,
ऐसे निबन्धनों और शर्तों पर, जो वह ठीक समझे,
उस आदेश को प्रभावी होने से रोकने के लिए निदेश दे सकेगी ।]
41. अधिवक्ता-नामावली में परिवर्तन-(1) जहां इस अध्याय के
अधीन किसी अधिवक्ता को धिग्दण्ड देने या उसे निलंबित करने का कोई आदेश दिया जाता
है, वहां उस दण्ड का अभिलेख-
(क) ऐसे अधिवक्ता की दशा में, जिसका नाम किसी राज्य
नामावली में दर्ज है, उस नामावली में;
उसके
नाम के सामने दर्ज किया जाएगा; और जहां किसी अधिवक्ता
को विधि-व्यवसाय से हटाने का आदेश दिया जाता है वहां उसका नाम राज्य नामावली में
से काट दिया जाएगा ।
(3)
जहां किसी अधिवक्ता को विधि-व्यवसाय करने से निलंबित किया जाता है
या हटा दिया जाता है वहां, उसके नामांकन की बाबत धारा 22
के अधीन उससे अनुदत्त प्रमाणपत्र वापस ले लिया जाएगा ।
42. अनुशासन समिति की शक्तियां-(1) विधिज्ञ परिषद् की
अनुशासन समिति को निम्नलिखित बातों के सम्बन्ध में वही शक्तियां होंगी, जो सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5)
के अधीन, सिविल न्यायालय में निहित हैं,
अर्थात्: -
(क) किसी व्यक्ति को समन करना तथा उसे हाजिर कराना और शपथ पर उसकी परीक्षा
करना;
(ख) किन्हीं दस्तावेजों को प्रकट करने और उन्हें पेश करने की अपेक्षा करना;
(ग) शपथपत्रों पर साक्ष्य लेना;
(घ) किसी न्यायालय या कार्यालय से किसी लोक-अभिलेख की या उसकी प्रतिलिपियों
की अपेक्षा करना;
(ङ) साक्षियों या दस्तावेजों की परीक्षा के लिए कमीशन निकालना;
(च) कोई अन्य बात, जो विहित की जाए:
परन्तु
किसी भी ऐसी अनुशासन समिति को, -
(क) किसी न्यायालय के पीठासीन अधिकारी को, उस उच्च
न्यायालय की पूर्व मंजूरी के बिना जिसके अधीनस्थ ऐसा न्यायालय है;
(ख) किसी राजस्व न्यायालय के किसी अधिकारी को राज्य सरकार की पूर्व मंजूरी
के बिना, हाजिर कराने का अधिकार नहीं होगा ।
(2)
विधिज्ञ परिषद् की किसी अनुशासन समिति के समक्ष की सभी कार्यवाहियां
भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की
धारा 193 तथा धारा 228 के अर्थ में
न्यायिक कार्यवाहियां समझी जाएंगी और प्रत्येक ऐसी अनुशासन समिति कोड आफ क्रिमिनल
प्रोसीजर, 1898 (1898 का 5) की धारा 480,
धारा 482 और धारा 485 के
प्रयोजनों के लिए सिविल न्यायालय समझी जाएंगी ।
(3)
उपधारा (1) द्वारा प्रदत्त शक्तियों में
से किसी का प्रयोग करने के प्रयोजनों के लिए, अनुशासन समिति
उन राज्यक्षेत्रों में के किसी सिविल न्यायालय को जिन पर इस अधिनियम का विस्तार है,
ऐसे साक्षी का हाजिरी के लिए या ऐसे दस्तावेज को पेश करने के लिए जो
समिति द्वारा अपेक्षित है, कोई समन या अन्य आदेशिका भेज
सकेगी, या ऐसा कमीशन भेज सकेगी जिसे समिति निकालना चाहती है
और ऐसा सिविल न्यायालय, यथास्थिति, उस
आदेशिका की तामील करवाएगा या कमीशन निकलवाएगा और ऐसी किसी आदेशिका को इस प्रकार
प्रवर्तित कर सकेगा मानो वह उसके समक्ष हाजिरी के लिए या पेश किए जाने के लिए कोई
आदेशिक हो ।
[(4)
अनुशासन समिति के समक्ष किसी मामले की सुनवाई के लिए नियत की गई
तारीख को उस समिति के अध्यक्ष या किसी सदस्य के अनुपस्थित होने पर भी, अनुशासन समिति, यदि ठीक समझे तो, इस प्रकार नियत तारीख को कार्यवाहियां कर सकेगी या उन्हें जारी रख सकेगी
और ऐसी कोई कार्यवाही और ऐसी किन्हीं कार्यवाहियों में अनुशासन समिति द्वारा किया
गया कोई भी आदेश केवल इसी कारण अविधिमान्य नहीं होगा कि उस तरीख को उसका अध्यक्ष
या सदस्य अनुपस्थित था:
परन्तु
किसी कार्यवाही में धारा 35 की उपधारा (3) में निर्दिष्ट प्रकृति का कोई अन्तिम आदेश तब तक नहीं किया जाएगा जब तक
अनुशासन समिति का अध्यक्ष और अन्य सदस्य उपस्थित न हों ।
(5)
जहां किसी कार्यवाही में, अनुशासन समिति के
अध्यक्ष और सदस्यों की राय के अनुसार या तो उनके मध्य बहुसंख्यक राय न होने के
कारण या अन्यथा धारा 35 की उपधारा (3) में
निर्दिष्ट प्रकृति का कोई अंतिम आदेश नहीं किया जा सकता हो, वहां
मामला, उस पर उनकी राय सहित, सम्बद्ध
विधिज्ञ परिषद् के अध्यक्ष के समक्ष या यदि विधिज्ञ परिषद् का अध्यक्ष अनुशासन
समिति के अध्यक्ष या सदस्य के रूप में कार्य कर रहा है तो विधिज्ञ परिषद् के
उपाध्यक्ष के समक्ष रखा जाएगा, और विधिज्ञ परिषद् का,
यथास्थिति, उक्त अध्यक्ष या उपाध्यक्ष ऐसी
सुनवाई के पश्चात्, जैसे वह ठीक समझे, अपनी
राय देगा और अनुशासन समिति का अन्तिम आदेश ऐसी राय के अनुरूप होगा ।]
[42क. भारतीय विधिज्ञ परिषद् और अन्य समितियों की शक्तियां-धारा 42 के उपबन्ध, भारतीय
विधिज्ञ परिषद्, किसी विधिज्ञ परिषद् की नामांकन समिति,
निर्वाचन समिति, विधिक सहायता समिति, या किसी अन्य समिति के सम्बन्ध में यथाशक्य वैसे ही लागू होंगे, जैसे वे किसी विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति के सम्बन्ध में लागू होते
हैं ।]
43. अनुशासन समिति के समक्ष कार्यवाहियों का खर्चा-विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन
समिति, अपने समक्ष की किन्हीं कार्यवाहियों के खर्चे के बारे
में ऐसा आदेश कर सकेगी, जैसा वह ठीक समझे, और कोई आदेश इस प्रकार निष्पादित किया जा सकेगा मानो वह, -
(क) भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति के आदेश की दशा में, उच्चतम न्यायालय का आदेश हो;
(ख) किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति के आदेश की दशा में,
उच्च न्यायालय का आदेश हो ।
44. अनुशासन समिति द्वारा आदेशों का पुनर्विलोकन-विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति इस अध्याय के अधीन अपने द्वारा पारित
किसी ओदश का, [उस आदेश की तारीख से साठ दिन के भीतर,]
स्वप्रेरणा से या अन्यथा, पुनर्विलोकन कर
सकेगी:
परन्तु
किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति का ऐसा कोई पुनर्विलोकन आदेश तब तक
प्रभावी नहीं होगा जब तक वह भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा अनुमोदित न कर दिया गया
हो ।
अध्याय 6
प्रकीर्ण
45. न्यायालयों में तथा अन्य प्राधिकरणों के समक्ष अवैध रूप से विधि-व्यवसाय करने वाले व्यक्तियों के लिए शास्ति-कोई व्यक्ति, किसी ऐसे न्यायालय में या किसी ऐसे
प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष, जिसमें या जिसके समक्ष वह इस
अधिनियम के उपबन्धों के अधीन विधि-व्यवसाय करने का हकदार नहीं है, विधि व्यवसाय करेगा, कारावास से, जिसकी अवधि छह मास तक की हो सकेगी, दण्डनीय होगा ।
[46क. राज्य विधिज्ञ परिषद् को वित्तीय सहायता-यदि भारतीय विधिज्ञ परिषद्
का यह समाधान हो जाता है कि किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् को इस अधिनियम के अधीन अपने
कृत्यों का पालन करने के प्रयोजन के लिए निधि की आवश्यकता है,
तो वह अनुदान के रूप में या अन्यथा, उस
