जब
कोई व्यक्ति किसी आपराधिक मामले में मुकदमे का सामना कर रहा होता है और अभियोजन
पक्ष (प्रॉसिक्यूशन) यह दावा करता है कि उस व्यक्ति को पहले भी किसी अपराध में
दोषी ठहराया जा चुका है, तो ऐसी स्थिति में अदालत की
प्रक्रिया को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 236 और भारतीय नागरिक
सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 259
में स्पष्ट किया गया है।
इन
धाराओं का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अभियुक्त को निष्पक्ष और
न्यायपूर्ण सुनवाई का अधिकार मिले। साथ ही, यह भी
सुनिश्चित किया जाता है कि मुकदमे के दौरान अभियुक्त की पूर्व दोषसिद्धि की
जानकारी से कोर्ट या जूरी के मन में कोई पूर्वाग्रह (बायस) न बने। यह प्रक्रिया
अभियुक्त के हितों की रक्षा करती है और न्याय प्रणाली की निष्पक्षता को बनाए रखती
है।
CrPC 1973 — धारा 236: पूर्व दोषसिद्धि की प्रक्रिया
धारा
236 उन मामलों से संबंधित है, जहाँ अभियोजन पक्ष यह दावा
करता है कि अभियुक्त को पहले भी किसी अपराध में दोषी ठहराया गया है। इस स्थिति में
निम्नलिखित नियम लागू होते हैं:
1. अभियुक्त
का इनकार: अगर अभियुक्त इस आरोप से इनकार करता है
कि उसे पहले दोषी ठहराया गया था, तो अदालत पहले वर्तमान
मामले में उसकी दोषसिद्धि पर फैसला करेगी।
2. दोषसिद्धि
के बाद साक्ष्य: अभियुक्त को धारा 229
(संक्षिप्त विचारण) या धारा 235
(सत्र विचारण) के तहत दोषी ठहराए जाने के
बाद ही, अदालत पूर्व दोषसिद्धि के आरोप से संबंधित साक्ष्य
ग्रहण कर सकती है।
3. मुकदमे
के दौरान नियम:
o पूर्व
दोषसिद्धि का आरोप अभियुक्त को पढ़कर नहीं सुनाया जाएगा।
o अभियुक्त
से इस आरोप पर कोई दलील (प्ली) नहीं मांगी जाएगी।
o अभियोजन
पक्ष या कोई अन्य साक्ष्य प्रस्तुतकर्ता (गवाह) इस पूर्व दोषसिद्धि का उल्लेख नहीं
करेगा।
4. उद्देश्य:
यह प्रावधान इसलिए बनाया गया है ताकि मुकदमे के दौरान अभियुक्त के
खिलाफ कोई अनुचित पूर्वाग्रह न बने और वर्तमान मामले में निष्पक्ष सुनवाई हो सके।
प्रासंगिक
केस लॉ (Case Laws)
1.State of Punjab v. Bhagat Singh (1984)
- प्रकृति:
यह मामला CrPC की धारा 236 के तहत पूर्व दोषसिद्धि के आरोपों की प्रक्रिया से संबंधित है।
- मुख्य
बिंदु: इस मामले में, अभियुक्त
पर एक आपराधिक मामले में मुकदमा चल रहा था, और अभियोजन पक्ष
ने दावा किया कि अभियुक्त को पहले भी एक समान अपराध में दोषी ठहराया गया था।
अभियुक्त ने पूर्व दोषसिद्धि से इनकार किया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब तक
वर्तमान मामले में दोषसिद्धि नहीं हो जाती, तब तक पूर्व
दोषसिद्धि का उल्लेख नहीं किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि यह
प्रक्रिया निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार की रक्षा करती है और पूर्वाग्रह से बचाती है।
- प्रासंगिकता:
यह मामला CrPC की धारा 236 के प्रावधानों को लागू करने का एक उदाहरण है, जो यह
सुनिश्चित करता है कि अभियुक्त की पुरानी सजा का जिक्र मुकदमे के दौरान नहीं किया
जाए।
- प्रकृति:
यह मामला बार-बार अपराध करने वालों (habitual offenders) और पूर्व दोषसिद्धि के दावों से संबंधित है।
- मुख्य
बिंदु: सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कहा कि
