भारत में आपराधिक कानूनों की प्रक्रिया को समझना आम लोगों के लिए थोड़ा जटिल हो सकता है। लेकिन आज हम आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 232 और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 255 के बारे में सरल और स्पष्ट भाषा में बात करेंगे। ये दोनों धाराएं दोषमुक्ति (Acquittal) से संबंधित हैं। हम इनके प्रावधानों, उनके अर्थ, और (Bare Act) की परिभाषा को आसान शब्दों में समझेंगे।
CrPC की धारा 232: दोषमुक्ति का क्या अर्थ है?
आपराधिक
प्रक्रिया संहिता (CrPC), 1973 भारत में आपराधिक मामलों की प्रक्रिया को नियंत्रित करने वाला कानून था,
जो 1 जुलाई 2024 तक लागू
था। इसके बाद इसे भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023
ने प्रतिस्थापित कर दिया। लेकिन जिन मामलों की सुनवाई 1 जुलाई 2024 से पहले शुरू हुई थी, उन पर CrPC लागू होती है।
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धारा
232 का संबंध उन मामलों से है जहां अभियोजन पक्ष (प्रॉसिक्यूशन) अपने साक्ष्य
प्रस्तुत करने के बाद यह साबित नहीं कर पाता कि आरोपी ने अपराध किया है। इसे दोषमुक्ति
(Acquittal) कहा जाता है।
धारा 232: दोषमुक्ति
यदि
अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य के आधार पर यह पाया जाता है कि कोई अपराध
साबित नहीं हुआ है, तो न्यायाधीश उस व्यक्ति को
दोषमुक्त कर सकता है। इस स्थिति में, न्यायाधीश को यह निर्णय
लेने का अधिकार है कि आरोपी को दोषमुक्त किया जाए।
सरल भाषा में समझें
- जब कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए
मुकदमा झेल रहा होता है, तो अभियोजन पक्ष
(जो सरकार की ओर से केस लड़ता है) को यह साबित करना होता है कि उस व्यक्ति ने
अपराध किया है।
- अगर अभियोजन पक्ष के पास पर्याप्त
सबूत नहीं हैं या उनके सबूत कमजोर हैं, तो
अदालत यह तय कर सकती है कि आरोपी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
- इस स्थिति में,
अदालत आरोपी को दोषमुक्त कर देती है, यानी उसे बरी कर दिया जाता है। इसका मतलब है कि वह व्यक्ति कानूनी
रूप से अपराध से मुक्त हो जाता है और उसे सजा नहीं दी जाती।
- धारा 232
न्यायाधीश को यह अधिकार देती है कि वे साक्ष्य सुनने के बाद यह
निर्णय लें कि क्या आरोपी को बरी करना है या नहीं।
उदाहरण
मान
लीजिए,
करन पर लूट का आरोप है। अभियोजन पक्ष कहता है कि करन ने एक दुकान में
सामान की लूट की । लेकिन सुनवाई के दौरान, अभियोजन पक्ष कोई
ठोस सबूत (जैसे CCTV फुटेज, गवाह,
या अन्य प्रमाण) पेश नहीं कर पाता। इस स्थिति में, न्यायाधीश धारा 232 के तहत करन को दोषमुक्त कर सकता
है, क्योंकि अपराध साबित नहीं हुआ।
BNSS की धारा 255: दोषमुक्ति के नए प्रावधान
1
जुलाई 2024 से भारतीय नागरिक सुरक्षा
संहिता (BNSS), 2023 ने CrPC की जगह ले ली है। यह नया कानून भारत की आपराधिक प्रक्रिया को और आधुनिक,
पारदर्शी, और नागरिक-केंद्रित बनाने के लिए
लाया गया है। BNSS की धारा 255 भी
दोषमुक्ति से संबंधित है और यह CrPC की धारा 232 का ही एक नया और संशोधित रूप है।
धारा 255: दोषमुक्ति
यदि
अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य के आधार पर यह पाया जाता है कि कोई अपराध
साबित नहीं हुआ है, तो न्यायाधीश उस व्यक्ति को
दोषमुक्त कर सकता है। इस धारा के तहत, अदालत को यह सुनिश्चित
करना होगा कि निर्णय तथ्यों और सबूतों के आधार पर हो।
CrPC धारा 232 और BNSS धारा 255 में समानताएं और अंतर
- समानताएं:
- दोनों धाराएं दोषमुक्ति से