विधिज्ञ परिषद् को ऐसी वित्तीय सहायता दे सकेगी, जैसी वह ठीक
समझे ।]
47. पारस्परिकता-(1) जहां केन्द्रीय
सरकार द्वारा इस निमित्त राजपत्र में अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट कोई देश,
भारत के नागरिकों को विधि व्यवसाय करने से रोकता है या उस राज्य में
उनके प्रति अनुचित भेदभाव करता है, वहां से किसी देश की कोई
भी प्रजा भारत में विधि व्यवसाय करने की हकदार नहीं होगी ।
(2)
उपधारा (1) के उपबन्धों के अधीन रहते हुए,
भारतीय विधिज्ञ परिषद् ऐसी शर्तें, यदि कोई
हों, विहित कर सकेगी जिनके अधीन रहते हुए भारत के नागरिकों
से भिन्न व्यक्तियों द्वारा विधि विषय में प्राप्त विदेशी अर्हताओं को, इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में प्रवेश के प्रयोजन के लिए,
मान्यता दी जाएगी ।
48. विधिक कार्यवाहियों के विरुद्ध संरक्षण-इस अधिनियम या उसके अधीन बनाए किन्हीं नियमों के उपबंधों के अनुसरण में
सद्भावपूर्वक किए गए या किए जाने के लिए आशयित किसी कार्य के लिए कोई भी वाद या
अन्य विधिक कार्यवाही किसी विधिज्ञ परिषद् [या उसकी किसी समिति के] या विधिज्ञ
परिषद् के या उसकी किसी समिति के सदस्य के विरुद्ध नहीं होगी ।
[48क. पुनरीक्षण की शक्ति-(1) भारतीय विधिज्ञ परिषद्
किसी भी समय, इस अधिनियम के अधीन किसी ऐसी कार्यवाही का
अभिलेख मंगा सकेगी जो किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् या उसकी किसी समिति द्वारा निपटाई
गई है, और जिसके विरुद्ध कोई अपील नहीं हो सकती है । ऐसा
भारतीय विधिज्ञ परिषद् ऐसे निपटारे की वैधता या औचित्य के बारे में अपना समाधान
करने के प्रयोजन के लिए करेगी, और उसके सम्बन्ध में ऐसे आदेश
पारित कर सकेगी जो वह ठीक समझे ।
(2)
इस धारा के अधीन ऐसा कोई आदेश, जो किसी
व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, उसे सुनवाई का उचित
अवसर दिए बिना पारित नहीं किया जाएगा ।
[48कक. पुनर्विलोकन-
भारतीय विधिज्ञ परिषद् या उसकी अनुशासन समिति से भिन्न उसकी
समितियों में से कोई भी समिति इस अधिनियम के अधीन अपने द्वारा पारित किसी आदेश का,
उस आदेश की तारीख से साठ दिन के भीतर, स्वप्रेरणा
से या अन्यथा पुनर्विलोकन कर सकेगी ।]
48ख. निदेश देने की शक्ति-(1)
किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् या उसकी किसी समिति के कृत्यों के उचित
और दक्षतापूर्ण निर्वहन के लिए भारतीय विधिज्ञ परिषद् अपने साधारण अधीक्षण और
नियन्त्रण की शक्तियों का प्रयोग करते हुए राज्य विधिज्ञ परिषद् या उसकी किसी
समिति को ऐसे निदेश दे सकेगी जो उसे आवश्यक प्रतीत हों और राज्य विधिज्ञ परिषद् या
समिति ऐसे निदेशों का अनुपालन करेगी ।
(2)
जहां कोई राज्य विधिज्ञ परिषद् किसी भी कारण से अपने कृत्यों का
पालन करने में असमर्थ है, वहां भारतीय विधिज्ञ परिषद्
पूर्वगामी शक्ति की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, उसके
पदेन सदस्य को ऐसे निदेश दे सकेगी, जो उसे आवश्यक प्रतीत हों
और ऐसे निदेश उस राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा बनाए गए नियमों में किसी बात के होते
हुए भी प्रभावी होंगे ।]
49. भारतीय विधिज्ञ परिषद् की नियम बनाने की साधारण शक्ति-
[(1)] भारतीय विधिज्ञ परिषद् इस अधिनियम के अधीन अपने कृत्यों के
निर्वहन के लिए नियम बना सकेगी और विशिष्टतया ऐसे नियम निम्नलिखित के बारे में
विहित कर सकेंगे, अर्थात्: -
[(क) वे शर्तें, जिनके अधीन रहते हुए कोई अधिवक्ता
राज्य विधिज्ञ परिषद् के किसी निर्वाचन में मतदान करने के लिए हकदार हो सकेगा
जिनके अन्तर्गत मतदाताओं की अर्हताएं या निरर्हताएं भी हैं और वह रीति, जिससे मतदाताओं की निर्वाचक नामावली राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा तैयार और
पुनरीक्षित की जा सकेगी;
(कख) किसी विधिज्ञ परिषद् की सदस्यता के लिए अर्हताएं और ऐसी सदस्यता के
लिए निरर्हताएं;
(कग) वह समय, जिसके भीतर और वह रीति जिससे धारा 3
की उपधारा (2) के परन्तुक को प्रभावी किया जा
सकेगा;
(कघ) वह रीति जिससे किसी अधिवक्ता के नाम को एक से अधिक राज्यों की नामावली
में दर्ज किए जाने से रोका जा सकेगा;
(कङ) वह रीति जिससे किन्हीं अधिवक्ताओं की परस्पर ज्येष्ठता अवधारित की जा
सकेगी;
[(कच) किसी मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय में, विधि
की उपाधि के पाठ्यक्रम में प्रवेश पाने के लिए अपेक्षित न्यूनतम अर्हताएं;]
(कछ) अधिवक्ताओं के रूप में नामांकित किए जाने के लिए हकदार व्यक्तियों का
वर्ग या प्रवर्ग;
(कज) वे शर्तें जिनके अधीन रहते हुए किसी अधिवक्ता को विधि व्यवसाय करने का
अधिकार होगा और वे परिस्थितियां जिनमें किसी व्यक्ति के बारे में यह समझा जाएगा कि
वह किसी न्यायालय में विधि व्यवसाय करता है;]
(ख) वह प्ररूप जिसमें एक राज्य की नामावली से दूसरे में किसी अधिवक्ता के
नाम के अन्तरण के लिए आवेदन किया जाएगा;
(ग) अधिवक्ताओं द्वारा अनुपालन किए जाने वाले वृत्तिक आचरण और शिष्टाचार के
मानक;
(घ) भारत में विश्वविद्यालयों द्वारा अनुपालन किया जाने वाला विधि शिक्षा
का स्तर और उस प्रयोजन के लिए विश्वविद्यालयों का निरीक्षण;
(ङ) भारत के नागरिकों से भिन्न व्यक्तियों द्वारा विधि विषय में प्राप्त
ऐसी विदेशी अर्हताएं, जिन्हें इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता
के रूप में प्रवेश पाने के प्रयोजन के लिए मान्यता दी जाएगी;
(च) किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा और अपनी अनुशासन
समिति द्वारा अनुसरित की जाने वाली प्रक्रिया;
(छ) विधि व्यवसाय के मामले में वे निर्बन्धन जिनके अधीन वरिष्ठ अधिवक्ता
होंगे;
[(छछ) जलवायु को ध्यान में रखते हुए, किसी न्यायालय या
अधिकरण के समक्ष हाजिर होने वाले अधिवक्ताओं द्वारा, पहली
जाने वाली पोशाकें या परिधान; ट
(ज) इस अधिनियम के अधीन किसी मामले की बाबत उद्गृहीत की जा सकने वाली फीस;
[(झ) राज्य विधिज्ञ परिषदों के मार्गदर्शन के लिए साधारण सिद्धान्त और वह
रीति जिससे भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा जारी किए गए निदेशों या दिए गए आदेशों को
प्रवर्तित किया जा सकेगा;
(ञ) कोई अन्य बात, जो विहित की जाए:]
3[परन्तु खण्ड (ग) या खण्ड (छछ) के प्रति निर्देश से बनाए गए कोई भी
नियम तब तक प्रभावी नहीं होंगे जब तक वे भारत के मुख्य न्यायाधिपति द्वारा
अनुमोदित न कर दिए गए हों:]
[परन्तु यह और किट खंड (ङ) के प्रति निर्देश से बनाए गए कोई भी नियम तब तक
प्रभावी नहीं होंगे जब तक वे केन्द्रीय सरकार द्वारा अनुमोदित न कर दिए गए हों ।]
3[(2)
उपधारा (1) के प्रथम परन्तुक में किसी बात के
होते हुए भी, उक्त उपधारा के खण्ड (ग) या खण्ड (छछ) के प्रति
