11 अप्रैल 2025
गंगा नदी के
किनारों पर बढ़ते अतिक्रमण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और बिहार
राज्य से जवाब तलब किया है। कोर्ट ने यह जानना चाहा है कि अब तक किन-किन कदमों से
अवैध निर्माण हटाने की कोशिश की गई है और इस समय कितने अतिक्रमण मौजूद हैं।
क्या है मामला?
यह मामला पटना
निवासी अशोक कुमार सिन्हा की याचिका से जुड़ा है, जो
उन्होंने राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) के 30
जून 2020 के उस आदेश के खिलाफ दाखिल की थी,
जिसमें गंगा के बाढ़ क्षेत्र में अवैध निर्माण पर की गई उनकी अपील
खारिज कर दी गई थी।
याचिकाकर्ता के वकील आकाश वशिष्ठ ने अदालत को बताया कि:
- गंगा के बाढ़ के मैदानों में बड़े स्तर पर अवैध कब्जे हो रहे हैं—जिनमें घरों की बस्तियां, ईंट-भट्टे और धार्मिक ढांचे शामिल हैं। ये सब कानून के खिलाफ बनाए गए हैं और गंगा के पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान पहुंचा रहे हैं।
- ये निर्माण Environment
Protection Act, 1986, और Water
(Prevention and Control of Pollution) Act, 1974 का
उल्लंघन करते हैं।
- कई निर्माण गंगा एक्शन प्लान (GAP)
और Namami Gange Mission के
उद्देश्यों को भी बाधित कर रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने
क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट की
पीठ—जिसमें न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति के. वी. विश्वनाथन
शामिल हैं—ने कहा कि गंगा तटों पर भारी अतिक्रमण चिंता का विषय है और इन्हें
हटाने के लिए सरकारों ने अब तक क्या किया है, यह जानना
जरूरी है।
कोर्ट ने यह भी
जानना चाहा कि आज की तारीख में कितने अतिक्रमण अभी भी मौजूद हैं और उन्हें हटाने
की क्या योजना है। कोर्ट ने कहा कि गंगा के कुछ हिस्से मीठे पानी की डॉल्फिन जैसी
दुर्लभ प्रजातियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, और
अतिक्रमण इनके आवास को खतरे में डाल रहा है।
कोर्ट ने साफ किया कि:
- मौजूदा अतिक्रमणों की संख्या क्या
है,
यह स्पष्ट किया जाए।
- अवैध निर्माण हटाने के लिए क्या
योजना बनाई गई है, उसकी स्थिति रिपोर्ट
दाखिल की जाए।
- अतिक्रमण हटाने की प्रक्रिया
कितनी प्रभावी रही, इसका मूल्यांकन भी पेश
किया जाए।
पहले क्या हुआ था?
2 अप्रैल 2025
को कोर्ट ने बिहार राज्य और भारत सरकार को निर्देश दिया था कि वे
गंगा तटों से अतिक्रमण हटाने पर "सही और स्पष्ट
स्थिति रिपोर्ट" जमा करें, ताकि अदालत इस
मुद्दे पर ठोस निर्णय ले सके।
पर्यावरणीय चिंता और जैव विविधता
गंगा नदी ताजे
पानी की डॉल्फिन (Gangetic Dolphin) का प्राकृतिक आवास है, जो राष्ट्रीय जलजीव भी
है। यदि तटों पर अतिक्रमण और अवैध निर्माण नहीं रोके गए, तो
इनका अस्तित्व खतरे में आ सकता है।
वर्ल्ड वाइल्डलाइफ
फंड (WWF)
की रिपोर्ट के अनुसार, गंगा डॉल्फिन की
जनसंख्या में पिछले 20 वर्षों में 50% से अधिक गिरावट आई है।
आगे क्या?
सुप्रीम कोर्ट ने
चार हफ्तों के भीतर सरकारों से विस्तृत रिपोर्ट मांगी है और उसके बाद इस मामले की
अगली सुनवाई होगी। यह रिपोर्ट यह स्पष्ट करेगी कि गंगा की पवित्रता और
पारिस्थितिकी को बचाने के लिए अब तक क्या ठोस कदम उठाए गए हैं।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का
यह निर्देश न केवल पर्यावरणीय सरोकार का प्रतिबिंब है,
बल्कि यह संविधान के अनुच्छेद 48-ए (राज्य का
पर्यावरण संरक्षण का कर्तव्य) और अनुच्छेद 51-ए (नागरिकों का
कर्तव्य) की व्यावहारिक व्याख्या भी प्रस्तुत करता है। यह मामला भारत के
पर्यावरणीय कानूनों—जैसे Environment Protection Act, 1986, Water
(Prevention and Control of Pollution) Act, 1974, और NGT
Act, 2010—की प्रभावशीलता की भी परीक्षा है।
सर्वोच्च न्यायालय
ने यह संकेत दिया है कि यदि प्रशासन निष्क्रिय रहा, तो
न्यायपालिका “parens patriae” (लोकहित में अभिभावक की
भूमिका) सिद्धांत के तहत सीधे हस्तक्षेप करने में संकोच नहीं करेगी। अदालत द्वारा
स्थिति रिपोर्ट की मांग एक “continuing mandamus” की
ओर संकेत करती है—जिसके तहत वह समय-समय पर निगरानी करते हुए आदेश देती रहती है।
साथ ही,
यह आदेश doctrine of public trust की
पुष्टि करता है, जिसके अनुसार नदियां, जलस्रोत,
वनों जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर जनता का सामूहिक अधिकार है,
और राज्य इनका केवल ट्रस्टी (संरक्षक) है। अतिक्रमण को हटाना केवल
वैधानिक कर्तव्य नहीं, बल्कि ट्रस्टी के रूप में राज्य की
नैतिक और संवैधानिक जिम्मेदारी भी है।
कुल मिलाकर,
यह निर्देश भारतीय न्यायपालिका की उस परंपरा को आगे बढ़ाता है,
जिसमें पर्यावरणीय अधिकारों को जीवन के मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 21)
के अभिन्न अंग के रूप में मान्यता दी गई है। आने वाली सुनवाई में
यदि सरकारें संतोषजनक उत्तर नहीं देतीं, तो यह मामला एक
उदाहरण बन सकता है, जहाँ न्यायालय सीधे कार्यान्वयन का आदेश
दे सकती है।