22 जुलाई 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसमें पंजीकृत वसीयत की सत्यता और प्रामाणिकता की धारणा को रेखांकित किया गया। यह मामला आंध्र प्रदेश में 4 एकड़ 16 गुंटा कृषि भूमि के स्वामित्व से जुड़ा था, जिसमें पंजीकृत वसीयत और मौखिक पारिवारिक समझौते की वैधता पर सवाल उठे। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि पंजीकृत वसीयत की सत्यता को चुनौती देने का भार विरोधी पक्ष पर होता है, और इस मामले में यह भार मुथैया पर था, जो इसे साबित करने में असफल रहे।
मामले का पृष्ठभूमि
यह
विवाद मेटपल्ली रमन्ना की 4 एकड़ 16 गुंटा कृषि भूमि से शुरू हुआ, जिनकी मृत्यु 1949
से पहले हो गई थी। यह संपत्ति उनके बेटे मेटपल्ली राजन्ना को मिली,
जिनका निधन 1983 में हुआ। राजन्ना की पहली
पत्नी नरसम्मा से दो बच्चे थे—मुथैया और राजम्मा। बाद में, राजन्ना
ने लासुम बाई से दूसरी शादी की, जिनकी कोई संतान नहीं थी।
राजन्ना की मृत्यु के बाद, लासुम बाई और मुथैया के बीच इस
संपत्ति के स्वामित्व को लेकर विवाद शुरू हुआ।
लासुम बाई का दावा
लासुम
बाई ने दावा किया कि राजन्ना ने 1974 में उनके पक्ष में
एक पंजीकृत वसीयत निष्पादित की थी, जिसके आधार पर उन्हें
संपत्ति का हिस्सा मिला। इसके अलावा, उन्होंने एक मौखिक
पारिवारिक समझौते का भी हवाला दिया, जिसके तहत संपत्ति का
बंटवारा उनके और राजन्ना की पहली शादी के बच्चों के बीच हुआ था।
मुथैया का विरोध
मुथैया
ने लासुम बाई के दावे का विरोध करते हुए कहा कि यह संपत्ति हिंदू उत्तराधिकार
अधिनियम के तहत संयुक्त परिवार की संपत्ति है। उन्होंने दावा किया कि एकमात्र
जीवित सहदायिक (संयुक्त परिवार का हिस्सेदार) होने के नाते,
वह पूरी संपत्ति के हकदार हैं।
निचली
अदालत का फैसला
निचली
अदालत ने लासुम बाई के पक्ष में फैसला सुनाया। उसने पंजीकृत वसीयत और मौखिक
पारिवारिक समझौते को वैध माना और लासुम बाई को संपत्ति का पूर्ण स्वामी घोषित
किया। अदालत ने कहा कि पंजीकृत वसीयत की सत्यता की प्रबल धारणा थी,
और साक्ष्य लासुम बाई के कब्जे और स्वामित्व के दावों का समर्थन
करते थे।
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय का फैसला
आंध्र
प्रदेश उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को आंशिक रूप से पलट दिया। उसने
लासुम बाई का हिस्सा घटाकर एक-चौथाई कर दिया और शेष तीन-चौथाई हिस्सा मुथैया को दे
दिया। उच्च न्यायालय ने संपत्ति को पैतृक माना और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के
तहत सह-उत्तराधिकारियों के अधिकारों को लागू किया।
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
न्यायमूर्ति
विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द
कर दिया और निचली अदालत के फैसले को बहाल किया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में
निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं पर जोर दिया:
1. पंजीकृत
वसीयत की सत्यता की धारणा:
सुप्रीम
कोर्ट ने कहा कि एक पंजीकृत वसीयत में उचित निष्पादन और प्रामाणिकता की प्रबल
धारणा होती है। इसे चुनौती देने का भार विरोधी पक्ष पर होता है। इस मामले में
