नमस्कार
पाठकों! आज हम भारतीय संविधान के एक अनोखे और महत्वपूर्ण प्रावधान पर चर्चा करेंगे
– अनुच्छेद 233A । यह अनुच्छेद संविधान का एक विशेष,
अस्थायी और अपवादात्मक हिस्सा है, जिसे
संविधान (बीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1966 के माध्यम से जोड़ा
गया था। इसका मुख्य उद्देश्य न्यायिक नियुक्तियों से जुड़ी एक गंभीर संवैधानिक
समस्या को हल करना था, जो उस समय देश के कई राज्यों में उभरी
थी। इस लेख में हम इस अनुच्छेद की पृष्ठभूमि, उद्देश्य,
प्रावधानों, प्रभाव, आलोचना
और उदाहरणों को विस्तार से समझेंगे। यह प्रावधान न केवल न्यायपालिका की निरंतरता
सुनिश्चित करने का एक उदाहरण है, बल्कि संवैधानिक संकटों से
निपटने की भारतीय व्यवस्था की लचीलता को भी दर्शाता है। आइए शुरू करते हैं।
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अनुच्छेद
233A
का उद्देश्य
अनुच्छेद
233A
को मुख्य रूप से उन जिला न्यायाधीशों और न्यायिक सेवा के अन्य
पदाधिकारियों की नियुक्तियों को वैधता प्रदान करने के लिए लाया गया था, जिनकी नियुक्तियां या पदोन्नतियां संविधान के अनुच्छेद 233 और 235 के अनुरूप नहीं थीं, लेकिन
वे पहले से ही पद पर कार्यरत थे। संविधान के लागू होने के बाद से, यानी 1950 से 1966 तक, कई राज्यों में जिला न्यायाधीशों और अन्य न्यायिक अधिकारियों की
नियुक्तियां तय प्रक्रिया का पालन किए बिना की गई थीं। इन नियुक्तियों की वैधता पर
सवाल उठने लगे, और कई मामलों में अदालतों में चुनौतियां दी
गईं।
उदाहरण
के लिए,
यदि किसी राज्य में एक व्यक्ति को जिला न्यायाधीश बनाया गया,
लेकिन उसकी नियुक्ति में उच्च न्यायालय से आवश्यक परामर्श नहीं लिया
गया, तो ऐसी नियुक्ति संवैधानिक रूप से दोषपूर्ण मानी जाती।
इससे न केवल उन अधिकारियों की नौकरी खतरे में पड़ती, बल्कि
उनके द्वारा दिए गए हजारों फैसलों की वैधता भी संदिग्ध हो जाती। अनुच्छेद 233A
का उद्देश्य यही था – इन पुरानी त्रुटियों को सुधारना और न्यायिक
प्रक्रिया में अवरोध न आने देना। यह एक तरह से "पूर्व-वैधता" (retrospective
validation) प्रदान करने वाला प्रावधान था, जो
असाधारण परिस्थितियों में ही लागू किया गया।
पृष्ठभूमि
भारतीय
संविधान के अनुच्छेद 233 में स्पष्ट रूप से कहा
गया है कि जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा केवल उच्च न्यायालय के
परामर्श से की जाएगी, और नियुक्ति केवल उन व्यक्तियों से
होगी जो कम से कम सात वर्षों से अधिवक्ता के रूप में कार्यरत हों या न्यायिक सेवा
के पदाधिकारी हों। अनुच्छेद 235 उच्च न्यायालयों को जिला
न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायिक सेवाओं पर नियंत्रण प्रदान करता है।
हालांकि,
संविधान लागू होने के शुरुआती वर्षों में कई राज्यों में इन
प्रावधानों का सख्ती से पालन नहीं किया गया। कुछ मामलों में उच्च न्यायालय की सलाह
को नजरअंदाज कर दिया गया, जबकि अन्य में अयोग्य या