पूर्व दोषसिद्धि का साक्ष्य केवल तभी प्रस्तुत किया जा सकता है, जब अभियुक्त को वर्तमान मामले में दोषी ठहराया गया हो। कोर्ट ने यह भी
स्पष्ट किया कि CrPC की धारा 236 का
उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अभियुक्त के खिलाफ कोई अनुचित पूर्वाग्रह न बने।
इस मामले में, अभियोजन पक्ष ने समय से पहले पूर्व दोषसिद्धि
का जिक्र किया, जिसे कोर्ट ने प्रक्रियात्मक त्रुटि माना।
- प्रासंगिकता:
यह मामला CrPC की धारा 236 के प्रक्रियात्मक नियमों के उल्लंघन को दर्शाता है और निष्पक्ष सुनवाई के
महत्व को रेखांकित करता है।
3.Ram Narain v. State of Uttar Pradesh (1973)
- प्रकृति:
यह मामला पूर्व दोषसिद्धि के साक्ष्य प्रस्तुत करने की प्रक्रिया से
संबंधित है।
- मुख्य
बिंदु: सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कहा कि
पूर्व दोषसिद्धि का साक्ष्य केवल CrPC की धारा 236 के तहत निर्धारित प्रक्रिया का पालन करते हुए ही प्रस्तुत किया जा सकता
है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अभियुक्त को पहले वर्तमान मामले में दोषी
ठहराया जाना चाहिए, और उसके बाद ही पूर्व दोषसिद्धि के
साक्ष्य पर विचार किया जा सकता है। इस मामले में, अभियोजन
पक्ष ने गलती से मुकदमे के दौरान पूर्व दोषसिद्धि का जिक्र किया, जिसे कोर्ट ने गंभीर प्रक्रियात्मक त्रुटि माना।
- प्रासंगिकता:
यह मामला पूर्व दोषसिद्धि के साक्ष्य प्रस्तुत करने की प्रक्रिया और
इसके समयबद्ध महत्व को दर्शाता है।
4.Brij
Bhushan v. State of Uttar Pradesh (1957)
- प्रकृति:
यह मामला CrPC के तहत पूर्व दोषसिद्धि के
दावों और सजा के निर्धारण से संबंधित है।
- मुख्य
बिंदु: इस मामले में, कोर्ट
ने कहा कि पूर्व दोषसिद्धि का साक्ष्य सजा को और सख्त करने के लिए महत्वपूर्ण हो
सकता है, लेकिन इसे केवल CrPC की धारा 236
की प्रक्रिया का पालन करते हुए ही प्रस्तुत किया जाना चाहिए। कोर्ट
ने यह भी जोर दिया कि अभियुक्त को निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21
के तहत संरक्षित है, और पूर्व दोषसिद्धि का
समय से पहले उल्लेख इस अधिकार का उल्लंघन हो सकता है।
- प्रासंगिकता:
यह मामला निष्पक्ष सुनवाई और पूर्व दोषसिद्धि के प्रावधानों के बीच
संतुलन को दर्शाता है।
BNSS 2023 — धारा 259: पूर्व दोषसिद्धि की प्रक्रिया
भारतीय
नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 259 में भी पूर्व दोषसिद्धि
से संबंधित प्रक्रिया लगभग वही है, जो CrPC की धारा 236 में है। हालांकि, इसमें
कुछ बदलाव हैं, जो इस प्रकार हैं:
1. प्रक्रिया
में समानता: BNSS में भी यह सुनिश्चित किया गया है
कि जब तक अभियुक्त को वर्तमान मामले में दोषी नहीं ठहराया जाता, तब तक पूर्व दोषसिद्धि का जिक्र नहीं किया जाएगा।
2. दोषसिद्धि
की धाराएँ: BNSS में दोषसिद्धि धारा 252
(संक्षिप्त विचारण) या धारा 258
(सत्र विचारण) के तहत होती है।
3. साक्ष्य
और निष्कर्ष: अभियुक्त को दोषी ठहराए
जाने के बाद ही अदालत पूर्व दोषसिद्धि के आरोप पर साक्ष्य ले सकती है और इस संबंध
में निष्कर्ष दर्ज कर सकती है।
4. पूर्वाग्रह
से बचाव: CrPC की तरह ही, BNSS में भी यह प्रावधान है कि जब तक वर्तमान मामले में दोषसिद्धि नहीं हो जाती,
तब तक अभियोजन पक्ष या कोई अन्य व्यक्ति पूर्व दोषसिद्धि का उल्लेख
