16 जून 2025
जम्मू
और कश्मीर उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि यौन कृत्य
के मेडिकल साक्ष्य होने के बावजूद, यदि आरोपी
से कोई सीधा संबंध स्थापित नहीं होता, तो यह बलात्कार या यौन
उत्पीड़न का अपराध सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है। यह मामला एक 14 वर्षीय लड़की और उसकी नाबालिग सहेली से जुड़ा है, जिनके
अपहरण और यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया गया था। आइए इस मामले को सरल भाषा में
विस्तार से समझते हैं।
मामले की शुरुआत
यह
मामला तब शुरू हुआ जब एक 14 वर्षीय लड़की के पिता ने
पुलिस में शिकायत (एफआईआर) दर्ज की कि उनकी बेटी और उसकी नाबालिग सहेली लापता हैं।
बाद में आरोप लगाया गया कि दोनों लड़कियों का अपहरण किया गया और उनका यौन उत्पीड़न
हुआ। पुलिस ने जांच के बाद याचिकाकर्ता (आरोपी) के खिलाफ भारतीय दंड संहिता
(आईपीसी) की धारा 363 (अपहरण), धारा 376
(बलात्कार), और पोक्सो अधिनियम की धारा 4
(नाबालिगों के खिलाफ यौन अपराध) के तहत मामला दर्ज किया। आरोप था कि
याचिकाकर्ता ने लड़कियों को अपने वाहन में फुसलाकर ले गया और अपराध किया।
मेडिकल जांच और साक्ष्य
लड़कियों
की मेडिकल जांच में पुष्टि हुई कि उनके साथ यौन संबंध बनाए गए थे। हालांकि,
जम्मू-कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय ने माना कि मेडिकल साक्ष्य के
बावजूद, याचिकाकर्ता को इस अपराध से जोड़ने वाला कोई ठोस
सबूत नहीं था। न तो प्रत्यक्ष साक्ष्य थे और न ही परिस्थितिजन्य साक्ष्य, जो याचिकाकर्ता को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त हों।
पीड़ितों के बयान
न्यायमूर्ति
संजय धर ने दोनों नाबालिग लड़कियों के बयानों की जांच की,
जो आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 164 के तहत दर्ज किए गए थे। लड़कियों ने स्पष्ट कहा कि वे अपनी मर्जी से घर से
निकली थीं और याचिकाकर्ता से केवल इसलिए लिफ्ट ली थी क्योंकि उस समय कोई दूसरा
परिवहन साधन उपलब्ध नहीं था। उन्होंने याचिकाकर्ता पर किसी भी तरह का दबाव,
प्रलोभन, या यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने से
इनकार किया। यह बयान अभियोजन पक्ष के अपहरण और यौन उत्पीड़न के दावों के खिलाफ था।
परिवार के बयान
लड़कियों
के परिवार वालों ने भी अपहरण के दावे का समर्थन नहीं किया। उन्होंने कहा कि
लड़कियाँ अपनी इच्छा से घर से गई थीं। कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता ने लड़कियों
को ले जाने के लिए न तो बल का इस्तेमाल किया और न ही कोई धोखा दिया।
वैज्ञानिक और फोरेंसिक साक्ष्य का अभाव
न्यायमूर्ति
धर ने इस बात पर जोर दिया कि कोई भी वैज्ञानिक या फोरेंसिक साक्ष्य,
जैसे डीएनए, शुक्राणु, या
अन्य सबूत, नहीं मिला जो याचिकाकर्ता को यौन उत्पीड़न से
जोड़ता हो। मेडिकल जांच में यौन संबंध की पुष्टि होने के बावजूद, यह साबित नहीं हुआ कि याचिकाकर्ता ने यह अपराध किया। न तो किसी गवाह ने
याचिकाकर्ता को लड़कियों के साथ देखा और न ही पीड़ितों ने अपने बयानों में उसे
दोषी ठहराया।
निचली अदालत की आलोचना
हाईकोर्ट
ने पोक्सो कोर्ट के विशेष जज की आलोचना की, जिन्होंने
साक्ष्यों का ठीक से मूल्यांकन किए बिना ही याचिकाकर्ता पर आरोप तय कर दिए।
न्यायमूर्ति धर ने कहा कि निचली अदालत ने अभियोजन पक्ष के लिए "डाकघर"
की तरह काम किया, बिना यह जांचे कि क्या कोई गंभीर संदेह था
जो ठोस साक्ष्यों पर आधारित हो।
कानूनी सिद्धांत
उच्च
न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के कई महत्वपूर्ण फैसलों, जैसे