निर्देश से बनाए गए कोई नियम और जो अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1973 (1973 का 60) के प्रारम्भ के ठीक पूर्व प्रवृत्त थे,
तब तक प्रभावी बने रहेंगे, जब तक वे इस
अधिनियम के उपबन्धों के अनुसार या परिवर्तित, निरसित या
संशोधित नहीं कर दिए जाते ।]
[49क. केन्द्रीय सरकार की नियम बनाने की शक्ति-(1)
केन्द्रीय सरकार इस अधिनियम के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के
लिए नियम, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, बना सकेगी और इनके अन्तर्गत किसी ऐसे विषय के बारे में नियम भी होंगे
जिसके लिए भारतीय विधिज्ञ परिषद् या किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् को नियम बनाने की
शक्ति है ।
(2)
विशिष्टतया और पूर्वगामी शक्ति की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले
बिना ऐसे नियम निम्नलिखित के लिए उपबंध कर सकेंगे-
(क) किसी विधिज्ञ परिषद् की सदस्यता के लिए अर्हताएं और ऐसी सदस्यता के लिए
निरर्हताएं;
(ख) वह रीति जिससे भारतीय विधिज्ञ परिषद्, राज्य
विधिज्ञ परिषदों का पर्यवेक्षण कर सकेगी और उन पर नियंत्रण रख सकेगी और वह रीति
जिससे, भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा जारी किए गए निदेशों या
किए गए आदेशों को प्रवर्तित किया जा सकेगा;
(ग) इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में नामांकन के लिए हकदार
व्यक्तियों का वर्ग या प्रवर्ग;
(घ) ऐसे व्यक्तियों का प्रवर्ग जिन्हें धारा 24 की
उपधारा (1) के खंड (घ) के अधीन विहित प्रशिक्षण पाठ्यक्रम को
पूरा करने और परीक्षा उत्तीर्ण करने से छूट दी जा सकेगी;
(ङ) वह रीति जिससे अधिवक्ताओं की पारस्परिक ज्येष्ठता अवधारित की जा सकेगी;
(च) किसी विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा मामलों की सनुवाई में
अनुसरित की जाने वाली प्रक्रिया और भारतीय विधिज्ञ परिषद् की अनुशासन समिति द्वारा
अपीलों की सुनवाई में अनुसरित की जाने वाली प्रक्रिया;
(छ) कोई अन्य बात जो विहित की जाए ।
(3)
इस धारा के अधीन नियम या तो सम्पूर्ण भारत के लिए या सभी विधिज्ञ
परिषदों या उनमें से किसी के लिए बनाए जा सकेंगे ।
(4)
यदि किसी विधिज्ञ परिषद् द्वारा बनाए गए किसी नियम का कोई उपबन्ध इस
धारा के अधीन केन्द्रीय सरकार द्वारा बनाए गए किसी नियम के किसी उपबन्ध के विरुद्ध
है तो इस धारा के अधीन बनाया गया नियम, चाहे वह विधिज्ञ
परिषद् द्वारा बनाए गए नियम से पहले बनाया गया हो या उसके पश्चात् बनाया गया हो,
अभिभावी होगा अैर विधिज्ञ परिषद् द्वारा बनाया गया नियम विरुद्धता
की सीमा तक शून्य होगा ।
[(5)
इस धारा के अधीन बनाया गया प्रत्येक नियम, बनाए
जाने के पश्चात् यथाशीघ्र, संसद् के प्रत्येक सदन के समक्ष,
जब वह सत्र में हो, कुल तीस दिन की अवधि के
लिए रखा जाएगा । यह अवधि एक सत्र में अथवा दो या अधिक आनुक्रमिक सत्रों में पूरी
हो सकेगी । यदि सत्र के या पूर्वोक्त आनुक्रमिक सत्रों ठीक बाद के सत्र अवसान के
पूर्व दोनों सदन उस नियम में कोई परिवर्तन करने के लिए सहमत हो जाएं तो पश्चात् वह
ऐसे परिवर्तित रूप में ही प्रभावी होगा । यदि उक्त अवसान के पूर्व दोनों सदन सहमत
हो जाएं कि वह नियम बनाया जाना चाहिए, तो तत्पश्चात् वह
निष्प्रभाव हो जाएगा । किन्तु नियम के ऐसे परिवर्तित या निष्प्रभाव होने से उसके
अधीन पहले की गई किसी बात की विधिमान्यता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा ।]
50. कुछ अधिनियमितियों का निरसन-(1) उस तारीख को जिसको इस
अधिनियम के अधीन किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् का गठन किया जाता है, भारतीय विधिज्ञ परिषद् अधिनियम, 1926 (1926 का 38)
की धारा 3 से धारा 7 तक
(दोनों सहित), धारा 9 की उपधारा (1),
(2) और (3), धारा 15 और
धारा 20 के उपबन्ध उस राज्यक्षेत्र में निरसित हो जाएंगे
जिसके लिए राज्य विधिज्ञ परिषद् गठित की गई है ।
(2)
उस तारीख को जिसको अध्याय 3 प्रवृत्त होता है,
निम्नलिखित निरसित हो जाएंगे, अर्थात्: -
(क) विधि व्यवसायी अधिनियम, 1879 (1879 का 18)
की धारा 6, धारा 7, धारा
18, और उस अधिनियम की धारा 8, धारा 9,
धारा 16, धारा 17, धारा 19
और धारा 41 का उतना भाग जितना विधि
व्यवसायियों के प्रवेश और नामांकन से सम्बन्धित है;
(ख) बाम्बे प्लीडर्स ऐक्ट, 1920 (1920 का मुम्बई
अधिनियम 17) की धारा 3, धारा 4 और धारा 6;
(ग) भारतीय विधिज्ञ परिषद् अधिनियम, 1926 (1926 का 38)
की धारा 8 का उतना भाग जितना विधि व्यवसायियों
के प्रवेश और नामांकन से सम्बन्धित है;
(घ) किसी उच्च न्यायालय के लेटर्स पेटेन्ट के और किसी अन्य विधि के उपबन्ध,
जहां तक वे विधि व्यवसायियों के प्रवेश और नामांकन से सम्बन्धित हैं
।
(3)
उस तारीख को जिसको अध्याय 4 प्रवृत्त होता है,
निम्नलिखित निरसित हो जाएंगे, अर्थात्: -
(क) विधि व्यवसायी अधिनियम, 1879 (1879 का 18)
की धारा 4, धारा 5, धारा
10 और धारा 20 और उस अधिनियम की धारा 8,
धारा 9, धारा 19 और धारा
41 का उतना भाग जितना विधि व्यवसायियों को किसी न्यायालय में
या किसी प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि व्यवसाय करने का अधिकार प्रदत्ता करता
है;
(ख) बाम्बे प्लीडर्स ऐक्ट, 1920 (1920 का मुम्बई
अधिनियम 17) की धारा 5, धारा 7,
धारा 8 और धारा 9;
(ग) भारतीय विधिज्ञ परिषद् अधिनियम, 1926 (1926 का 38)
की धारा 14 और उस अधिनियम की धारा 8 और धारा 15 का उतना भाग जितना विधि व्यवसायियों को
किसी न्यायालय में या किसी प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि व्यवसाय करने का
अधिकार प्रदत्त करता है;
(घ) सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स (प्रैक्टिस इन हाई कोर्ट्स) ऐक्ट, 1951
(1951 का 18);
(ङ) किसी उच्च न्यायालय के लेटर्स पेटेन्ट के और विधि व्यवसायियों को किसी
न्यायालय में या किसी प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि व्यवसाय करने का अधिकार
प्रदत्त करने वाली किसी अन्य विधि के उपबंध ।
(4)
उस तारीख को जिसको अध्याय 5 प्रवृत्त होता है,
निम्नलिखित निरसित हो जाएंगे, अर्थात्: -
(क) विधि व्यवसायी अधिनियम, 1879 (1879 का 18)
की धारा 12 से धारा 15 तक
(दोनों सहित) धारा 21 से धारा 24 तक
(दोनों सहित) और धारा 39 और धारा 40 तथा
उस अधिनियम की धारा 16, धारा 17 और
धारा 41 का उतना भाग जितना विधि व्यवसायियों के निलंबित किए
जाने, हटाए जाने या पदच्युत किए जाने से सम्बन्धित है;
(ख) बाम्बे प्लीडर्स ऐक्ट, 1920 (1920 का मुम्बई
अधिनियम 17) की धारा 24 से धारा 27
तक (दोनों सहित);
(ग) भारतीय विधिज्ञ परिषद् अधिनियम, 1926 (1926 का 38)
की धारा 10 से धारा 13 तक
(दोनों सहित);
(घ) किसी उच्च न्यायालय के लेटर्स पेटेन्ट के और किसी अन्य विधि के उपबन्ध
जहां तक वे विधि व्यवसायियों के निलम्बित किए जाने, हटाए
जाने या पदच्युत किए जाने से संबंधित हैं ।
(5)
जब यह सम्पूर्ण अधिनियम प्रवृत्त हो जाता है तब, -
(क) इस धारा में निर्दिष्ट ऐसे अधिनियमों के शेष उपबन्ध [विधि व्यवसायी
अधिनियम, 1879 (1879 का 18) की धारा 1,
धारा 3, और धारा 36 के
सिवायट, जो इस धारा के पूर्वगामी उपबन्धों में से किसी आधार
पर निरसित नहीं हुए हैं, निरसित हो जाएंगे;
(ख) अनुसूची में विनिर्दिष्ट अधिनियमितियां, उनमें
वर्णित सीमा तक निरसित हो जाएंगी ।
51. अर्थान्वयन के नियम-नियत दिन से ही किसी अधिनियमिति में किसी उच्च न्यायालय द्वारा नामांकित
किसी अधिवक्ता के प्रति किन्हीं भी शब्दों में निर्देशों का यह अर्थ लगाया जाएगा
कि वे इस अधिनियम के अधीन नामांकित अधिवक्ता के प्रति निर्देश हैं ।
52. व्यावृत्ति-इस अधिनियम की कोई भी
बात संविधान के अनुच्छेद 145 के अधीन निम्नलिखित के लिए
उच्चतम न्यायालय की नियम बनाने की शक्ति पर प्रभाव डालने नहीं समझी जाएगी, अर्थात्: -
(क) वे शर्तें अधिकथित करना, जिनके अधीन रहते हुए,
वरिष्ठ अधिवक्ता उस न्यायालय में विधि व्यवसाय करने का हकदार होगा;
(ख) ऐसे व्यक्तियों को निश्चित करना, जो उस न्यायालय
में [कार्य या अभिवचन करने] के हकदार होंगे ।
अध्याय 7
अस्थायी और संक्रमणकालीन उपबन्ध
53. प्रथम राज्य विधिज्ञ परिषद् के लिए निर्वाचन-इस अधिनियम में किसी
बात के होते हुए भी, इस अधिनियम के अधीन प्रथम बार गठित किसी
राज्य विधिज्ञ परिषद् के निर्वाचित सदस्य ऐसे अधिवक्ताओं, वकीलों,
प्लीडरों और अटर्नियों द्वारा, अपने में से,
निर्वाचित किए जाएंगे जो निर्वाचन की तारीख को उच्च न्यायालय में
विधि व्यवसाय करने के लिए साधिकार हकदार हैं, और साधारणतया
ऐसे राज्यक्षेत्र के भीतर विधि व्यवसाय कर रहें हों जिसके लिए विधिज्ञ परिषद् का
गठन किया जाना है ।
स्पष्टीकरण-जहां उस राज्यक्षेत्र में जिसके लिए विधिज्ञ परिषद् का गठन किया जाना है,
कोई संघ राज्यक्षेत्र सम्मिलित है, वहां उच्च
न्यायालय" पद के अन्तर्गत उस संघ राज्यक्षेत्र के न्यायिक आयुक्त का न्यायालय
सम्मिलित होगा ।
54. प्रथम राज्य विधिज्ञ परिषदों के सदस्यों की पदावधि-इस अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी, प्रथम बार
गठित । । । राज्य विधिज्ञ परिषद् के । । । निर्वाचित सदस्यों की पदावधि परिषद् के
प्रथम अधिवेशन की तारीख से दो वर्ष होगी:
[परन्तु ऐसे सदस्य तब तक पद धारण किए रहेंगे जब तक इस अधिनियम के उपबंधों
के अनुसार राज्य विधिज्ञ परिषद् का पुनर्गठन नहीं हो जाता ।]
55. विद्यमान कुछ विधि व्यवसायियों के अधिकारों का प्रभावित न होना-इस अधिनियम में किसी बात के
होते हुए भी, -
(क) प्रत्येक प्लीडर या वकील, जो उस तारीख से जिसको
अध्याय 4 प्रवृत्त होता है (जिसे इस धारा में इसके पश्चात्
उक्त तारीख कहा गया है) ठीक पूर्व उस हैसियत में विधि व्यवसायी अधिनियम,
1879 (1879 का 18), बाम्बे प्लीडर्स ऐक्ट,
1920 (1920 का मुम्बई अधिनियम 17) या किसी
अन्य विधि के उपबन्धों के आधार पर विधि व्यवसाय कर रहा है और जो इस अधिनियम के
अधीन अधिवक्ता के रूप में नामांकित किए जाने के लिए चयन नहीं करता है या उसके लिए
अर्हित नहीं है;
[(ग) प्रत्येक मुख्तार जो उक्त तारीख के ठीक पूर्व, विधि
व्यवसायी अधिनियम, 1879 (1879 का 18) या
किसी अन्य विधि के उपबन्धों के आधार पर, उस हैसियत में,
विधि व्यवसाय कर रहा है, और जो इस अधिनियम के
अधीन अधिवक्ता के रूप में नामांकित किए जाने के लिए चयन नहीं करता है या उसके लिए
अर्हित नहीं है;
(घ) प्रत्येक राजस्व अभिकर्ता जो उक्त तारीख के ठीक पूर्व, विधि व्यवसायी अधिनियम, 1879 (1879 का 17) या किसी अन्य विधि के उपबन्धों के आधार पर उस हैसियत में, विधि व्यवसाय कर रहा है,]
इस
अधिनियम द्वारा, विधि व्यवसायी अधिनियम, 1879
(1879 का 18), बाम्बे प्लीडर्स ऐक्ट,
1920 (1920 का मुम्बई अधिनियम 17) या अन्य
विधि के सुसंगत उपबन्धों के निरसन के होते हुए भी, किसी
न्यायालय में या राजस्व कार्यालय में या किसी प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि
व्यवसाय करने के सम्बन्ध में उन्हीं अधिकारों का उपभोग करता रहेगा और उसी
प्राधिकरण की अनुशासनिक अधिकारिता के अधीन बना रहेगा, जिसका
उक्त तारीख के ठीक पूर्व, यथास्थिति, उसने
उपभोग किया था या जिसके अधीन वह था और तदनुसार पूर्वोक्त अधिनियमों या विधि के
सुसंगत उपबंध, ऐसे व्यक्तियों के सम्बन्ध में वैसे ही
प्रभावी होंगे, मानो उनका निरसन ही न हुआ हो ।
56. विद्यमान विधिज्ञ परिषदों का विघटन-(1)
इस अधिनियम के अधीन दिल्ली विधिज्ञ परिषद् से भिन्न किसी राज्य
विधिज्ञ परिषद् के (जिसे इसमें इसके पश्चात् नई विधिज्ञ परिषद् कहा गया है) गठन पर,
-
(क) तत्स्थानी विधिज्ञ परिषद् में निहित सभी सम्पत्तियां और आस्तियां नई
विधिज्ञ परिषद् में निहित होंगी;
(ख) तत्स्थानी विधिज्ञ परिषद् के सभी अधिकार, दायित्व
और बाध्यताएं चाहे वे किसी संविदा से उद्भूत हों या अन्यथा नई विधिज्ञ परिषद् के
क्रमशः अधिकार, दायित्व और बाध्यताएं होंगी;
(ग) किसी आनुशासनिक मामले के बारे में या अन्यथा तत्स्थानी विधिज्ञ परिषद्
के समक्ष लम्बित सभी कार्यवाहियां नई विधिज्ञ परिषद् को अन्तरित हो जाएंगी ।
(2)
इस धारा में दिल्ली विधिज्ञ परिषद् से भिन्न किसी राज्य विधिज्ञ
परिषद् के सम्बन्ध में तत्स्थानी विधिज्ञ परिषद्" से उस राज्यक्षेत्र के उच्च
न्यायालय के लिए विधिज्ञ परिषद् अभिप्रेत है जिसके लिए इस अधिनियम के अधीन राज्य
विधिज्ञ परिषद् का गठन किया गया है ।
57. विधिज्ञ परिषद् का गठन होने तक नियम बनाने की शक्ति-जब तक इस अधिनियम के अधीन
किसी विधिज्ञ परिषद् का गठन नहीं कर लिया जाता है तब तक इस अधिनियम के अधीन उस
विधिज्ञ परिषद् की नियम बनाने की शक्ति का प्रयोग, -
(क) भारतीय विधिज्ञ परिषद् की दशा में, उच्चतम
न्यायालय द्वारा;
(ख) किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् की दशा में, उच्च
न्यायालय द्वारा,
किया
जाएगा ।
[58. संक्रमणकाल के दौरान विशेष उपबन्ध-(1)
जहां इस अधिनियम के अधीन किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् का गठन नहीं
किया गया है या जहां इस प्रकार गठित कोई राज्य विधिज्ञ परिषद् किसी न्यायालय के
किसी आदेश के कारण या अन्यथा अपने कृत्यों का पालन करने में असमर्थ है, वहां उस विधिज्ञ परिषद् या उसकी किसी समिति के कृत्यों का पालन, जहां तक उनका अधिवक्ताओं के प्रवेश और नामांकन से सम्बन्ध है, इस अधिनियम के उपबन्धों के अनुसार, उच्च न्यायालय
द्वारा किया जाएगा ।
(2)
जब तक अध्याय 4 प्रवृत्त नहीं होता है,
