शरिया कोर्ट का कोई कानूनी दर्जा नहीं
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह
की बेंच ने कहा कि शरिया कोर्ट,
काजी या दारुल कजा जैसी संस्थाओं के फैसले कानून की नजर में मान्य
नहीं हैं। कोर्ट ने 2014 के विश्व लोचन मदान मामले का हवाला देते हुए दोहराया कि इनके आदेश तभी माने जा सकते हैं,
जब दोनों पक्ष उसे स्वीकार करें और उसका पालन करें, साथ ही किसी अन्य कानून का उल्लंघन न हो। लेकिन तीसरे पक्ष पर ये फैसले
लागू नहीं होंगे।
महिला ने सुप्रीम कोर्ट में लगाई गुहार
यह मामला एक महिला का था, जिसने अपने पति से गुजारा भत्ता मांगा था। महिला की शादी 24 सितंबर 2002 को इस्लामी रीति-रिवाज से हुई थी। यह दोनों की दूसरी शादी थी। 2005 में पति ने काजी की अदालत में तलाक का केस दायर किया, लेकिन समझौते के बाद मामला खत्म हो गया। 2008 में पति ने फिर से दारुल कजा में तलाक का मुकदमा दायर किया। उसी साल महिला ने फैमिली कोर्ट में गुजारा भत्ते की मांग की, लेकिन फैमिली कोर्ट ने यह कहकर मना कर दिया कि यह दूसरी शादी है और महिला खुद अलग रहने के लिए जिम्मेदार है।महिला
ने फैमिली कोर्ट के फैसले को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी,
लेकिन वहां भी राहत नहीं मिली। इसके बाद उसने सुप्रीम कोर्ट में
याचिका दायर की।