मुथैया को यह साबित करना था कि वसीयत अमान्य या धोखाधड़ी से बनाई गई थी,
जिसमें वह असफल रहे।
2. मुथैया
की स्वीकृति:
मुथैया ने स्वीकार किया कि वसीयत पर उनके पिता राजन्ना के हस्ताक्षर
थे और उन्होंने वसीयत की प्रामाणिकता पर कोई सवाल नहीं उठाया। इसके अलावा, उन्होंने यह भी माना कि लासुम बाई का संबंधित भूमि पर कब्जा था, जो मौखिक पारिवारिक समझौते की विश्वसनीयता को और मजबूत करता है।
3. मौखिक
पारिवारिक समझौते की वैधता:
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मौखिक पारिवारिक समझौते, जो पक्षों के कब्जे और आचरण के अनुरूप हों, स्वामित्व
के दावों को बल प्रदान करते हैं। इस मामले में, लासum
बाई का कब्जा और वसीयत की उपस्थिति उनके दावे को मजबूत करती थी।
4. अंतिम
निर्णय:
साक्ष्यों, स्वीकृत तथ्यों और कानूनी
सिद्धांतों के आधार पर, सुप्रीम कोर्ट ने लासुम बाई को
विवादित भूमि का पूर्ण स्वामी घोषित किया। मुथैया का संयुक्त परिवार के तहत पूरी
संपत्ति पर दावा खारिज कर दिया गया।
कानूनी सिद्धांत और प्रासंगिक धाराएँ
यह
मामला भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 से
संबंधित है, जो पंजीकृत दस्तावेजों की सत्यता की धारणा को
रेखांकित करती है। इसके अलावा, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के
सिद्धांत, जो संयुक्त परिवार की संपत्ति और सहदायिक अधिकारों
को नियंत्रित करते हैं, इस मामले में महत्वपूर्ण थे। सुप्रीम
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पंजीकृत वसीयत और मौखिक पारिवारिक समझौते, जब साक्ष्यों द्वारा समर्थित हों, संपत्ति के
स्वामित्व को निर्धारित करने में निर्णायक हो सकते हैं।
इस फैसले का महत्व
यह
ऐतिहासिक फैसला निम्नलिखित कारणों से महत्वपूर्ण है:
- पंजीकृत वसीयत की प्रामाणिकता:
यह निर्णय पंजीकृत वसीयत की कानूनी ताकत को और मजबूत करता है।
इसे चुनौती देने के लिए ठोस सबूतों की आवश्यकता होती है।
- मौखिक समझौतों की मान्यता:
यह फैसला दर्शाता है कि कब्जे और पक्षों के आचरण द्वारा
समर्थित मौखिक पारिवारिक समझौते भी स्वामित्व के दावों को वैधता प्रदान कर
सकते हैं, भले ही औपचारिक दस्तावेजीकरण सीमित हो।
- विरोधी पक्ष पर सबूत का भार:
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पंजीकृत वसीयत की सत्यता को
गलत साबित करने का भार चुनौती देने वाले पक्ष पर होता है, जिसे इस मामले में मुथैया पूरा नहीं कर सके।
निष्कर्ष
सुप्रीम
कोर्ट का यह फैसला संपत्ति विवादों में पंजीकृत वसीयत की महत्ता और मौखिक
पारिवारिक समझौतों की विश्वसनीयता को रेखांकित करता है। यह उन लोगों के लिए एक
मिसाल है जो पंजीकृत दस्तावेजों की प्रामाणिकता को चुनौती देना चाहते हैं,
कि उनके पास ठोस सबूत होने चाहिए। लासुम बाई को पूर्ण स्वामी घोषित
करके, सुप्रीम कोर्ट ने न केवल उनके अधिकारों की रक्षा की,
बल्कि कानूनी सिद्धांतों को भी और स्पष्ट किया।
मामला:
मेटपल्ली लासुम बाई (मृत) और अन्य बनाम मेटपल्ली मुथैया (मृत) के
कानूनी प्रतिनिधियों द्वारा।
तारीख: 22 जुलाई 2025
न्यायाधीश: न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और
न्यायमूर्ति संदीप मेहता