तब तक राज्य विधिज्ञ परिषद् या किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् के
कृत्यों का पालन करने वाला उच्च न्यायालय, किसी व्यक्ति को,
यदि वह इस अधिनियम के अधीन नामांकित किए जाने के लिए अर्हित है तो
इस बात के होते हुए भी कि धारा 28 के अधीन कोई नियम नहीं
बनाए गए हैं, या इस प्रकार बनाए गए नियम भारतीय विधिज्ञ
परिषद् द्वारा अनुमोदित नहीं हैं, किसी राज्य नामावली में
अधिवक्ता के रूप में नामांकित कर सकेगा और इस प्रकार नामांकित प्रत्येक व्यक्ति,
जब तक वह अध्याय प्रवृत्त नहीं हो जाता, भारतीय
विधिज्ञ परिषद् अधिनियम, 1926 (1926 का 38) की धारा 14 के अधीन किसी अधिवक्ता को विधि व्यवसाय
के लिए प्रदत्त सभी अधिकारों का हकदार होगा ।
(3)
इस अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी, प्रत्येक
ऐसा व्यक्ति, जो 1 दिसम्बर,
1961 से ठीक पूर्व, भारतीय विधिज्ञ परिषद्
अधिनियम, 1926 (1926 का 38) के अधीन
किसी उच्च न्यायालय की नामावली में अधिवक्ता था या जो इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता
के रूप में नामांकित कर लिया गया है, जब तक अध्याय 4 प्रवृत्त नहीं हो जाता है तब तक उच्चतम न्यायालय द्वारा इस निमित्त बनाए
गए नियमों के अधीन रहते हुए, उच्चतम न्यायालय में विधि
व्यवसाय करने का साधिकार हकदार होगा ।
(4)
धारा 50 की उपधारा (2) द्वारा
विधि व्यवसायी अधिनियम, 1879 (1879 का 18) के या बाम्बे प्लीडर्स ऐक्ट, 1920 (1920 का मुम्बई
अधिनियम 17) के [या विधि
व्यवसायियों के प्रवेश और नामांकन से संबंधित किसी अन्य विधि के उपबंधों के निरसित
होते हुए भी, पूर्वोक्त अधिनियमों और विधि के] और उनके अधीन
बनाए गए किन्हीं नियमों के उपबंध, जहां तक वे किसी विधि
व्यवसायी को, विधि व्यवसाय करने के लिए उसे प्राधिकृत करने
वाले किसी प्रमाणपत्र [के नवीकरण से या नवीकरण के रूप
में प्रमाणपत्र जारी किए जानेट से सम्बन्धित है, तब तक
प्रभावी रहेंगे जब तक अध्याय 4 प्रवृत्त नहीं हो जाता है और
तदनुसार ऐसे विधि व्यवसायी को (जो इस अधिनियम के अधीन अधिवक्ता के रूप में
नामांकित नहीं है) जारी किए गए या नवीकृत प्रत्येक प्रमाणपत्र के बारे में,
जो या तो पूर्वोक्त दोनों अधिनियमों में से किसी अधिनियम के
[या उक्त अन्य विधि केट उपबन्धों के अधीन 1 दिसम्बर,
1961 से आरम्भ होकर उस तारीख को, जिसको अध्याय
4 प्रवृत्त होता है समाप्त होने वाली अवधि के दौरान जारी किया गया
है या नवीकृत है या जिसका ऐसे जारी किया जाना या नवीकरण तात्पर्यित है, यह समझा जाएगा कि वह वैध रूप से जारी किया गया है या नवीकृत है ।
[58क. कुछ अधिवक्ताओं के बारे में विशेष उपबन्ध-(1)
इस अधिनयम के किसी बात के होते हुए भी ऐसे सभी अधिवक्ता जो 26
जुलाई, 1948 से ठीक पूर्व इलाहाबाद के उच्च
न्यायालय में या अवध के मुख्य न्यायालय में विधि व्यवसाय करने के हकदार थे और
जिन्हें यूनाइटेड प्राविन्सेज हाई कोर्ट्स (अमलगमेशन) आर्डर, 1948 में उपबंधों के अधीन इलाहाबाद के नए उच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप
में विधि व्यवसाय करने की मान्यता प्राप्त थी किन्तु जिनके नाम, केवल उक्त उच्च न्यायालय की विधिज्ञ परिषद् को संदेय फीस के संदाय न किए
जाने के कारण उस उच्च न्यायालय की अधिवक्ता नामावली में औपचारिक रूप से दर्ज नहीं
किए गए थे और सभी ऐसे अधिवक्ता, जो उस रूप में उक्त तारीख और
26 मई, 1952 के बीच उस रूप में
नामांकित किए गए थे, धारा 17 की उपधारा
(1) के खण्ड (क) के प्रयोजनों के लिए, भारतीय
विधिज्ञ परिषद् अधिनियम, 1926 (1926 का 38) के अधीन उक्त उच्च न्यायालय की नामावली में अधिवक्ता के रूप में दर्ज किए
गए व्यक्ति समझे जाएंगे और प्रत्येक ऐसा व्यक्ति, इस निमित्त
आवेदन किए जाने पर, उत्तर प्रदेश की राज्य नामावली में
अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किया जा सकेगा ।
(2)
इस अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी, ऐसे
सभी अधिवक्ता, जो 10 अक्तूबर,
1952 के ठीक पूर्व, हैदराबाद उच्च न्यायालय
में विधि व्यवसाय करने के हकदार थे किन्तु जिनके नाम उक्त उच्च न्यायालय की
विधिज्ञ परिषद् को संदेय फीस के संदाय न किए जाने के कारण उस उच्च न्यायालय की
अधिवक्ता नामावली में औपचारिक रूप से दर्ज नहीं किए गए थे, धारा
17 की उपधारा (1) के खण्ड (क) के
प्रयोजनों के लिए, भारतीय विधिज्ञ परिषद् अधिनियम,
1926 (1926 का 38) के अधीन उक्त उच्च न्यायालय
की नामावली में अधिवक्ता के रूप में दर्ज किए गए व्यक्ति समझे जाएंगे और प्रत्येक
ऐसा व्यक्ति, इस निमित्त आवेदन किए जाने पर, आन्ध्र प्रदेश या महाराष्ट्र की राज्य नामावली में अधिवक्ता के रूप में
प्रविष्ट किया जा सकेगा ।
(3)
इस अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी, ऐसे
सभी अधिवक्ता जो 1 मई, 1960 के ठीक
पूर्व मुम्बई उच्च न्यायालय में विधि व्यवसाय करने के हकदार थे और जिन्होंने
भारतीय विधिज्ञ परिषद् अधिनियम, 1926 (1926 का 38) की धारा 8 के उपबन्धों के अधीन गुजरात उच्च
न्यायालय की अधिवक्ता नामावली में अपने नाम दर्ज
करवाने के लिए आवेदन किए थे, किन्तु जिनके नाम उक्त उपबंध के
निरसित हो जाने के कारण इस प्रकार दर्ज नहीं किए गए थे, धारा
17 की उपधारा (1) के खण्ड (क)
के प्रयोजनों के लिए, उक्त अधिनियम के अधीन
गुजरात उच्च न्यायालय की नामावली में अधिवक्ता के रूप में दर्ज किए गए व्यक्ति
समझे जाएंगे और प्रत्येक ऐसा व्यक्ति, इस निमित्त आवेदन किए
जाने पर, गुजरात की राज्य नामावली में अधिवक्ता के रूप में
प्रविष्ट किया जा सकेगा ।
(4)
इस अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी, सभी
ऐसे व्यक्ति, जो किसी राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त किसी विधि
के अधीन उस राज्यक्षेत्र के न्यायिक आयुक्त के न्यायालय की नामावली में 1 दिसम्बर, 1961 के ठीक पूर्व, अधिवक्ता
थे, धारा 17 की उपधारा (1) के खण्ड (क) के प्रयोजनों के लिए, भारतीय विधिज्ञ
परिषद् अधिनियम, 1926 (1926 का 38) के
अधीन किसी उच्च न्यायालय की नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किए गए
व्यक्ति समझे जाएंगे और प्रत्येक ऐसा व्यक्ति, इस निमित किए
गए आवेदन पर, उस संघ राज्यक्षेत्र के लिए रखी गई राज्य
नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किया जा सकेगा ।
[58कक. पांडिचेरी संघ राज्यक्षेत्र के सम्बन्ध में विशेष उपबन्ध-(1)
इस अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी, ऐसे
सभी व्यक्ति जो उस तारीख के ठीक पूर्व जिसको अध्याय 3 के
उपबंधों को पांडिचेरी संघ राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त किया जाता है, उक्त संघ राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त किसी विधि के अधीन (चाहे अभिवचन