यूनियन ऑफ इंडिया बनाम प्रफुल्ल कुमार सामल, दिलावर
बालू कुराने, और सज्जन कुमार बनाम सीबीआई का
हवाला दिया। इन फैसलों में यह सिद्धांत स्थापित किया गया है कि आरोप तभी तय किए
जाने चाहिए जब सबूतों से प्रथम दृष्टया गंभीर संदेह पैदा हो। केवल संदेह या
संभावना के आधार पर मुकदमा आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।
कोर्ट का अंतिम फैसला
अंत
में,
उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन के साक्ष्य, भले ही उन्हें चुनौती न दी गई हो, याचिकाकर्ता के
खिलाफ कोई गंभीर संदेह पैदा नहीं करते। कोई भी संदेह नहीं था जो यह साबित करता कि
याचिकाकर्ता ने अपराध किया। कोर्ट ने सभी आरोपों को खारिज कर दिए और याचिकाकर्ता
को बरी कर दिया।
याचिकाकर्ता और प्रतिवादी
यह
मामला बासित बशीर बनाम जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश के नाम से दर्ज
है। यह फैसला कानूनी प्रणाली में साक्ष्यों की महत्ता और निष्पक्ष सुनवाई के महत्व
को रेखांकित करता है।
फैसले का व्यापक प्रभाव
यह
फैसला न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि
यह समाज में यौन अपराधों से जुड़े मामलों को देखने के तरीके को भी प्रभावित करता
है। यह हमें याद दिलाता है कि किसी भी व्यक्ति को केवल संदेह के आधार पर दोषी
ठहराना गलत है। ठोस साक्ष्य और निष्पक्ष जांच के बिना, निर्दोष
लोग भी कानूनी कार्रवाई का शिकार हो सकते हैं। यह फैसला पुलिस और निचली अदालतों को
भी सतर्क करता है कि वे साक्ष्यों का गहन विश्लेषण करें और जल्दबाजी में फैसले न
लें।
समाज पर प्रभाव और जागरूकता
इस
तरह के फैसले समाज में जागरूकता बढ़ाने का काम करते हैं। यह हमें यह समझने में मदद
करता है कि यौन अपराधों के मामलों में पीड़ितों की आवाज को सुनना और उनकी बातों को
गंभीरता से लेना जरूरी है, लेकिन साथ ही यह भी
सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई निर्दोष व्यक्ति सजा का शिकार न हो। माता-पिता को भी
चाहिए कि वे अपने बच्चों के साथ खुलकर बात करें और उन्हें सुरक्षित रहने के बारे
में शिक्षित करें। साथ ही, समाज को ऐसी मानसिकता से बचना
चाहिए जो बिना पूरी जानकारी के किसी को दोषी मान ले।
कानून और साक्ष्यों की भूमिका
यह
मामला दर्शाता है कि कानून में साक्ष्यों की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
चाहे मेडिकल जांच हो, फोरेंसिक सबूत हों, या गवाहों के बयान, हर पहलू को ध्यान से जांचा जाना
चाहिए। यह फैसला पोक्सो अधिनियम जैसे संवेदनशील कानूनों के सही इस्तेमाल पर भी
सवाल उठाता है। यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि ऐसे कानूनों का दुरुपयोग न हो और वे
केवल सही मामलों में लागू हों।
निष्कर्ष और आह्वान
जम्मू
और कश्मीर उच्च न्यायालय का यह फैसला एक मजबूत संदेश देता है कि केवल मेडिकल
साक्ष्य या संदेह के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। अपराध को साबित
करने के लिए ठोस और प्रत्यक्ष साक्ष्य जरूरी हैं। यह मामला कानूनी प्रक्रिया में
निष्पक्षता और सावधानी की आवश्यकता को भी दर्शाता है,
ताकि निर्दोष लोगों को गलत तरीके से सजा न मिले।
हम
सभी को इस फैसले से सीख लेनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमारा समाज
निष्पक्षता और सच के साथ खड़ा हो। क्या आप भी मानते हैं कि कानूनी प्रक्रिया में
साक्ष्यों की जांच को और मजबूत करना चाहिए? अपनी राय
हमारे साथ साझा करें!
केस विवरण
बासित बशीर बनाम जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश