25 अप्रैल 2025
दिल्ली हाई कोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाते हुए कहा कि जेल में बंद
कोई भी अपराधी ‘गुलाम’ नहीं है। अदालत ने अपहरण कर हत्या व फिरौती के मामले में उम्रकैद की
सजा काट रहे एक कैदी को चार हफ्ते की पैरोल (अस्थायी रिहाई) देने का आदेश दिया।
20 साल से ज्यादा जेल में है बंद
यह सजायाफ्ता कैदी पिछले 20 साल से ज्यादा समय से जेल में है। हाई कोर्ट ने कहा कि सिर्फ इसलिए कि कोई व्यक्ति जेल में है, उसका मौलिक अधिकार छीना नहीं जा सकता।जज साहब का बयान
जस्टिस नीना बंसल कृष्णा ने अपने फैसले में कहा,‘‘अब समय आ
गया है कि जेल प्रशासन ऐसे मामलों में संवेदनशीलता दिखाए। कैदियों के साथ भी
इंसानों जैसा व्यवहार होना चाहिए।’’
कैदी ने मांगी थी पैरोल
कैदी ने हाई कोर्ट में अर्जी देकर चार हफ्ते की पैरोल मांगी थी। उसने कहा था कि उसे अपने परिवार और सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाने के लिए यह छुट्टी चाहिए। कोर्ट ने यह भी ध्यान दिया कि साल 2022 में उसने जेल में आत्महत्या की कोशिश की थी।अदालत की टिप्पणी
अदालत ने जेल अधिकारियों को भी नसीहत दी कि ऐसे मामलों को सिर्फ औपचारिक रूप से न निपटाएं, बल्कि कैदी की स्थिति और उसके आवेदन में दिए गए कारणों की ठीक से जांच करें।हाई कोर्ट ने कैदी
को चार हफ्ते के लिए पैरोल पर रिहा करने का आदेश दिया। कोर्ट ने कहा कि हर कैदी के
भी मौलिक मानवाधिकार होते हैं, और जेल में रहना
गुलामी नहीं है।
कानूनी पक्ष
मौलिक अधिकार (Fundamental
Rights) जेल में भी मिलते हैं
भारतीय
संविधान हर नागरिक को कुछ मौलिक अधिकार देता है। जैसे — जीवन का अधिकार (Right
to Life), सम्मान के साथ जीने का अधिकार, और
मानव गरिमा का अधिकार।
अनुच्छेद 21 (Article 21) के तहत कहा
गया है कि किसी भी व्यक्ति को उसकी ज़िंदगी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से बिना
कानूनन वजह के वंचित नहीं किया जा सकता।
मतलब — भले ही कोई
कैदी हो,
वह पूरी तरह से इन अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता।
पैरोल क्या होती है?
पैरोल एक अस्थायी छुट्टी होती है,
जो जेल में बंद कैदी को कुछ दिनों या हफ्तों के लिए दी जाती है।
इसका मकसद होता है कि कैदी अपने परिवार की ज़रूरतों, शादी-ब्याह,
बीमारी या किसी सामाजिक जिम्मेदारी में शामिल हो सके।
- दिल्ली पैरोल नियम,
2022
और जेल अधिनियम, 1894 के तहत
कैदी पैरोल की अर्जी दे सकता है।
अदालत ने क्या कहा?
दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि कैदी चाहे कितनी भी सख्त सजा काट रहा हो,
उसे ‘गुलाम’ जैसा नहीं समझा जा सकता।
- कैदी ने 20 साल जेल में बिताए हैं।
- 2022 में आत्महत्या की कोशिश भी की थी।
- गरीब है और अपने पारिवारिक जिम्मेदारियों के लिए छुट्टी चाहता है।
कोर्ट ने कहा कि जेल
अधिकारियों को भी संवेदनशीलता के साथ ऐसे मामलों को देखना चाहिए और अर्जी को
औपचारिक तरीके से न निपटाकर, उसमें बताए गए कारणों
की गंभीरता से जांच करनी चाहिए।
क्यों ज़रूरी है ये
फैसला?
- ये फैसला याद दिलाता है कि क़ानून
का मकसद सिर्फ सज़ा देना नहीं, बल्कि
मानव गरिमा बनाए रखना भी है।
- जेल भी सुधार गृह है,
न कि गुलामी की जगह।
- कैदियों को भी इंसान समझना और
उनके ज़रूरी हक देना न्याय का हिस्सा है।
दिल्ली हाई कोर्ट
ने संविधान के अनुच्छेद 21 और मौलिक मानवाधिकारों का हवाला देते हुए कैदी को पैरोल दी और जेल प्रशासन
को सख्त हिदायत दी कि वो कैदियों की संवेदनाओं और अधिकारों का भी ध्यान रखें।