गैर-कानूनी स्रोतों से व्यक्तियों को नियुक्त किया गया। उदाहरण स्वरूप, उत्तर प्रदेश में उच्च न्यायिक सेवा नियम (U.P. Higher Judicial
Service Rules) के तहत नियुक्तियां की गईं, जो
संविधान के अनुरूप नहीं थीं। इन अनियमितताओं पर जब अदालतों में चुनौतियां आईं,
तो एक बड़ा संकट उत्पन्न हो गया।
इस
पृष्ठभूमि का सबसे प्रमुख उदाहरण है चंद्र मोहन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य
(Chandra Mohan vs State of U.P.) मामला,
जो 1966 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया गया।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायिक सेवा नियमों को
असंवैधानिक घोषित कर दिया, क्योंकि वे अनुच्छेद 233 के तहत आवश्यक परामर्श और योग्यता मानदंडों का उल्लंघन करते थे। कोर्ट ने
कहा कि राज्यपाल को उच्च न्यायालय से परामर्श अनिवार्य है, और
नियुक्तियां केवल निर्दिष्ट स्रोतों से ही की जा सकती हैं। इस फैसले से कई राज्यों
में सैकड़ों न्यायिक नियुक्तियां अवैध होने का खतरा पैदा हो गया, जिससे न्यायपालिका में अराजकता फैल सकती थी – हजारों मुकदमों के फैसले
अमान्य हो जाते, और न्यायिक प्रक्रिया ठप पड़ जाती।
इसी
संकट को दूर करने के लिए संसद ने 1966 में
संविधान का बीसवाँ संशोधन पारित किया और अनुच्छेद 233A को
जोड़ा। यह संशोधन एक आपातकालीन उपाय था, जो भविष्य की
नियुक्तियों पर लागू नहीं होता, बल्कि केवल अतीत की
त्रुटियों को सुधारता है।
अनुच्छेद
233A
का मुख्य प्रावधान
अनुच्छेद
233A
को सरल भाषा में समझें तो यह कहता है: यदि 1950 से 1966 तक (संविधान (बीसवाँ संशोधन) अधिनियम के
प्रारंभ होने से पहले) जिला न्यायाधीशों या न्यायिक सेवा में किसी व्यक्ति की
नियुक्ति या पदोन्नति अनुच्छेद 233 या 235 के अनुसार सही प्रक्रिया से नहीं हुई है, तो भी उन
नियुक्तियों या पदोन्नतियों को पूर्ण रूप से वैध माना जाएगा।
साथ
ही,
इन नियुक्तियों पर किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकेगी। इससे
भी महत्वपूर्ण, इन अधिकारियों द्वारा दिए गए सभी निर्णय,
आदेश, डिक्री या सजाएं भी वैध मानी जाएंगी,
भले ही नियुक्ति में कोई संवैधानिक कमी क्यों न हो। यह प्रावधान एक "वैधीकरण
खंड" (validating clause) है, जो अतीत की गलतियों को माफ कर देता है, लेकिन केवल
निर्दिष्ट अवधि के लिए।
अनुच्छेद 233A का पाठ
अनुच्छेद
233A
का मूल पाठ इस प्रकार है (सरलीकृत हिंदी अनुवाद में):
"भले ही कोई नियुक्ति, पदोन्नति या स्थानांतरण
अनुच्छेद 233 या 235 के प्रावधानों के
अनुरूप न हुआ हो, उसे वैध माना जाएगा। ऐसी कोई नियुक्ति,
पदोन्नति, स्थानांतरण या उसके परिणामस्वरूप
दिए गए किसी निर्णय, डिक्री, आदेश या
सजा को किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकेगी।"
यह
प्रावधान स्पष्ट रूप से न्यायिक कार्यों की निरंतरता को प्राथमिकता देता है।
प्रभाव
अनुच्छेद
233A
के लागू होने से न्यायपालिका में कई सकारात्मक प्रभाव पड़े। सबसे
पहले, न्यायिक निरंतरता सुनिश्चित हुई – पहले से नियुक्त
