11-04-2025
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में आर्थिक अपराध मामले में शामिल अभियुक्तों को दी गई अग्रिम जमानत रद्द कर दी है। न्यायालय ने कहा कि जो व्यक्ति गिरफ़्तारी से बचते हैं, अदालती आदेशों में बाधा डालते हैं, या कानूनी कार्यवाही के लिए उपस्थित नहीं होते हैं, उन्हें अग्रिम ज़मानत नहीं दी जानी चाहिए, खासकर तब जब वे आर्थिक धोखाधड़ी जैसे गंभीर अपराधों में शामिल हों।
कानूनी कार्यवाही में बाधा डालने पर न्यायालय का रुख
सुप्रीम
कोर्ट ने अपने फैसले में दोहराया कि जो व्यक्ति वारंट के निष्पादन में बाधा डालता
है या चार्जशीट दाखिल होने या समन जारी होने के बाद अदालत में पेश होने से बचता है,
उसे अग्रिम जमानत नहीं मिलनी चाहिए। कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि
जब कोई आरोपी गंभीर आर्थिक अपराध या जघन्य अपराधों में शामिल होता है ,
तो उसे कानून की उचित प्रक्रिया का पालन करना चाहिए। अगर वे कानूनी
कार्यवाही से बचने का प्रयास करते हैं, तो उन्हें अग्रिम
जमानत नहीं दी जानी चाहिए।
न्यायालय
ने यह टिप्पणी आदर्श समूह आर्थिक धोखाधड़ी में आरोपी आदित्य सारदा और अन्य
के मामले पर विचार करते हुए की, जो अपने खिलाफ जारी
वारंट से बच रहे थे। विशेष न्यायालय द्वारा जमानती वारंट जारी किए जाने के बाद ये
व्यक्ति फरार हो गए थे , उसके बाद गैर-जमानती वारंट और
उद्घोषणा कार्यवाही की गई ।
आर्थिक अपराध की पृष्ठभूमि
इस
मामले में आरोप आदर्श क्रेडिट कोऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड (एसीसीएसएल) से
जुड़े आर्थिक अपराधों की एक श्रृंखला में निहित हैं ,
जिसने अपनी खुद की कंपनियों के समूह को 1700 करोड़ रुपये के अवैध ऋण वितरित किए। ये ऋण जाली
दस्तावेजों के माध्यम से प्राप्त किए गए थे, जो कंपनी
अधिनियम, 1956 और 2013 के
तहत नियामक मानदंडों का उल्लंघन करते हैं । कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय ने गंभीर
धोखाधड़ी जांच कार्यालय (एसएफआईओ) को मामले की जांच करने का निर्देश दिया
था , और आरोपियों पर कंपनी अधिनियम की धारा 447 के उल्लंघन सहित विभिन्न अपराधों के आरोप लगाए गए थे ।
सर्वोच्च
न्यायालय द्वारा जमानत रद्द करना
सुप्रीम
कोर्ट ने पाया कि आरोपी बार-बार कोर्ट में पेश होने से बचते रहे और कानूनी
प्रक्रियाओं में बाधा डालते रहे। 2022 में
विशेष अदालत ने उनकी अग्रिम जमानत याचिका खारिज कर
दी ,
लेकिन 2023 में पंजाब और हरियाणा उच्च
न्यायालय ने उन्हें जमानत दे दी। सुप्रीम कोर्ट ने पाया
कि उच्च न्यायालय का निर्णय गलत था, क्योंकि यह कंपनी
अधिनियम की धारा 212(6) में उल्लिखित अनिवार्य
शर्तों पर विचार करने में विफल रहा , जो आर्थिक अपराधों के
लिए जमानत शर्तों को नियंत्रित करती है।
न्यायालय
ने इस बात पर जोर दिया कि अग्रिम जमानत एक अपवाद है ,
नियम नहीं, खासकर तब जब अभियुक्तों ने
गिरफ्तारी और अदालती कार्यवाही से बचने का पैटर्न दिखाया हो। न्यायालय ने माना कि
अभियुक्तों की हरकतें न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप करने के बराबर हैं , और इसलिए, उच्च न्यायालय के जमानत आदेश अस्थिर हैं ।
कानून के शासन पर जोर
सुप्रीम
