केरल
उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि पति द्वारा पत्नी को
तलाक समझौते का मसौदा भेजना आत्महत्या के लिए उकसाने के रूप में नहीं माना जा
सकता। इस मामले में, निचली अदालत ने भारतीय दंड
संहिता (आईपीसी) की धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने
का आरोप जोड़ा था, लेकिन उच्च न्यायालय ने इसे गलत ठहराते
हुए खारिज कर दिया।
मामला क्या है?
मामला
एक दुखद घटना से जुड़ा है, जिसमें एक महिला ने तलाक
समझौते का मसौदा प्राप्त करने के कुछ दिनों बाद आत्महत्या कर ली थी। अभियोजन पक्ष
के गवाहों—मृतका की मां, पिता और भाई—के अनुसार, 2 नवंबर 2005 को पति के परिवार ने तलाक समझौते का
मसौदा मृतका के भाई को सौंपा था। भाई ने यह मसौदा मृतका को दिया। गवाहों ने बताया
कि मसौदा पढ़ने के बाद महिला मानसिक रूप से परेशान हो गई थी और तीन दिन बाद उसने
कुएं में कूदकर अपनी जान दे दी।
उच्च न्यायालय का फैसला
न्यायमूर्ति
कौसर एडप्पागथ ने मामले की सुनवाई की और पाया कि रिकॉर्ड में ऐसा कोई सबूत नहीं है
जो यह सिद्ध करे कि पति ने आत्महत्या के लिए उकसाया या जानबूझकर कोई मदद की।
उन्होंने निचली अदालत के फैसले को खारिज करते हुए कहा कि तलाक समझौते का मसौदा
भेजने से उत्पन्न मानसिक तनाव को आत्महत्या के लिए उकसाने के बराबर नहीं माना जा
सकता।
धारा
306
आईपीसी की शर्तें
न्यायालय
ने स्पष्ट किया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 306 (जो अब
भारतीय न्याय संहिता की धारा 108 में शामिल है) के तहत
आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला तभी बनता है, जब स्पष्ट
सबूत हों कि अभियुक्त ने उकसावे, साजिश, जानबूझकर मदद या प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से प्रेरित करने जैसा कोई कदम
उठाया हो। इस मामले में, पति के आचरण में ऐसी कोई सक्रिय
भूमिका नहीं पाई गई।
न्यायमूर्ति
ने कहा:
"किसी भी प्रकार के उकसावे या प्रेरणा के बिना अपमान, उत्पीड़न या धमकी का मात्र आरोप धारा 306 के तहत
अपराध सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है।"
निचली अदालत की गलती
उच्च
न्यायालय ने निचली अदालत की आलोचना की, क्योंकि
उसने आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 216 का
दुरुपयोग किया। यह धारा अदालत को आरोपों में बदलाव या नए आरोप जोड़ने की अनुमति
देती है, लेकिन इसके लिए विश्वसनीय और ठोस सबूतों का होना
जरूरी है। उच्च न्यायालय ने कहा कि इस मामले में धारा 306 जोड़ने
के लिए कोई भौतिक साक्ष्य नहीं थे।
न्यायमूर्ति
ने जोर देकर कहा:
"धारा 216 सीआरपीसी (239 BNSS) के तहत आरोप बदलने या जोड़ने की
शक्ति व्यापक है, लेकिन इसका प्रयोग तभी किया जा सकता है जब
अदालत के सामने कोई ऐसी सामग्री हो, जो नए आरोपों से जुड़ी
हो।"
प्रारंभिक आरोप और पति की याचिका
शुरुआत
में,
पुलिस जांच के बाद पति के खिलाफ केवल धारा 498ए
आईपीसी (पति द्वारा क्रूरता) के तहत अंतिम रिपोर्ट दर्ज की गई थी। आरोप था कि पति
ने अपनी पत्नी को मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया, जिसके
कारण उसने आत्महत्या की। बाद में, अभियोजन पक्ष ने ट्रायल
कोर्ट से धारा 306 जोड़ने का अनुरोध किया, जिसे स्वीकार कर लिया गया।
इसके
खिलाफ पति ने केरल उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की।
उच्च न्यायालय ने याचिका को स्वीकार करते हुए पाया कि निचली अदालत का फैसला शिकायत
या गवाहों के बयानों पर आधारित नहीं था।
निष्कर्ष
केरल
उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के आदेश को रद्द करते हुए पति के पक्ष में फैसला
सुनाया। अदालत ने स्पष्ट किया कि तलाक समझौते का मसौदा भेजना आत्महत्या के लिए
उकसाने के बराबर नहीं है। इस फैसले ने यह भी रेखांकित किया कि धारा 306
जैसे गंभीर आरोपों के लिए ठोस सबूतों की आवश्यकता होती है, और केवल मानसिक तनाव को उकसावे के रूप में नहीं देखा जा सकता।
याचिकाकर्ता
बनाम प्रतिवादी: पुथिया पुरयिल शाजी बनाम केरल राज्य