हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल और राष्ट्रपति को लेकर एक अहम फैसला
दिया,
जिसमें कहा गया कि वे किसी विधेयक (Bill)
को मंजूरी देने या अस्वीकार करने में देर न करें। लेकिन
सरकार ने इस पर आपत्ति जताई और कहा कि सुप्रीम कोर्ट को ऐसी समयसीमा तय करने का
अधिकार नहीं है।
तो क्या सुप्रीम कोर्ट अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जा रहा है?
आइए समझते हैं इस मुद्दे को।
अदालत का काम –
न्याय करना या कानून बनाना?
भारतीय संविधान
ने देश की शासन व्यवस्था को तीन प्रमुख स्तंभों में बांटा है:
1. विधायिका
(Law
Making) – कानून बनाना, जैसे
संसद और राज्य विधानसभाएँ।
2. कार्यपालिका
(Execution)
– कानूनों को लागू करना, जैसे सरकार और
प्रशासन।
3. न्यायपालिका
(Judiciary)
– कानून के अनुसार न्याय करना, जैसे सुप्रीम
कोर्ट, हाई कोर्ट और निचली अदालतें।
अदालत की भूमिका
क्या है?
अदालतों का मुख्य
कार्य न्याय देना है, न कि कानून बनाना।
जब सुप्रीम कोर्ट कोई समय-सीमा तय करता है या कार्यपालिका के अधिकार
क्षेत्र में सीधे हस्तक्षेप करता है, तो सवाल उठता है कि –क्या
यह संसद के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं है?
संविधान क्या कहता
है?
- अनुच्छेद 50
न्यायपालिका को कार्यपालिका से स्वतंत्र रखने की बात करता है।
- अनुच्छेद 245
और 246 विधायिका
को कानून बनाने का विशेष अधिकार देता है।
- केशवानंद भारती केस (1973)
के अनुसार सुप्रीम कोर्ट खुद यह कह चुका है कि वह संविधान
को संशोधित नहीं कर सकता, केवल उसकी व्याख्या कर
सकता है।
क्यों जरूरी है
सीमाएं?
अगर अदालतें खुद ही
कानून बनाना शुरू कर दें और कार्यपालिका की भूमिका निभाएं,
तो तीनों स्तंभों के बीच संतुलन बिगड़ सकता है, जो लोकतंत्र के लिए खतरा बन सकता है।
अदालतों को अपने सीमित
किन्तु महत्वपूर्ण दायरे में रहते हुए न्याय करना चाहिए। कानून बनाना संसद का
काम है।
लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जब हर संस्थान अपनी-अपनी सीमाओं का
पालन करे।
सरकार की दलीलें क्या थीं?
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर चार मुख्य आपत्तियाँ जताईं:
1️. सुप्रीम कोर्ट संविधान संशोधन नहीं कर सकता
- केशवानंद
भारती केस के अनुसार, अदालत संविधान की
बुनियादी
संरचना की रक्षा तो कर सकती है,
लेकिन
संशोधन या नया
कानून नहीं बना सकती।
- इसलिए
राष्ट्रपति या राज्यपाल की समयसीमा तय करना संसद का काम है।
2️. संविधान पीठ की आवश्यकता थी
- ऐसे
संवैधानिक मामलों की सुनवाई 5
जजों की पीठ (Constitution
Bench) में होनी चाहिए, जबकि इस मामले में
सिर्फ 2
जजों ने फैसला
दिया।
3️. विदेशी उदाहरणों का अति प्रयोग
- अदालत ने
अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, पाकिस्तान जैसे देशों का उदाहरण दिया,
जो
भारतीय
व्यवस्था से मेल नहीं खाते।
4️. न्यायपालिका की सीमाएं
- जजों को
सरकार की गलतियों को सुधारने का अधिकार है, लेकिन अगर जज खुद संविधान की सीमा लांघने लगें,
तो यह
लोकतंत्र के
लिए खतरे की बात है।
क्या हर पक्ष की
सुनवाई ज़रूरी है?
हाँ,
बिल्कुल ज़रूरी है।
न्याय का सबसे बुनियादी और पवित्र सिद्धांत यही है कि 'Audi
alteram partem' यानी "दूसरे पक्ष
को भी सुना जाए"। अगर कोई अदालत सिर्फ एक पक्ष की
बात सुनकर फैसला देती है, तो वह न्यायिक प्रक्रिया की मूल
भावना के खिलाफ होता है।
एकतरफा फैसला क्यों
खतरनाक होता है?
- इससे निर्दोष को सज़ा मिल सकती
है।
- फैसले पर लोगों का विश्वास नहीं
रहेगा।
- न्यायपालिका की निष्पक्षता पर
सवाल उठते हैं।
इसलिए हर पक्ष
को समान रूप से बोलने और सफाई देने का अवसर मिलना चाहिए। तभी अदालत का निर्णय
न्यायसंगत, संतुलित और संविधान सम्मत माना जाएगा।
“न्याय वही जो सबकी सुने,
सबको बराबर माने।“
अंतिम बात:
भारत का संविधान बहुत संतुलित है। इसमें सभी स्तंभों को अपनी-अपनी भूमिका
दी गई है। अगर कोई एक स्तंभ, जैसे कि न्यायपालिका, दूसरों के कार्यक्षेत्र में दखल देने लगे,
तो लोकतंत्र का संतुलन बिगड़ सकता है।
इसलिए, जरूरी
है कि सुप्रीम कोर्ट जैसे संस्थान भी अपनी सीमाओं में रहकर काम करें,
और हर बड़े मुद्दे पर सभी पक्षों की बात सुनकर ही निर्णय लें।