द्वारा या कार्य द्वारा या दोनों के द्वारा) विधि व्यवसाय करने के हकदार थे,
या जो यदि उक्त तारीख को लोक सेवा में न होते तो इस प्रकार हकदार
होते, धारा 17 की उपधारा (1) के खण्ड (क) के प्रयोजनों के लिए, भारतीय विधिज्ञ
परिषद् अधिनियम, 1926 (1926 का 38) के
अधीन किसी उच्च न्यायालय की नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किए गए
व्यक्ति समझे जाएंगे और प्रत्येक ऐसा व्यक्ति, उतने समय के
भीतर, जो मद्रास विधिज्ञ परिषद् द्वारा विनिर्दिष्ट किया जाए
इस निमित्त किए गए आवेदन पर, उस संघ राज्यक्षेत्र के लिए रखी
गई राज्य नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किया जा सकेगा ।
(2)
इस अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी, प्रत्येक
ऐसा व्यक्ति जो उस तारीख के ठीक पूर्व, जिसको अध्याय 4
के उपबंधों को पांडिचेरी संघ राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त किया जाता
है, उक्त संघ राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त किसी विधि के अधीन
के आधार पर (चाहे अभिवचन द्वारा या कार्य द्वारा या दोनों के द्वारा या किसी अन्य
प्रकार से) विधि व्यवसाय करता था और जो उपधारा (1) के अधीन
अधिवक्ता के रूप मे नामांकित किए जाने का चयन नहीं करता है या नामांकित किए जाने
के लिए अर्हित नहीं है, पांडिचेरी (एक्सटेंशन आफ लॉज) ऐक्ट,
1968 (1968 का 26) द्वारा ऐसी विधि के सुसंगत
उपबन्धों के निरसित होते हुए भी, किसी न्यायालय या राजस्व
कार्यालय में, या किसी प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि
व्यवसाय की बाबत उन्हीं अधिकारों का उपभोग करता रहेगा और उसी प्राधिकारी की
अनुशासनिक अधिकारिता के अधीन बना रहेगा, जिसका उक्त तारीख के
ठीक पूर्व, यथास्थिति, उसने उपभोग किया
था या जिसके अधीन वह था और तदनुसार पूर्वोक्त विधि के सुसंगत उपबन्ध ऐसे
व्यक्तियों के सम्बन्ध में वैसे ही प्रभावी होंगे, मानो वे
निरसित ही नहीं किए गए थे ।]
[58कख. कर्नाटक राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा नामांकित कुछ व्यक्तियों की बाबत विशेष उपबन्ध-इस अधिनियम में या किसी
न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री या आदेश में या
भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा पारित किसी संकल्प या दिए गए निदेश में किसी बात के
होते हुए भी, प्रत्येक ऐसा व्यक्ति, जो
कर्नाटक उच्च न्यायालय से प्लीडर का प्रमाणपत्र प्राप्त करने के
आधार पर 28 फरवरी, 1963 से प्रारंभ
होकर 31 मार्च, 1964 को समाप्त होने
वाली अवधि के दौरान, कर्नाटक राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा
राज्य नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किया गया था, तो जैसा उपबन्धित है उसके सिवाय, उसके बारे में यह
समझा जाएगा कि वह उस राज्य की नामावली में अधिवक्ता के रूप में विधिमान्य रूप से
प्रविष्ट किया गया है, और तदनुसार विधि व्यवसाय करने का
(अभिवचन द्वारा या कार्य द्वारा या दोनों के द्वारा) हकदार होगा :
परन्तु जहां ऐसे किसी व्यक्ति ने किसी अन्य राज्य विधिज्ञ परिषद् की
नामावली में अधिवक्ता के रूप में नामांकित किए जाने का चयन किया है, वहां उसका नाम उस तारीख से, जिसको वह उस अन्य राज्य
विधिज्ञ परिषद् द्वारा नामांकित किया गया था कर्नाटक राज्य विधिज्ञ परिषद् की
नामावली से काट दिया गया समझा जाएगा:
परन्तु यह और कि ऐसे व्यक्ति की ज्येष्ठता, चाहे
उसका नाम कर्नाटक राज्य विधिज्ञ परिषद् की राज्य नामावली में हो या किसी अन्य
विधिज्ञ परिषद् की राज्य नामावली में हो, धारा 17 की उपधारा (3) के खंड (घ) के प्रयोजनों के लिए,
16 मई, 1964 को प्रवेश की तारीख मान कर
अवधारित की जाएगी ।]
[58कग. उत्तर प्रदेश राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा नामांकित कुछ व्यक्तियों की बाबत विशेष उपबन्ध-इस अधिनियम या किसी न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री
या आदेश में किसी बात के होते हुए भी, प्रत्येक ऐसा व्यक्ति
जो 2 जनवरी, 1962 से प्रारम्भ होकर 25
मई, 1962 को समाप्त होने वाली अवधि के दौरान
उच्च न्यायालय द्वारा अधिवक्ता के रूप में नामांकित था और तत्पश्चात् उत्तर प्रदेश
राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा राज्य नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किया
गया था, उच्च न्यायालय द्वारा, उसके
नामांकन की तारीख से उस राज्य नामावली में अधिवक्ता के रूप में विधिमान्यतः
प्रविष्ट किया गया समझा जाएगा और तदनुसार विधि व्यवसाय करने का, (चाहे अभिवचन द्वारा या कार्य द्वारा या दोनों के द्वारा) हकदार होगा ।
58कघ. भारत में प्रवास करने वाले कुछ व्यक्तियों की बाबत विशेष उपबन्ध-इस
अधिनियम द्वारा विधि व्यवसायी अधिनियम, 1879 (1879 का 18) या विधि व्यवसायियों के प्रवेश और नामांकन से
सम्बन्धित किसी अन्य विधि के (जिसे इस धारा में इसके पश्चात् ऐसा अधिनियम या ऐसी
विधि कहा गया है) उपबन्धों के निरसन होते हुए भी, प्रत्येक
ऐसा व्यक्ति जो किसी ऐसे क्षेत्र से, जो 15 अगस्त, 1947 से पूर्व, भारत
शासन अधिनियम, 1935 में परिनिश्चित भारत में समाविष्ट
राज्यक्षेत्र था, प्रवास करता है, और
ऐसे किसी क्षेत्र में प्रवृत्त किसी विधि के अधीन उस क्षेत्र में ऐसे प्रवास से
पूर्व, प्लीडर, मुख्तार या राजस्व
अभिकर्ता रहा है तो ऐसे अधिनियम या ऐसी विधि के सुसंगत उपबन्धों के अधीन, यथास्थिति, प्लीडर, मुख्तार या
राजस्व अभिकर्ता के रूप में प्रविष्ट और नामांकित किया जा सकेगा, यदि वह-
(क) ऐसे अधिनियम या ऐसी विधि के अधीन समुचित प्राधिकारी को इस प्रयोजन के
लिए आवेदन करता है; और
(ख) भारत का नागरिक है और पूर्वोक्त समुचित प्राधिकारी द्वारा इस निमित्त
विनिर्दिष्ट अन्य शर्तों को यदि कोई हों, पूरी करता है,
और
इस अधिनियम द्वारा ऐसे अधिनियम या ऐसी विधि के सुसंगत उपबन्धों के निरसन के होते
हुए भी इस प्रकार, नामांकित प्रत्येक प्लीडर,
मुख्तार या राजस्व अभिकर्ता को, किसी न्यायालय
या राजस्व कार्यालय में या किसी अन्य प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि व्यवसाय
करने की बाबत, वैसे ही अधिकार प्राप्त होंगे और वह ऐसे
अधिनियम या ऐसी विधि के सुसंगत उपबंनधों के अनुसार जिस प्राधिकरण की अनुशासनिक
अधिकारिता के अधीन होना उसी प्राधिकरण की अनुशासनिक अधिकारिता में वैसे ही बना
रहेगा मानो ऐसे अधिनियम या ऐसी विधि का निरसन ही नहीं किया गया था, और तद्नुसार वे उपबन्ध ऐसे व्यक्तियों के सम्बन्ध में प्रभावी होंगे ।
58कङ. गोवा, दमण और दीव संघ राज्यक्षेत्र के सम्बन्ध में विशेष उपबन्ध-(1)
