11 अप्रैल 2025:
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक अनोखे मामले में बड़ा फैसला सुनाया है।
कोर्ट ने कहा कि अगर कोई महिला और पुरुष वयस्क हैं, तो
चाहे उनकी शादी न हुई हो, वे लिव-इन रिलेशनशिप में
साथ रह सकते हैं। यह उनका संवैधानिक अधिकार है और पुलिस को उनकी सुरक्षा
सुनिश्चित करनी चाहिए।
इस फैसले की खास
बात यह रही कि यह अर्जी एक साल चार महीने के बच्चे की ओर से दायर की गई थी।
उसने कोर्ट से कहा कि उसकी मां और पिता साथ रह रहे हैं,
और वह इसी रिश्ते से जन्मा है, इसलिए उनके साथ
रहने का अधिकार मिलना चाहिए।
कोर्ट ने क्या कहा?
जस्टिस शेखर सर्राफ
और जस्टिस विपिन चंद्र दीक्षित की खंडपीठ ने कहा:
“संविधान के
अनुसार, दो वयस्क चाहे शादीशुदा हों या नहीं, अगर वे साथ रहना चाहते हैं तो यह उनका अधिकार है। उन्हें परेशान नहीं किया
जाना चाहिए।”
मामला क्या था?
- महिला और पुरुष अलग-अलग धर्म
से ताल्लुक रखते हैं।
- महिला के पहले पति की मृत्यु
हो चुकी है।
- 2018 से दोनों एक साथ रह
रहे हैं और बच्चे का जन्म इसी रिश्ते से हुआ।
- बच्चे की तरफ से
याचिका दायर कर कहा गया कि "मेरे लिए मां-बाप का साथ रहना जरूरी
है।"
पुलिस पर सवाल और कोर्ट का निर्देश
याचिका में कहा गया
कि महिला और युवक को परिवार वालों की ओर से धमकियाँ मिल रही हैं। उन्हें कई
बार पीटने की कोशिश भी हुई, लेकिन
पुलिस ने अब तक FIR दर्ज नहीं की।
इस पर कोर्ट ने संभल
के एसपी को निर्देश दिया कि:
- मामले में FIR
दर्ज करें।
- महिला,
पुरुष और उनके बच्चे को सुरक्षा प्रदान करें।
- धमकी देने वालों के खिलाफ कानूनी
कार्रवाई करें।
क्या है लिव-इन की
कानूनी स्थिति?
भारत में लिव-इन
रिलेशनशिप को सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्ट पहले भी मान्यता दे चुके हैं,
लेकिन इस मामले की खास बात है कि इसमें बच्चे की ओर से याचिका
दायर की गई, जिससे यह केस एक मानवीय दृष्टिकोण से और
भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
निष्कर्ष:
यह फैसला केवल
महिला और पुरुष के साथ रहने (Live-in Relationship) के
अधिकार को संवैधानिक मान्यता देकर सशक्त नहीं करता, बल्कि
इससे कहीं अधिक गहराई तक सामाजिक और संवैधानिक मूल्यों की पुष्टि करता है। यह
निर्णय इस बात का प्रतीक है कि भारतीय न्याय व्यवस्था अब केवल पारंपरिक विवाह
संस्था तक सीमित न रहकर, आधुनिक समाज में विकसित हो रहे
मानवीय रिश्तों को भी संवेदनशीलता और यथार्थ के साथ स्वीकार कर रही है।
यह फैसला दर्शाता
है कि व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार
(Article 21) की व्याख्या अब केवल विवाह के दायरे तक नहीं की जा रही,
बल्कि इसमें भावनात्मक जुड़ाव, सम्मानजनक
सह-अस्तित्व और स्वतंत्र जीवनशैली को भी सम्मिलित किया गया है। न्यायपालिका यह समझ
रही है कि सामाजिक बदलावों के साथ कानूनों की व्याख्या भी बदलनी चाहिए, ताकि कानून सिर्फ किताबों में न रहकर, लोगों के जीवन
में व्यावहारिक रूप से न्याय और समानता ला सके।
साथ ही,
यह फैसला सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती देता है और यह संदेश देता है
कि हर व्यक्ति को अपने जीवनसाथी का चुनाव करने और उसके साथ बिना विवाह के भी रहने
का अधिकार है, बशर्ते वह सहमति से हो और किसी की गरिमा या
कानून का उल्लंघन न करता हो।
अतः यह निर्णय
भारतीय समाज में प्रगतिशील सोच और संवैधानिक नैतिकता की दिशा में एक
महत्वपूर्ण कदम है, जो यह सिद्ध करता है कि
न्यायालय केवल कानून की व्याख्या नहीं करता, बल्कि वह समाज
की बदलती मानसिकता और मूल्यों का मार्गदर्शन भी करता है।