केंद्र सरकार अब अदालतों में चल रहे अपने मुकदमों की संख्या कम करने के लिए सक्रिय हो गई है। कानून मंत्रालय ने सभी केंद्रीय मंत्रालयों को साफ निर्देश दिए हैं कि वे बेवजह कोर्ट में अपील न करें और अनावश्यक मामलों से बचें।
सरकार के आंकड़ों
के अनुसार, देशभर की अदालतों में करीब सात लाख
मुकदमे ऐसे हैं जिनमें केंद्र सरकार पक्षकार है। यानि इन मामलों में
सरकार एक पक्ष के तौर पर शामिल है, जिससे अदालतों पर बोझ
बढ़ता है।
कानून मंत्रालय ने
कहा है कि इन मुकदमों को कम करने के लिए मुख्य उपाय होंगे:
- गैर-जरूरी अपीलों से बचना,
- सरकारी आदेशों में होने वाली
गड़बड़ियों को सुधारना,
- और ऐसी बातों से बचना जो कोर्ट
में विवाद का कारण बनें।
यह आदेश सिर्फ
मंत्रालयों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि सभी सरकारी
विभागों, अधीनस्थ दफ्तरों, स्वायत्त
संस्थाओं और सार्वजनिक उपक्रमों पर भी लागू होगा।
कानून मंत्री
अर्जुन राम मेघवाल ने संसद में बताया कि सिर्फ विधि मंत्रालय ही 1.9
लाख मामलों में पक्षकार है। इसका
मतलब है कि सिर्फ एक मंत्रालय की वजह से इतने सारे मुकदमे अदालतों में लंबित हैं।
सरकार ने इस पहल को
‘सुशासन’ (अच्छे प्रशासन) की
दिशा में एक जरूरी कदम बताया है। इससे जनता को जल्दी न्याय मिलेगा,
अदालतों का बोझ घटेगा और सरकारी संसाधनों की बचत भी होगी।
ऐतिहासिक और वैश्विक दृष्टिकोण के मद्देनजर सरकारी मुकदमों का बोझ का विश्लेषण
भारत की न्यायिक
व्यवस्था दुनिया की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी प्रणालियों में से एक है,
परंतु वर्तमान में यह लाखों लंबित मुकदमों के कारण गंभीर
दबाव में है। इसमें सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि इनमें से एक बड़ी संख्या सरकारी
मुकदमों की है। अब जबकि केंद्र सरकार ने सरकारी मुकदमों की संख्या घटाने की पहल की
है, तो यह उपयुक्त समय है कि हम इसके इतिहास और
अंतरराष्ट्रीय अनुभवों पर भी नज़र डालें।
भारत में सरकारी मुकदमों का इतिहास
- ब्रिटिश काल से ही,
सरकार अदालतों में एक प्रमुख पक्षकार रही है। भूमि अधिग्रहण,
कर विवाद, सार्वजनिक आदेश, और श्रम से जुड़े मामलों में सरकार नियमित रूप से मुकदमे करती रही।
- स्वतंत्रता के बाद,
राज्य एक कल्याणकारी इकाई बना,
जिससे इसकी भूमिका और भी बड़ी हो गई। इसका परिणाम यह हुआ कि
सरकार ने अधिक अधिकारों के साथ-साथ अधिक मुकदमेबाजी भी शुरू कर दी।
- 1970 के दशक में सुप्रीम
कोर्ट ने सरकारी मुकदमों की अधिकता को लेकर चिंता जताई। इसके बाद कई आयोगों
और समितियों (जैसे कि मलिमठ समिति) ने यह
सिफारिश की कि सरकार को मुकदमेबाजी "अंतिम उपाय" के रूप में ही
अपनानी चाहिए।
- 2009 में ‘नेशनल
लिटिगेशन पॉलिसी’ (राष्ट्रीय मुकदमे नीति)
का प्रस्ताव आया, परन्तु वह ज़मीनी स्तर
पर प्रभावी रूप से लागू नहीं हो सका।
वर्तमान स्थिति: आंकड़ों की भाषा
- भारत में सभी लंबित मामलों का
लगभग 50% भाग केंद्र या राज्य सरकार से
संबंधित होता है।
- सिर्फ केंद्र सरकार ही करीब 7
लाख मामलों में पक्षकार
है।
- कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल
के अनुसार, 1.9 लाख से अधिक मामलों में
सिर्फ विधि मंत्रालय ही एक पक्ष है।
वैश्विक दृष्टिकोण:
अन्य देश कैसे निपटते हैं सरकारी मुकदमों से?
1. यूनाइटेड
किंगडम (UK):
- वहाँ “Pre-action
Protocol” लागू है – इसका मतलब यह
है कि किसी विवाद को अदालत में ले जाने से पहले दोनों पक्ष आपसी सहमति से
समाधान खोजने की कोशिश करते हैं।
- सरकारी विभागों को निर्देश है कि
वे अदालत से पहले मध्यस्थता (mediation)
का प्रयास करें।
2. अमेरिका
(USA):
- अमेरिका में Federal
Tort Claims Act जैसे कानूनों के माध्यम
से सरकारी मुकदमों को सीमित किया गया है।
- सरकार मुकदमे के बजाय सेटलमेंट
और आर्बिट्रेशन के जरिए विवाद सुलझाने को प्राथमिकता देती है।
3. ऑस्ट्रेलिया:
- ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने Model
Litigant Policy लागू की है, जिसके अनुसार सरकार को ‘आदर्श वादी’ (ideal litigant) के रूप में व्यवहार करना होता है — यानी वह बेवजह अपील नहीं करेगी और
न्याय के मूल उद्देश्य को प्राथमिकता देगी।
भारत में सुधार की दिशा में कदम
- भारत में भी अब आवश्यकता है कि
सरकारी विभागों के लिए एक प्रभावी मुकदमे नीति बने जिसमें यह तय हो कि
किस मामले में कोर्ट जाना है और किसमें नहीं।
- अधिकारियों को मुकदमेबाजी से पहले
आंतरिक समाधान के लिए जवाबदेह बनाया जाए।
- न्यायिक निर्णयों का एकीकृत
डेटाबेस हो, जिससे एक जैसे मामलों
में बार-बार अपीलें करने की प्रवृत्ति रुके।
निष्कर्ष
सरकारी मुकदमों का
बोझ भारत की न्याय प्रणाली पर एक अनदेखा लेकिन गंभीर संकट रहा है। अब जबकि
केंद्र सरकार ने इसे गंभीरता से लिया है, तो यह समय
है कि हम वैश्विक अनुभवों से सीख लेकर इसे एक व्यवस्थित नीति और जवाबदेही के
ढांचे में ढालें। इससे न केवल न्यायालयों का दबाव घटेगा, बल्कि आम जनता को भी समय पर न्याय मिलेगा — यही सच्चे लोकतंत्र की
पहचान है।