इस अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी, ऐसे
सभी व्यक्ति, जो गोवा, दमण और दीव संघ
राज्यक्षेत्र में अध्याय 3 के उपबन्धों के प्रवृत्त किए जाने
की तारीख से ठीक पूर्व विधि व्यवसाय (चाहे अभिवचन द्वारा या कार्य द्वारा या दोनों
के द्वारा) करने के लिए, उक्त संघ राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त
किसी विधि के अधीन हकदार थे, या जो, यदि
वे उक्त तारीख को लोक सेवा में न होते तो इस प्रकार हकदार होते, धारा 17 की उपधारा (1) के खंड
(क) के प्रयोजन के लिए, भारतीय विधिज्ञ परिषद् अधिनियम,
1926 (1926 का 38) के अधीन किसी उच्च न्यायालय
की नामावली में अधिवक्ताओं के रूप में दर्ज किए गए व्यक्ति समझे जाएंगे और
प्रत्येक ऐसा व्यक्ति, उतने समय के भीतर, जो महाराष्ट्र की विधिज्ञ परिषद् द्वारा विनिर्दिष्ट किया जाए, इस निमित्त किए आवेदन पर, उक्त संघ राज्यक्षेत्र के
सम्बन्ध में रखी गई राज्य नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किया जा सकेगा
:
परन्तु
इस उपधारा के उपबन्ध किसी ऐसे व्यक्ति को लागू नहीं होंगे,
जो पूर्वोक्त आवेदन की तारीख को भारत का नागरिक नहीं था ।
(2)
इस अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी, प्रत्येक
ऐसा व्यक्ति जो उस तारीख से ठीक पूर्व जिसको अध्याय 4 के
उपबन्धों को गोवा, दमण और दीव संघ राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त
किया जाता है उक्त संघ राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त किसी विधि के उपबन्धों के आधार
पर (चाहे अभिवचन द्वारा या कार्य द्वारा या दोनों के द्वारा या किसी अन्य प्रकार
से) विधि व्यवसाय कर रहा था, या जो उपधारा (1) के अधीन अधिवक्ता के रूप में नामांकित किए जाने का चयन नहीं करता है या
नामांकित किए जाने के लिए अर्हित नहीं है, इस अधिनियम द्वारा
ऐसी विधि के सुसंगत उपबन्धों के निरसन के होते हुए भी, किसी
न्यायालय या राजस्व कार्यालय में या किसी अन्य प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि
व्यवसाय की बाबत उन्हीं अधिकारों का उपभोग करता रहेगा और उसी प्राधिकरण की
अनुशासनिक अधिकारिता के अधीन बना रहेगा जिनका उसने उक्त तारीख से ठीक पूर्व,
यथास्थिति, उपभोग किया था या जिसके अधीन वह था,
और तदनुसार पूर्वोक्त विधि के सुसंगत उपबंध ऐसे व्यक्तियों के बारे
में वैसे ही प्रभावी होंगे मानो वे निरसित ही नहीं किए गए थे ।
(3)
उस तारीख को, जिसको यह अधिनियम या इसका कोई
भाग गोवा, दमण और दीव संघ राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त होता है,
उस संघ राज्यक्षेत्र में प्रवृत्त ऐसी विधि भी, जो इस अधिनियम के या उसके ऐसे भाग के तत्समान हो, और
इस अधिनियम की धारा 50 के उपबन्धों के आधार पर निरसित न हुई
हो, निरसित हो जाएगी ।
58कच. जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में विशेष उपबन्ध-(1) इस अधिनियम में किसी बात
के होते हुए भी, ऐसे सभी अधिवक्ता जो जम्मू-कश्मीर राज्य में
उस तारीख के ठीक पूर्व जिसको अध्याय 3 के उपबन्धों को
प्रवृत्त किया जाता है, उस राज्य के उच्च न्यायालय में विधि
व्यवसाय करने के हकदार थे, या जो, यदि
वे उक्त तारीख को लोक सेवा में न होते तो, इस प्रकार हकदार
होते, धारा 17 की उपधारा (1) के खंड (क) के प्रयोजनों के लिए, भारतीय विधिज्ञ
परिषद् अधिनियम, 1926 (1926 का 38) के
अधीन किसी उच्च न्यायालय की नामावली में अधिवक्ताओं के रूप में दर्ज किए गए समझे
जाएंगे और प्रत्येक ऐसा व्यक्ति, उतने समय के भीतर, जो भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा विनिर्दिष्ट किया जाए, इस निमित्त किए गए आवेदन पर, उक्त राज्य के सम्बन्ध
में रखी गई राज्य नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किया जा सकेगा ।
(2)
इस अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी, प्रत्येक
व्यक्ति, जो जम्मू-कश्मीर राज्य में, उस
तारीख के ठीक पूर्व जिसको अध्याय 3 के उपबन्धों को प्रवृत्त
किया जाता है, अधिवक्ता से भिन्न किसी रूप में विधि व्यवसाय
करने का (चाहे अभिवचन द्वारा या दोनों के द्वारा) उक्त राज्य में प्रवृत्त किसी
विधि के उपबन्धों के आधार पर, हकदार था, या यदि वह उक्त तारीख को लोक सेवा में न होता तो, इस
प्रकार हकदार होता, उक्त राज्य के सम्बन्ध में रखी गई राज्य
नामावली में अधिवक्ता के रूप में प्रविष्ट किया जा सकेगा, यदि
वह, -
(i)
इस अधिनियमों के उपबन्धों के अनुसार ऐसे नामांकन के लिए आवेदन करता
है; और
(ii)
धारा 24 की उपधारा (1) के
खंड (क), (ख) और (च) में विनिर्दिष्ट शर्तों को पूरा करता है
।
(3)
इस अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी, प्रत्येक
ऐसा व्यक्ति जो उस तारीख से ठीक पूर्व, जिसको अध्याय 4
के उपबन्धों को जम्मू-कश्मीर राज्य में प्रवृत्त किया जाता है,
वहां प्रवृत्त किसी विधि के उपबन्धों के आधार पर (चाहे अभिवचन
द्वारा या कार्यों के द्वारा या दोनों के द्वारा) विधि व्यवसाय करता था, या जो उपधारा (1) या उपधारा (2) के अधीन अधिवक्ता के रूप में नामांकित किए जाने का चयन नहीं करता है या
नामांकित किए जाने के लिए अर्हित नहीं है, इस अधिनियम द्वारा
ऐसी विधि के सुसंगत उपबन्धों के निरसन के होते हुए भी, किसी
न्यायालय या राजस्व कार्यालय में या किसी अन्य प्राधिकरण या व्यक्ति के समक्ष विधि
व्यवसाय की बाबत, उन्हीं अधिकारों का उपभोग करता रहेगा और
उसी प्राधिकरण की अनुशासनिक अधिकारिता के अधीन बना रहेगा, जिनका,
उसने उक्त तारीख के ठीक पूर्व, यथास्थिति,
उपभोग किया था या जिसके अधीन वह था, और
तदनुसार पूर्वोक्त विधि के सुसंगत उपबन्ध ऐसे व्यक्तियों के सम्बन्ध में वैसे ही
प्रभावी होंगे मानो वे निरसित ही नहीं किए गए थे ।
(4)
उक्त तारीख को, जिसको यह अधिनियम या इसका कोई
भाग जम्मू-कश्मीर राज्य में प्रवृत्त होता है, उस राज्य में
प्रवृत्त ऐसी विधि भी, जो इस अधिनियम के या उसके ऐसे भाग के
तत्समान हों और इस अधिनियम की धारा 50 के उपबन्धों के आधार
पर निरसित न हुई हो, निरसित हो जाएगी ।]
[58कछ. आबद्ध शिक्षार्थियों के सम्बन्ध में विशेष उपबन्ध-इस अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी, प्रत्येक
ऐसा व्यक्ति जिसने अधिवक्ता (संशोधन) अधिनियम, 1976 (1976 का
107) द्वारा धारा 34 की उपधारा (2)
का लोप किए जाने के पूर्व, उस उपधारा के अधीन
बनाए गए नियमों के अनुसरण में कलकत्ता स्थित उच्च न्यायालय के अटर्नी के रूप में
नामांकन के प्रयोजन के लिए 1976 के दिसम्बर के इकतीसवें दिन
के ठीक पूर्व आबद्ध शिक्षार्थी का कार्य प्रारम्भ कर दिया है और प्रारम्भिक
परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है, राज्य नामावली में अधिवक्ता के
