क्या यह प्यार था, अपहरण था, या फिर ब्लैकमेल? यह सवाल इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक हालिया मामले को देखकर उठता है, जिसमें भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 363, 366, और 376 के तहत गंभीर आरोप लगाए गए। यह मामला जटिल कानूनी और नैतिक सवालों को सामने लाता है, जिसमें प्यार, सहमति, और कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग जैसे मुद्दे शामिल हैं। आइए इस मामले को सरल भाषा में समझते हैं।
मामले की शुरुआत
05
जून 2025 को यह मामला सुर्खियों में आया,
लेकिन इसकी शुरुआत 03 जनवरी 2012 को मथुरा के वृंदावन पुलिस स्टेशन में दर्ज एक शिकायत से हुई। शिकायतकर्ता
किशन गोपाल अग्रवाल ने आरोप लगाया कि उनकी नाबालिग बेटी को पार्थ कृष्ण उपाध्याय,
नवीन उर्फ निर्मल मीरचंदानी, श्रेष्ठ, राज कुमार, और नीरू ने इनोवा कार में अपहरण कर लिया।
इस शिकायत के आधार पर IPC की धारा 363 (अपहरण) और धारा 366 (शादी के लिए अपहरण) के तहत FIR
नंबर 15/2012 दर्ज की गई।
जांच और विरोधाभासी बयान
पुलिस
ने जांच शुरू की, लेकिन प्रारंभिक जांच में
पर्याप्त सबूत नहीं मिले, और अंतिम रिपोर्ट में मामला बंद
करने की सिफारिश की गई। लेकिन शिकायतकर्ता ने इस रिपोर्ट के खिलाफ विरोध याचिका
दायर की। इसके बाद, अदालत ने इस याचिका को शिकायत के रूप में
स्वीकार किया। पीड़िता, उसके माता-पिता (लक्ष्मी अग्रवाल और
किशन गोपाल), और अन्य गवाहों के बयान Cr.PC की धारा 200 और 202 के तहत
दर्ज किए गए।
पीड़िता
ने अपने बयान में कहा कि उसका अपहरण किया गया, उसके साथ
बलात्कार हुआ, और उसे धमकी देकर शादी के लिए मजबूर किया गया।
लेकिन यह बयान उसके पहले के Cr.PC धारा 164 के बयान से पूरी तरह उलट था, जिसमें उसने कहा था कि
वह अपनी मर्जी से पार्थ कृष्ण उपाध्याय के साथ गई थी और 01 फरवरी
2012 को दिल्ली के आर्य समाज मंदिर में उससे शादी की थी। यह
विरोधाभास इस मामले को और जटिल बनाता है।
पीड़िता की उम्र और वैवाहिक स्थिति
मामले
में एक अहम तथ्य यह था कि पीड़िता की उम्र को लेकर कोई विवाद नहीं था। उसके हाई
स्कूल सर्टिफिकेट और विवाह प्रमाणपत्र के अनुसार, उसकी
जन्म तिथि 20 जनवरी 1990 थी। इस हिसाब
से घटना के समय (जनवरी 2012) उसकी उम्र 21 वर्ष, 11 महीने और 13 दिन थी।
यानी, वह कानूनी रूप से वयस्क थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस
तथ्य को बहुत महत्वपूर्ण माना, क्योंकि यह सवाल उठाता है कि
क्या यह अपहरण था या पीड़िता ने अपनी मर्जी से यह कदम उठाया था।
पार्थ कृष्ण उपाध्याय के खिलाफ कार्यवाही रद्द
पार्थ
कृष्ण उपाध्याय, जिन पर IPC की
धारा 376 (बलात्कार) का आरोप था, ने Cr.PC
की धारा 482 के तहत एक याचिका दायर की। 01
अगस्त 2019 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उनकी
याचिका (संख्या 28691/2019) को स्वीकार करते हुए उनके खिलाफ
कार्यवाही रद्द कर दी। कोर्ट ने यह फैसला समझौते और आरोपों की असंभावना के आधार पर
लिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के ज्ञान सिंह बनाम पंजाब राज्य
(2012) के फैसले का हवाला दिया गया।
सह-आरोपियों की नई याचिका
पार्थ
के खिलाफ कार्यवाही रद्द होने के बाद, सह-आरोपी
