"क्या
महिलाएं अब भी पुरुषों की संपत्ति मानी जाती हैं?"
— दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में इसी सवाल को उठाते
हुए व्यभिचार (adultery) के एक पुराने मामले में याचिकाकर्ता
को राहत दी है। इस फैसले की खास बात यह रही कि अदालत ने महाभारत की द्रौपदी
का उदाहरण देते हुए महिला के अधिकारों और गरिमा पर बल दिया।
क्या था मामला?
एक व्यक्ति पर आरोप
था कि उसका एक शादीशुदा महिला से विवाहेतर संबंध था। महिला के पति ने 2010
में यह शिकायत दर्ज कराई थी कि उसकी पत्नी और आरोपी व्यक्ति लखनऊ के
एक होटल में पति-पत्नी की तरह रहे और उसके साथ उसकी सहमति के बिना शारीरिक संबंध
बनाए।
इस आधार पर निचली
अदालत ने पहले आरोपी को आरोपमुक्त कर दिया था, लेकिन बाद
में सत्र अदालत ने उस निर्णय को पलटते हुए फिर से केस चलाने का आदेश दिया।
हाईकोर्ट का
दृष्टिकोण: द्रौपदी का उदाहरण और सामाजिक चेतावनी
दिल्ली हाईकोर्ट की
जस्टिस नीना बंसल कृष्णा ने इस केस पर सुनवाई करते हुए कहा कि भारतीय समाज में अब
भी महिला को पुरुष की संपत्ति मानने की मानसिकता मौजूद है,
जो अत्यंत चिंताजनक है। उन्होंने महाभारत की घटना का उल्लेख करते
हुए कहा:
“द्रौपदी को
उसके पति युधिष्ठिर ने जुए में दांव पर लगाया, जहां अन्य
चारों भाई मूकदर्शक बने रहे। द्रौपदी के पास अपनी गरिमा की रक्षा के लिए कोई आवाज
नहीं थी। और इसके परिणामस्वरूप महाभारत का भयानक युद्ध हुआ।”
IPC की धारा
497: सुप्रीम कोर्ट का जोसेफ शाइन मामला
अदालत ने स्पष्ट
किया कि IPC की धारा 497,
जिसके तहत व्यभिचार एक अपराध था, को सुप्रीम
कोर्ट ने जोसेफ शाइन बनाम भारत सरकार (2018) मामले
में असंवैधानिक घोषित कर दिया था। यह धारा महिलाओं को उनके पति की ‘संपत्ति’ मानती
थी और इसीलिए इसे असंवैधानिक करार दिया गया।
कोर्ट ने यह भी
स्पष्ट किया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का प्रभाव भूतलक्षी होता है,
यानी वे पुराने और लंबित मामलों पर भी लागू होते हैं।
फैसला और निष्कर्ष
दिल्ली हाईकोर्ट ने
न सिर्फ इस मामले को रद्द किया, बल्कि यह भी कहा कि
होटल में एक साथ ठहरने मात्र से यौन संबंध बनाने का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
इस फैसले से क्या
संदेश मिलता है?
1. महिलाएं
अब किसी की संपत्ति नहीं मानी जाएंगी।
2. सहमति
और गरिमा दोनों की कानूनी मान्यता है।
3. संविधान
की समानता की भावना अब व्यावहारिक फैसलों में दिख रही है।
4. पुरानी
सामाजिक धारणाएं अब अदालतों में मान्य नहीं हैं।
निष्कर्ष:
दिल्ली हाईकोर्ट का
यह फैसला सिर्फ एक कानूनी राहत नहीं, बल्कि एक
सामाजिक संदेश भी है—महिलाओं की गरिमा और स्वतंत्रता अब कानून के मूल में है। जब
तक समाज इस सोच को नहीं अपनाता, तब तक द्रौपदी जैसी घटनाएं
प्रतीक बनकर हमें झकझोरती रहेंगी।