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि समाज में कानून का शासन कायम रहना चाहिए और किसी को भी
कानूनी प्रक्रिया को बाधित करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। इसने इस बात पर
प्रकाश डाला कि सभी अदालतों का न्यायिक समय, चाहे वह
मजिस्ट्रेट हो, हाई कोर्ट हो या सुप्रीम कोर्ट , कीमती है और इसे कार्यवाही में देरी करने के आरोपी के प्रयासों में बर्बाद
नहीं किया जाना चाहिए।
न्यायालय
ने यह भी कहा कि आरोपी गंभीर आर्थिक धोखाधड़ी में शामिल है ,
इसलिए उसे मामले को आगे बढ़ाने के लिए निचली अदालत के साथ सहयोग
करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। इस मामले में कानूनी कार्यवाही के लिए उपस्थित
न होना न्याय प्रशासन में बाधा डालता है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विश्लेषण
अग्रिम जमानत का उद्देश्य और सीमा
अग्रिम
जमानत का उद्देश्य व्यक्ति को गिरफ्तारी की आशंका से अस्थायी सुरक्षा देना है।
लेकिन यह अधिकार पूर्ण नहीं है – यह
न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है।
इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि:
“अग्रिम जमानत का लाभ उन्हीं को मिल सकता है, जो
कानून का सम्मान करते हैं और जांच में सहयोग करते हैं।”
जो
आरोपी जानबूझकर गिरफ्तारी से बचते हैं और अदालत की कार्यवाही में बाधा डालते हैं,
वे इस सुविधा के योग्य नहीं माने जा सकते।
विधिक प्रक्रिया का पालन अनिवार्य
कोर्ट
ने साफ शब्दों में कहा कि यदि कोई व्यक्ति गिरफ्तारी वारंट या कोर्ट
के समन के बावजूद अदालत में उपस्थित नहीं होता,
तो उसे अग्रिम जमानत का अधिकार नहीं दिया जा सकता।
यह
विचार कानून के शासन (Rule of Law) की भावना से जुड़ा है। अगर आरोपी खुद को कानून से ऊपर समझे और न्यायिक
प्रक्रिया से बचने की कोशिश करे, तो समाज में न्याय व्यवस्था
कमजोर होगी।
उच्च न्यायालय की गलती और सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप
इस
केस में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने आरोपी को अग्रिम जमानत दे दी थी,
जबकि कंपनी अधिनियम की धारा 212(6) के तहत सख्त शर्तें होती हैं।
सुप्रीम
कोर्ट ने माना कि हाईकोर्ट ने इन शर्तों को नजरअंदाज किया,
जो न्यायिक चूक है। इसलिए, सुप्रीम कोर्ट को
हस्तक्षेप करना पड़ा।
न्यायपालिका की गरिमा और समय की रक्षा
सुप्रीम
कोर्ट ने कहा कि अदालतों का समय बेशकीमती है, और किसी
आरोपी को यह छूट नहीं दी जा सकती कि वह कार्यवाही को जानबूझकर लटकाए या टाले।
यह
टिप्पणी भारतीय न्याय प्रणाली के कामकाज में पारदर्शिता और समयबद्धता लाने की दिशा
में महत्वपूर्ण है।
समाज के लिए संदेश
यह
निर्णय उन लोगों को सीधा संदेश देता है जो आर्थिक अपराधों में लिप्त होते हैं और
फिर न्यायालय से आंख-मिचौली खेलते हैं।
यह
स्पष्ट करता है कि:
"जो कानून की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश करेंगे, उन्हें
राहत नहीं मिलेगी।"
साथ
ही यह भी संकेत देता है कि सुप्रीम कोर्ट गंभीर अपराधों में लिप्त आरोपियों को
सिर्फ तकनीकी आधार पर राहत नहीं देना चाहता।
केस विवरण
केस संख्या : विशेष अनुमति याचिका (आपराधिक) संख्या 13956
याचिकाकर्ता बनाम प्रतिवादी : गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय बनाम आदित्य सारदा