मुंबई: 17 साल पुराने मालेगांव विस्फोट मामले
की सुनवाई कर रहे विशेष एनआईए अदालत के जज एके लाहोटी का तबादला नासिक कर दिया गया
है। जज लाहोटी इस संवेदनशील मामले की सुनवाई करने वाले अब तक के पांचवें न्यायाधीश
हैं, जिनका स्थानांतरण किया गया है। इससे पहले चार अन्य जजों
को भी इसी मामले के दौरान हटा दिया गया था।
पीड़ितों में
नाराज़गी, न्याय में देरी की आशंका
बताया जा रहा है कि जज लाहोटी इस केस में सुनवाई पूरी करने के करीब
थे, ऐसे में उनका अचानक तबादला होना पीड़ित पक्ष को परेशान
कर रहा है। उनका कहना है कि इससे न्याय मिलने में और देरी होगी, जबकि पहले ही मामला काफी वर्षों से लंबित है। अब पीड़ित परिवार बॉम्बे हाई
कोर्ट का रुख करने की तैयारी कर रहे हैं।
क्या है मालेगांव
विस्फोट मामला?
29 सितंबर 2008 को महाराष्ट्र के मालेगांव शहर
में मस्जिद के पास एक मोटरसाइकिल में विस्फोटक रखे गए थे, जिससे
जबरदस्त धमाका हुआ। इस धमाके में छह लोगों की मौत हो गई थी और 100 से ज्यादा लोग घायल हुए थे। इस मामले में प्रमुख आरोपियों में बीजेपी
सांसद प्रज्ञा ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित और
पांच अन्य लोग शामिल हैं, जिन पर आतंकवाद और साजिश के गंभीर
आरोप लगे हैं।
तबादले का कारण और कोर्ट का निर्देश
बॉम्बे हाई कोर्ट की ओर से जारी की गई जिला न्यायाधीशों की सामान्य
स्थानांतरण सूची में जज लाहोटी का नाम भी शामिल है। यह आदेश नौ जून से प्रभावी
होंगे, जब अदालतें गर्मी की छुट्टियों के बाद दोबारा
खुलेंगी। हालांकि, स्थानांतरण आदेश में यह भी कहा गया है कि
जिन मामलों की सुनवाई पहले ही पूरी हो चुकी है, उनमें
संबंधित जज फैसला सुना सकते हैं।
कानूनी नजरिया और सामाजिक चिंता
इस तरह बार-बार जजों का तबादला न केवल न्यायिक प्रक्रिया में विलंब
पैदा करता है, बल्कि लोगों के मन में न्यायपालिका की स्थिरता
और पारदर्शिता को लेकर सवाल भी खड़े करता है। विशेष रूप से ऐसे मामलों में,
जिनमें आतंकी गतिविधियों के आरोप लगे हों, पीड़ितों
और समाज को समय पर और निष्पक्ष न्याय की अपेक्षा रहती है।
मालेगांव विस्फोट केस में पांचवें जज का तबादला – न्याय में देरी या प्रणाली की कमजोरी?
कानूनी विश्लेषण (Legal
Analysis)
1. BNSS की धारा 447 और 448:
मामलों
के स्थानांतरण का अधिकार उच्च न्यायालयों और सेशन जजों को होता है,
लेकिन जब मामला विशेष अदालत में हो और लंबित हो, तब न्यायिक अधिकारियों का तबादला एक संवेदनशील मुद्दा बन जाता है। सुप्रीम
कोर्ट ने भी कई बार कहा है कि लंबित मामलों की निरंतरता बनी रहनी चाहिए ताकि न्याय
में देरी न हो।
2. ‘न्याय में देरी, न्याय से इनकार’ (Justice
delayed is justice denied):
लगातार
जजों का बदलना, विशेष रूप से एक आतंकवाद से जुड़े मामले
में, पीड़ितों और समाज की न्याय प्रणाली पर भरोसे को कमजोर
करता है। यह संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत
स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत 'त्वरित न्याय' के सिद्धांत को भी प्रभावित करता है।
3. विशेष
न्यायाधीश का कार्यकाल:
अधीनस्थ
न्यायपालिका में विशेष अदालतों के जजों का कार्यकाल सामान्यत: सीमित होता है,
लेकिन कई बार गंभीर मामलों की सुनवाई पूरी होने तक विस्तार दिया
जाता है। यहां पीड़ित पक्ष की यही मांग है कि लाहोटी को मामला समाप्त होने तक
कार्यकाल विस्तार दिया जाए।
“मालेगांव
विस्फोट जैसे गंभीर मामलों में न्याय केवल पीड़ितों के लिए नहीं, बल्कि पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए आवश्यक होता है। बार-बार जजों का
स्थानांतरण न केवल एक केस की गति को प्रभावित करता है, बल्कि
न्यायपालिका की निष्पक्षता और पेशेवर प्रतिबद्धता पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है।“
“जब देश
आतंकवाद जैसे अपराधों के विरुद्ध सख्त रुख की बात करता है, तो
ऐसे मामलों में जजों की स्थिरता और प्रशासनिक प्राथमिकता स्पष्ट होनी चाहिए। सरकार
और न्यायपालिका को चाहिए कि वे विशेष मामलों की सुनवाई कर रहे जजों को कार्यकाल
समाप्ति तक स्थिर रखें।“