नहीं करेगा।
स्पष्टीकरण
(Explanation)
ये
दोनों धाराएँ विशेष रूप से उन मामलों के लिए हैं, जहाँ
अभियोजन पक्ष यह साबित करना चाहता है कि अभियुक्त पहले भी किसी समान या अन्य अपराध
में सजा पा चुका है। इसका उद्देश्य यह हो सकता है कि अभियुक्त को कठोर सजा दी जाए,
क्योंकि बार-बार अपराध करने वाले व्यक्ति को कानून में अधिक गंभीरता
से देखा जाता है।
प्रक्रिया का सार:
- अगर अभियुक्त पूर्व दोषसिद्धि के
आरोप से इनकार करता है, तो पहले वर्तमान
मामले में उसकी दोषसिद्धि का फैसला होगा।
- दोषसिद्धि के बाद ही अदालत पूर्व
दोषसिद्धि के आरोप की पुष्टि के लिए साक्ष्य लेगी।
- यह प्रक्रिया इसलिए अपनाई जाती है
ताकि अभियुक्त की पुरानी सजा की जानकारी से कोर्ट या जूरी के मन में कोई
पक्षपात न हो।
Read also:सत्र न्यायालय में दोषी होने का अभिवचन: CrPC की धारा 229 एवं BNSS की धारा 252 के तहत।
चित्रण
(Illustration)
आइए,
इसे एक उदाहरण से समझते हैं:
1. मामला:
रामू पर किसी व्यक्ति पर हमला करने का आरोप है। अभियोजन पक्ष का
दावा है कि रामू को 5 साल पहले भी इसी तरह के अपराध में सजा
मिल चुकी है।
2. रामू
का इनकार: रामू इस बात से इनकार करता है कि उसे
पहले सजा मिली थी।
3. मुकदमे
की प्रक्रिया:
o अदालत
पहले वर्तमान हमले के मामले में सुनवाई करेगी और यह तय करेगी कि रामू इस मामले में
दोषी है या नहीं।
o अगर
रामू को BNSS की धारा 252 या CrPC की धारा 229 के
तहत दोषी ठहराया जाता है, तो उसके बाद ही अदालत पूर्व
दोषसिद्धि के आरोप पर साक्ष्य लेगी।
4. महत्वपूर्ण
नियम:
जब तक रामू को वर्तमान मामले में दोषी नहीं ठहराया जाता, तब तक अभियोजन पक्ष या कोई गवाह उसकी पुरानी सजा का जिक्र नहीं कर सकता।
इस
तरह,
यह प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि रामू को वर्तमान मामले में
निष्पक्ष सुनवाई मिले और उसकी पुरानी सजा का असर कोर्ट के फैसले पर न पड़े।
महत्व और उद्देश्य
1. निष्पक्षता
की गारंटी: यह
प्रावधान अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा करता है और यह सुनिश्चित करता है कि उसकी
पुरानी सजा की जानकारी से कोर्ट का फैसला प्रभावित न हो।
2. पूर्वाग्रह
से बचाव: पूर्व दोषसिद्धि की जानकारी को मुकदमे के दौरान छिपाकर रखा जाता है,
जिससे जूरी या जज का मन पक्षपातपूर्ण न बने।
3. कानूनी
प्रक्रिया में पारदर्शिता: यह
प्रक्रिया अभियुक्त को यह जानने का मौका देती है कि उस पर कौन-कौन से आरोप हैं और
वह उनका जवाब दे सकता है।
4. सजा
में उचितता: यदि पूर्व
दोषसिद्धि सिद्ध हो जाती है, तो यह सजा को और सख्त करने में
मदद करता है, क्योंकि बार-बार अपराध करने वालों को कानून में
अधिक गंभीरता से देखा जाता है।
निष्कर्ष
CrPC
की धारा 236 और BNSS
की धारा 259 दोनों ही यह सुनिश्चित करती
हैं कि अभियुक्त को निष्पक्ष सुनवाई का मौका मिले। पूर्व दोषसिद्धि का आरोप एक
गंभीर मामला है, क्योंकि यह सजा को प्रभावित कर सकता है।
इसलिए, इन धाराओं के तहत यह सुनिश्चित किया जाता है कि इस
आरोप की जानकारी तब तक सामने न आए, जब तक वर्तमान मामले में
दोषसिद्धि न हो जाए। यह प्रक्रिया न केवल अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा करती है,
बल्कि भारतीय न्याय प्रणाली की निष्पक्षता और पारदर्शिता को भी बनाए
रखती है।