रूप में तभी प्रविष्ट किया जा सकेगा जब वह,-
(i)
1980 के दिसम्बर के इकतीसवें दिन को या उसके पूर्व निम्नलिखित
परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है, अर्थात्: -
(क) उस दशा में जब ऐसे व्यक्ति ने 1976 के दिसम्बर के
इकतीसवें दिन के पूर्व इण्टरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है, अंतिम परीक्षा;
(ख) किसी अन्य दशा में इण्टरमीडिएट परीक्षा और अंतिम परीक्षा ।
स्पष्टीकरण-इस खंड के प्रयोजन के लिए, कलकत्ता स्थित उच्च
न्यायालय ऐसे नियम विहित कर सकेगा जो धारा 34 की उपधारा (2)
के अधीन आवश्यक हैं और उनमें परीक्षाओं के स्वरूप और उनसे संबंधित
कोई अन्य विषय विनिर्दिष्ट करेगा;
(ii)
ऐसे नामांकन के लिए इस अधिनियम के उपबन्धों के अनुसार आवेदन करता है;
और
(iii)
धारा 24 की उपधारा (1) के
खंड (क), (ख), (ङ) और (च) में
विनिर्दिष्ट शर्तें पूरी करता है ।]
58ख. कुछ अनुशासनिक कार्यवाहियों से सम्बन्धित विशेष उपबन्ध-(1)
1 सितम्बर, 1963 से किसी उच्च न्यायालय के
किसी विधिमान अधिवक्ता के संबंध में किसी अनुशासनिक मामले की बाबत प्रत्येक
कार्यवाही, उपधारा (2) के प्रथम
परन्तुक में जैसा उपबन्धित है उसके सिवाय, उस उच्च न्यायालय
के सम्बन्ध में राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा इस प्रकार निपटाई जाएगी मानो विद्यमान
अधिवक्ता उसकी नामावली में अधिवक्ता के रूप में नामांकित था ।
(2)
यदि किसी उच्च न्यायालय के समक्ष किसी विद्यमान अधिवक्ता से
सम्बन्धित किसी अनुशासनिक मामले के सम्बन्ध में, उक्त तारीख
के ठीक पूर्व, भारतीय विधिज्ञ परिषद् अधिनियम, 1926
(1926 का 38) के अधीन कोई कार्यवाही लंबित है
तो वह कार्यवाही उस उच्च न्यायालय के सम्बन्ध में राज्य विधिज्ञ परिषद् को इस
प्रकार अन्तरित हो जाएगी मानो वह कार्यवाही धारा 56 की
उपधारा (1) के खंड (ग) के अधीन तत्स्थानी विधिज्ञ परिषद् के
समक्ष लंबित कार्यवाही हो:
परन्तु जो किसी ऐसी कार्यवाही की बाबत भारतीय विधिज्ञ परिषद् अधिनियम,
1926 (1926 का 38) की धारा 11 के अधीन गठित किसी अधिकरण का निष्कर्ष उच्च न्यायालय को प्राप्त हो गया है,
वहां वह उच्च न्यायालय मामले का निपटारा करेगा और उस उच्च न्यायालय
के लिए यह विधिपूर्ण होगा कि वह उस प्रयोजन के लिए उन सभी शक्तियों का, जो उक्त अधिनियम की धारा 12 के अधीन उसे प्रदान की
गई हैं, इस प्रकार प्रयोग करे मानो वह धारा निरसित ही न हुई
हो:
परन्तु
यह और कि जहां उच्च न्यायालय ने कोई मामला उक्त अधिनियम की धारा 12
की उपधारा (4) के अधीन आगे जांच करने के लिए
वापस भेजा है, वहां वह कार्यवाही उच्च न्यायालय के सम्बन्ध
में राज्य विधिज्ञ परिषद् को इस प्रकार अन्तरित हो जाएगी मानो वह धारा 56 की उपधारा (1) के खंड (ग) के अधीन तत्स्थानी विधिज्ञ
परिषद् के समक्ष लंबित कार्यवाही हो ।
(3)
यदि किसी ऐसे प्लीडर, वकील, मुख्तार या अटर्नी के सम्बन्ध में, जो अधिनियम के
अधीन किसी राज्य नामावली में अधिवक्ता के रूप में नामांकित किया गया है, किसी अनुशासनिक मामले की बाबत कोई कार्यवाही उक्त तारीख से ठीक पूर्व
लंबित है, तो ऐसी कार्यवाही उस राज्य विधिज्ञ परिषद् को
अन्तरित हो जाएगी जिसकी नामावली में उसका नामांकन किया गया है और इस अधिनियम के
अधीन उसकी बाबत इस प्रकार कार्यवाही की जाएगी मानो वह उस अधिनियम के अधीन उसके
विरुद्ध उद्भूत होने वाली कार्यवाही हो ।
(4)
इस धारा में विद्यमान अधिवक्ता" से ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है,
जिसका भारतीय विधिज्ञ परिषद् अधिनियम, 1926 (1926 का 38) के अधीन किसी उच्च न्यायालय की नामावली में
अधिवक्ता के रूप में नामांकन किया गया था और जो किसी अनुशासनिक मामले की बाबत अपने
विरुद्ध कोई कार्यवाही शुरू करने के समय इस अधिनियम के अधीन किसी राज्य नामावली
में अधिवक्ता में रूप में नामांकित नहीं है ।
(5)
इस अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी इस धारा के उपबन्घ प्रभावी
होंगे ।]
59. कठिनाइयों का दूर किया जाना-(1)
यदि इस अधिनियम के उपबन्धों को प्रभावी करने में, विशिष्टतया इस अधिनियम द्वारा निरसित अधिनियमितियों से इस अधिनियम के
उपबन्धों के संक्रमण के संबंध में, कोई कठिनाई उत्पन्न होती
है तो केन्द्रीय सरकार, राजपत्र में प्रकाशित आदेश द्वारा,
ऐसे उपबन्ध कर सकेगी, जो इस अधिनियम के
प्रयोजनों से असंगत न हों और जो उसे कठिनाइयां दूर करने के लिए आवश्यक या समीचीन
प्रतीत हों ।
(2)
उपधारा (1) के अधीन कोई आदेश इस प्रकार किया
जा सकेगा कि उसका प्रभाव ऐसी भूतलक्षी तारीख से हो जो 1 दिसम्बर,
1961 से पूर्व की तारीख न हो ।
[60. केन्द्रीय सरकार की नियम बनाने की शक्ति-(1) जब तक इस अधिनियम के
अधीन किसी विषय की बाबत किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा नियम नहीं बनाए जाते हैं,
और भारतीय विधिज्ञ परिषद् द्वारा अनुमोदित नहीं किए जाते हैं,
तब तक उस विषय से सम्बन्धित नियम बनाने की शक्ति का प्रयोग
केन्द्रीय सरकार करेगी ।
(2)
केन्द्रीय सरकार, उपधारा (1) के अधीन नियम, या तो किसी विधिज्ञ परिषद् के लिए या
साधारणतया सभी राज्य विधिज्ञ परिषदों के लिए, भारतीय विधिज्ञ
परिषद् से परामर्श करने के पश्चात् राजपत्र में अधिसूचना द्वारा बना सकेगी और इस
प्रकार बनाए गए नियम इस अधिनियम में किसी बात के होते हुए भी, प्रभावी होंगे ।
(3)
जहां किसी विषय की बाबत केन्द्रीय सरकार द्वारा इस धारा के अधीन
किसी राज्य विधिज्ञ परिषद् के लिए नियम बनाए जाते हैं, और
उसी विषय की बाबत राज्य विधिज्ञ परिषद् द्वारा नियम बनाए जाते हैं और भारतीय
विधिज्ञ परिषद् द्वारा अनुमोदित किए जाते हैं, वहां
केन्द्रीय सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, यह निदेश दे सकेगी कि उसके द्वारा ऐसे विषय की बाबत बनाए गए नियम, ऐसी तारीख से, जो अधिसूचना में विनिर्दिष्ट की जाए,
उस विधिज्ञ परिषद् के सम्बन्ध में प्रवृत्त नहीं रह जाएंगे, और ऐसी अधिसूचना के जारी किए जाने पर, केन्द्रीय
सरकार द्वारा बनाए गए नियम तद्नुसार वहां तक के सिवाय प्रवृत्त नहीं रह जाएंगे
जहां तक कि उस तारीख के पूर्व की गई या की जाने से लोप की गई बातों का सम्बन्ध है
।]
अनुसूची
धारा 50 (5) देखिए
कुछ अधिनियमितियों का निरसन
संक्षिप्त नाम |
निरसन का विस्तार |
|
1. |
लीगल
प्रैक्टीशनर्स (विमेन) ऐक्ट, 1923 (1923 का
अधिनियम सं० 23) |
सम्पूर्ण
। |
2. |
लीगल
प्रैक्टीशनर्स (फीस) ऐक्ट, 1926 (1926 का
अधिनियम सं० 21) |
सम्पूर्ण
। |
3. |
राज्य
पुनर्गठन अधिनियम, 1956 (1956 का अधिनियम
सं० 37) |
धारा
53
। |
4. |
मुम्बई
पुनर्गठन अधिनियम, 1960 (1960 का अधिनियम
सं० 11) |
धारा
31
। |
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