नवीन उर्फ निर्मल मीरचंदानी और एक अन्य ने Cr.PC की धारा 482
के तहत नई याचिका (संख्या 34348/2023) दायर
की। इसमें उन्होंने मथुरा की निचली अदालत में लंबित शिकायत मामले (संख्या 2397/2018)
को रद्द करने की मांग की। यह याचिका 16 अगस्त 2023
को हुए एक समझौते पर आधारित थी।
इलाहाबाद हाईकोर्ट का अंतरिम आदेश
12
अक्टूबर 2023 को, इलाहाबाद
हाईकोर्ट ने इस मामले में अंतरिम राहत दी। कोर्ट ने पक्षकारों को निर्देश दिया कि
वे ट्रायल कोर्ट में उपस्थित हों और समझौते को सत्यापित करें। साथ ही, कोर्ट ने दो महीने के लिए आरोपियों के खिलाफ कोई बलपूर्वक कार्रवाई न करने
का आदेश दिया। इससे ट्रायल कोर्ट को समझौते की शर्तों को जांचने का समय मिल गया।
नया आवेदन और अंतिम आदेश
बाद
में,
आरोपियों ने BNSS (भारतीय न्याय संहिता) की
धारा 528 के तहत एक नया आवेदन (संख्या 12403/2025) दायर किया। इसमें उन्होंने या तो मामले को स्थानांतरित करने या 16 अगस्त 2023 के समझौते के आधार पर इसे रद्द करने की
मांग की। 02 जून 2025 को, इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति विकास बुधवार ने इस आवेदन का निपटारा
करते हुए कुछ महत्वपूर्ण निर्देश दिए:
- आरोपियों को 20
जून 2025 तक आवेदन की स्व-सत्यापित प्रति,
प्रमाणित आदेश, और मूल समझौता विलेख जमा
करने का आदेश दिया गया।
- निचली अदालत को निर्देश दिया गया
कि वह विपरीत पक्ष को नोटिस देकर दो महीने के भीतर समझौते का सत्यापन करे।
- सत्यापन पूरा होने तक आरोपियों के
खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई न करने का आदेश दिया गया।
न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग
इलाहाबाद
हाईकोर्ट ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के एक और महत्वपूर्ण फैसले,
हरियाणा राज्य बनाम भजन लाल (1992), का हवाला
दिया। कोर्ट ने कहा कि आरोप स्वाभाविक रूप से असंभव लगते हैं और उनमें ठोस सबूतों
की कमी है। कोर्ट का मानना था कि इस तरह की कार्यवाही को आगे बढ़ाना न्यायिक
प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा।
सशर्त राहत
हाईकोर्ट
ने यह भी स्पष्ट किया कि आरोपियों को दी गई राहत सशर्त है। अगर वे कोर्ट के
निर्देशों का पालन नहीं करते या समय पर दस्तावेज जमा नहीं करते,
तो यह राहत अपने आप रद्द हो जाएगी। यह कदम यह सुनिश्चित करता है कि
कानूनी औपचारिकताओं का पालन हो और कोई भी पक्ष इसका दुरुपयोग न करे।
निष्कर्ष
यह
मामला कई सवाल उठाता है। क्या यह सचमुच अपहरण और बलात्कार का मामला था,
या फिर यह प्यार और सहमति की कहानी थी, जिसे
गलत तरीके से पेश किया गया? पीड़िता के विरोधाभासी बयान और
उसकी वयस्क होने की स्थिति ने इस मामले को और जटिल बना दिया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने
समझौते और कानूनी तथ्यों के आधार पर इस मामले को सुलझाने की कोशिश की है, लेकिन यह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि प्यार, सहमति,
और कानूनी प्रक्रिया के बीच की रेखा कितनी पतली हो सकती है।
इस
मामले का अंतिम परिणाम निचली अदालत में समझौते के सत्यापन पर निर्भर करता है। तब
तक,
यह मामला हमें यह सिखाता है कि सच्चाई को उजागर करने के लिए गहन और
निष्पक्ष जांच जरूरी है।