न्यायाधीशों के फैसले वैध बने रहे, जिससे लाखों मुकदमों पर
कोई असर नहीं पड़ा। यदि यह संशोधन न होता, तो एक बड़ा
संवैधानिक संकट उत्पन्न होता, जहां पुराने फैसलों को दोबारा
खोलना पड़ता, और न्याय व्यवस्था ठप हो जाती।
दूसरा,
यह प्रावधान एक पूर्व-वैधता देने वाला खंड था, जिसने राज्यों को अपनी पुरानी गलतियों से मुक्ति दी और भविष्य में
संवैधानिक प्रक्रियाओं का पालन सुनिश्चित करने के लिए प्रेरित किया। परिणामस्वरूप,
न्यायपालिका का काम सुचारू रूप से चला, और
जनता का विश्वास बना रहा। कुछ कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार, यह
संशोधन भारतीय संविधान की अनुकूलनशीलता का प्रमाण दर्शाता है।
आलोचना
हालांकि
अनुच्छेद 233A को आवश्यक माना गया, लेकिन इसे कुछ कानूनी विशेषज्ञों ने "पश्चदृष्टि से वैध ठहराने
वाला कानून" (retrospective validation) कहकर
आलोचना भी की। उनका तर्क है कि इससे एक समय के लिए न्यायिक नियुक्तियों में
पारदर्शिता और संवैधानिक प्रक्रिया का उल्लंघन वैध हो गया, जो
लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है। उदाहरण के लिए, यदि
सरकारें मनमाने ढंग से नियुक्तियां करती रहीं और बाद में उन्हें वैध कर दिया जाता,
तो यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर आघात होता।
फिर
भी,
तत्कालीन परिस्थितियों में इसे आवश्यक माना गया, क्योंकि न्यायपालिका का काम रुकना देश के लिए बड़ा खतरा होता। आलोचक यह भी
कहते हैं कि ऐसे प्रावधानों से भविष्य में गलत परंपराएं स्थापित हो सकती हैं,
लेकिन वास्तव में यह एकबारगी समाधान था और इसका दुरुपयोग नहीं हुआ।
उदाहरण
मान
लीजिए,
1960 में उत्तर प्रदेश में एक व्यक्ति को जिला न्यायाधीश नियुक्त
किया गया, लेकिन उसकी नियुक्ति में उच्च न्यायालय से परामर्श
नहीं लिया गया। सामान्यतः यह अनुच्छेद 233 का उल्लंघन होता,
और चंद्र मोहन मामले की तरह अदालत इसे अवैध घोषित कर सकती
थी। लेकिन अनुच्छेद 233A लागू होने के बाद, यह नियुक्ति वैध मानी गई, और उसके द्वारा दिए गए सभी
निर्णय कानूनी रूप से मान्य रहे। इससे न केवल उस अधिकारी की नौकरी बची, बल्कि उसके फैसलों पर निर्भर हजारों लोगों को न्याय मिला।
एक
और काल्पनिक उदाहरण: यदि किसी राज्य में एक गैर-अधिवक्ता को पदोन्नत कर जिला
न्यायाधीश बनाया गया, जो अनुच्छेद 233 के विरुद्ध है, तो 233A के तहत
वह पदोन्नति वैध हो जाती।
निष्कर्ष
अनुच्छेद
233A
भारतीय संविधान का एक असाधारण और एकबारगी समाधान था, जो न्यायपालिका में नियुक्तियों की अतीत की त्रुटियों को मान्यता देने के
लिए बनाया गया। इसका मुख्य उद्देश्य था – न्यायिक कार्य में कोई अवरोध न आए,
पुराने विवादों का समापन हो, और जनता का न्याय
व्यवस्था पर विश्वास बना रहे। हालांकि यह प्रावधान आलोचना का विषय रहा, लेकिन यह दर्शाता है कि संविधान कितना लचीला है और आपात स्थितियों में
कैसे अनुकूलित होता है। यदि आपको भारतीय संविधान के अन्य प्रावधानों पर चर्चा करनी
हो, तो कमेंट में बताएं। धन्यवाद!