संबंधित हैं और उनका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि बिना पर्याप्त सबूत
के किसी व्यक्ति को सजा न दी जाए।
- दोनों में न्यायाधीश को यह
अधिकार है कि वे साक्ष्य के आधार पर आरोपी को बरी करें।
- दोनों का मूल सिद्धांत है कि
अपराध को बिना किसी संदेह के साबित करना अभियोजन पक्ष की जिम्मेदारी है।
- अंतर:
- भाषा और संरचना:
BNSS की धारा 255 में भाषा को और स्पष्ट
और आधुनिक बनाया गया है ताकि यह आम लोगों के लिए समझने में आसान हो।
- प्रक्रियात्मक बदलाव:
BNSS में कई प्रक्रियात्मक सुधार किए गए हैं, जैसे कि इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य (E-FIR, ऑनलाइन
सुनवाई) को शामिल करना। हालांकि, धारा 255 में दोषमुक्ति की प्रक्रिया में कोई बड़ा बदलाव नहीं है, लेकिन यह नए कानून के व्यापक ढांचे का हिस्सा है।
- नागरिक-केंद्रित
दृष्टिकोण: BNSS में नागरिकों के
अधिकारों को और मजबूत करने पर जोर दिया गया है। धारा 255 में यह सुनिश्चित किया गया है कि दोषमुक्ति का निर्णय निष्पक्ष और
पारदर्शी हो।
उदाहरण
मान
लीजिए,
श्याम पर दहेज हत्या का
आरोप है। BNSS के तहत, अभियोजन पक्ष को
यह साबित करना होगा कि श्याम ने अपराध किया। अगर उनके पास कोई गवाह या सबूत नहीं
है, तो न्यायाधीश धारा 255 के तहत
श्याम को दोषमुक्त कर सकता है। इस प्रक्रिया में, अदालत यह
भी देखेगी कि क्या इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य (जैसे मोबाइल रिकॉर्डिंग) मौजूद हैं।
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दोषमुक्ति का महत्व
- न्याय का सिद्धांत:
दोषमुक्ति का प्रावधान यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी निर्दोष
व्यक्ति सजा न पाए। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन
और स्वतंत्रता का अधिकार) के अनुरूप है।
- अभियोजन पक्ष की जिम्मेदारी:
यह धाराएं अभियोजन पक्ष पर यह दबाव डालती हैं कि वे ठोस और
विश्वसनीय सबूत पेश करें।
- नागरिक अधिकारों की रक्षा:
दोषमुक्ति का प्रावधान यह सुनिश्चित करता है कि किसी व्यक्ति
को बिना सबूत के जेल में न रखा जाए या सजा न दी जाए।
CrPC और BNSS में बदलाव का उद्देश्य
CrPC
को BNSS से बदलने का मुख्य उद्देश्य आपराधिक
न्याय प्रणाली को और अधिक प्रभावी, पारदर्शी, और समय के अनुकूल बनाना था। BNSS में निम्नलिखित
सुधार किए गए हैं:
- आधुनिक तकनीक का उपयोग:
इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य और E-FIR जैसे
प्रावधान जोड़े गए हैं।
- नागरिक-केंद्रित दृष्टिकोण:
कानून को और अधिक नागरिक-अनुकूल बनाया गया है ताकि आम लोग इसे
समझ सकें।
- कठोर सजा के प्रावधान:
कुछ अपराधों में सजा को और सख्त किया गया है, खासकर महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों में।
- पुराने औपनिवेशिक कानूनों को
हटाना: BNSS ने ब्रिटिश काल के कानूनों को
हटाकर भारतीय मूल्यों और जरूरतों के आधार पर नया ढांचा बनाया है।
निष्कर्ष
CrPC
की धारा 232 और BNSS
की धारा 255 दोनों ही दोषमुक्ति से
संबंधित हैं और यह सुनिश्चित करती हैं कि कोई भी व्यक्ति बिना पर्याप्त सबूत के
सजा न पाए। ये धाराएं भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली की नींव हैं, जो निष्पक्षता और न्याय के सिद्धांतों को बनाए रखती हैं। BNSS ने CrPC को और आधुनिक और नागरिक-केंद्रित बनाया है,
लेकिन दोषमुक्ति का मूल सिद्धांत वही रहा है।
अगर
आपके पास इन धाराओं से संबंधित कोई और सवाल हैं, तो
पूछें। हम इसे और सरल तरीके से समझाने की कोशिश करेंगे!