इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय में साफ कर दिया है कि लोक अदालतें पक्षकारों की सहमति के बिना परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI Act) की धारा 138 से संबंधित चेक बाउंस के मामलों को “कार्यवाही न होने के आधार पर” खारिज नहीं कर सकतीं। न्यायालय ने इसे विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के स्पष्ट उल्लंघन के साथ-साथ प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का भी हनन माना।
केस
का नाम: राजीव जैन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य आवेदन
संख्या: धारा 482 दं.प्र.सं. अंतर्गत आवेदन संख्या-2300 सन्
2020 पीठ: माननीय न्यायमूर्ति अनीश कुमार गुप्ता दिनांक:
फैसला 2025 तक प्रासंगिक (मूल लोक अदालत आदेश 09.12.2017 का
था)
मामला
क्या था?
याचिकाकर्ता
राजीव जैन ने एटा जिले की अदालत में NI
Act की धारा 138 के
तहत एक शिकायत दर्ज कराई थी। अभियुक्त (आरोपी) को तलब करने के लिए मामले की सुनवाई
निर्धारित थी।
एक
सुनवाई की तारीख पर:
- शिकायतकर्ता
(याचिकाकर्ता) अनुपस्थित था,
- पीठासीन
अधिकारी (नियमित मजिस्ट्रेट) अवकाश पर थे।
इसी
बीच लोक अदालत का आयोजन हो रहा था। बिना शिकायतकर्ता की सहमति के, बिना
उसकी सूचना के और बिना उसकी उपस्थिति के लोक अदालत ने मामले को अपने पास ले लिया
और “शिकायतकर्ता की गैर-हाजिरी एवं कार्यवाही न होने” के आधार पर पूरी शिकायत ही
खारिज कर दी।
इससे क्षुब्ध होकर याचिकाकर्ता ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में धारा 482 दं.प्र.सं. के तहत याचिका दायर की।
दोनों पक्षों के मुख्य तर्क
याचिकाकर्ता के वकील श्री निकलंक कुमार जैन का तर्क:
- मामला लोक
अदालत को बिना हमारी सहमति के भेजा गया।
- विधिक सेवा
प्राधिकरण अधिनियम की धारा 19 एवं 20 स्पष्ट कहती हैं कि लोक अदालत में
मामला तभी भेजने के लिए पक्षकारों की सहमति जरूरी है।
- यदि समझौता
नहीं होता तो मामला वापस मूल अदालत को लौटाना होता है, खारिज नहीं करना होता।
- गैर-हाजिरी
में खारिज करना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है।
सरकारी
वकील (राज्य की ओर से) ने भी याचिकाकर्ता का समर्थन किया और
कहा कि लोक अदालत का अधिकार केवल सुलह-समझौते तक सीमित है, वह
दंड प्रक्रिया संहिता या NI Act के तहत मिली खारिज करने की शक्ति का उपयोग
नहीं कर सकती।
न्यायालय ने क्या कहा? (महत्वपूर्ण अंश)
माननीय
न्यायमूर्ति अनीश कुमार गुप्ता ने अपने फैसले में निम्नलिखित बातें स्पष्ट कीं:
1.
लोक
अदालत का अधिकार क्षेत्र केवल सहमति पर आधारित होता है “लोक
अदालतों को विवादों के निपटारे का अधिकार केवल पक्षकारों की सहमति या उनके आवेदन
पर ही प्राप्त होता है। ऐसी सहमति के अभाव में वे योग्यता के आधार पर मामलों का
निर्णय नहीं कर सकतीं।”
2.
धारा
20 विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम का स्पष्ट
प्रावधान यदि लोक अदालत में समझौता नहीं हो पाता तो
उसे मामला वापस उस न्यायालय को लौटाना होता है जहां से वह आया था। खारिज करने का
कोई अधिकार नहीं है।
3.
एकतरफा
खारिजगी पूरी तरह अवैध
न्यायालय ने कहा कि
शिकायतकर्ता की उपस्थिति और सहमति के बिना शिकायत खारिज करना “कानून के किसी भी
सिद्धांत के तहत मान्य नहीं है”।
4.
न्यायिक
अधिकारियों के लिए कड़ी चेतावनी
कोर्ट ने गहरी चिंता जताते
हुए कहा कि इस तरह की प्रक्रियात्मक चूकें “अनधिकृत न्यायिक कार्रवाई” की श्रेणी
में आती हैं और भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए।
अदालत
ने क्या राहत दी?
- लोक अदालत के 09.12.2017 के खारिजगी आदेश को पूरी तरह रद्द कर
दिया।
- एटा के मुख्य
न्यायिक मजिस्ट्रेट को निर्देश दिया कि मामले को उसी स्टेज से आगे बढ़ाएं जहां
से उसे गलत तरीके से लोक अदालत को भेजा गया था।
- संबंधित लोक अदालत के पीठासीन अधिकारी को भविष्य में ऐसी प्रक्रियात्मक गलती न दोहराने की चेतावनी दी।
इस फैसले का व्यापक प्रभाव
1.
अब
कोई भी लोक अदालत NI Act 138, घरेलू हिंसा,
मोटर दुर्घटना दावा आदि
जैसे मामलों को बिना पक्षकारों की सहमति के अपने पास नहीं ले सकती और न ही
“डिफॉल्ट” में खारिज कर सकती है।
2.
हजारों
मामले जो गलत तरीके से लोक अदालतों में खारिज हो चुके हैं, उनके
लिए पुनर्जीवन का रास्ता खुल गया है।
3.
निचली
अदालतों और लोक अदालतों के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश कि “सुलह न होने पर वापस भेजो, खारिज
मत करो”।
निष्कर्ष
यह
फैसला लोक अदालतों की उपयोगिता को कम नहीं करता है,
बल्कि उनकी सीमाओं को
स्पष्ट करता है। लोक अदालतें तेज और सुलह-आधारित न्याय का बेहतरीन माध्यम हैं, लेकिन
वे नियमित अदालतों की शक्तियों का अतिक्रमण नहीं कर सकतीं।
इलाहाबाद
उच्च न्यायालय ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि प्रक्रियात्मक न्याय (procedural justice) उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि मूलभूत न्याय (substantive justice)।
यदि
आपके पास भी ऐसा कोई पुराना चेक बाउंस का मामला है जो लोक अदालत ने गलत तरीके से
खारिज कर दिया हो, तो यह फैसला आपके लिए नजीर बन सकता है।

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