दिल्ली हाई कोर्ट
से स्थानांतरित किए गए न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा ने शनिवार को इलाहाबाद
हाई कोर्ट में गुपचुप तरीके से न्यायाधीश पद की शपथ ली। यह शपथ ग्रहण
औपचारिक रूप से बिना किसी सार्वजनिक सूचना के हुआ। हाई कोर्ट की वेबसाइट पर अब
उनका नाम न्यायाधीशों की वरिष्ठता सूची में छठवें स्थान पर दर्ज कर दिया
गया है।
दिलचस्प बात यह है
कि उसी दिन दो अन्य न्यायमूर्तियों—न्यायमूर्ति
असीम सिंह (उड़ीसा हाई कोर्ट से) और न्यायमूर्ति चंद्रशेखर सिंह (दिल्ली हाई कोर्ट
से)—के शपथ ग्रहण समारोह की सूचना पहले ही सार्वजनिक की गई थी। उनके लिए
सोमवार, 7 अप्रैल 2025 को सुबह 10
बजे समारोह तय किया गया है। लेकिन यशवंत वर्मा की शपथ से जुड़ी कोई
सूचना मीडिया या न्यायालय के चैनलों से साझा नहीं की गई।
इस पर इलाहाबाद
हाई कोर्ट बार एसोसिएशन (ACBA) ने गंभीर आपत्ति जताई है। बार के महासचिव ने मुख्य न्यायाधीश
अरविंद श्रीवास्तव को पत्र लिखकर कहा है कि न्यायमूर्ति वर्मा को कोई
प्रशासनिक या न्यायिक कार्य न सौंपा जाए।
आइए इस मामले की कानूनी
स्थिति और न्यायिक शुचिता (Judicial Integrity) पर इसके प्रभाव को समझते हैं।
कानूनी स्थिति (Legal
Position):
1. न्यायाधीश
का स्थानांतरण (Transfer of Judges):
संविधान के अनुच्छेद 222 के तहत सुप्रीम कोर्ट
के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से राष्ट्रपति किसी हाई कोर्ट के न्यायाधीश का
स्थानांतरण कर सकते हैं। इसमें पारदर्शिता की कोई बाध्यता नहीं है, लेकिन न्यायपालिका की गरिमा बनाए रखने के लिए प्रथागत रूप से इसे
औपचारिक बनाया जाता है।
2. शपथ
ग्रहण (Oath Ceremony):
हर
न्यायाधीश को नए कार्यस्थल पर शपथ लेना होता है। आमतौर पर यह एक खुला,
पारदर्शी और सार्वजनिक रूप से घोषित
कार्यक्रम होता है। लेकिन अगर कोई मामला संवेदनशील हो,
तो प्रशासन उसे भीतर ही भीतर निपटा सकता है, जैसा कि इस मामले में हुआ।
3. प्रशासनिक
और न्यायिक कार्य सौंपने का मामला:
बार
एसोसिएशन का यह कहना कि न्यायमूर्ति वर्मा को कोई काम न सौंपा जाए—वास्तव में एक अनौपचारिक
अपील है। कानूनी रूप से जब तक उनके खिलाफ कोई जांच या सजा नहीं हुई है,
तब तक उन्हें काम से रोकना असंवैधानिक हो सकता है।
न्यायिक शुचिता पर
प्रभाव (Impact on Judicial Integrity):
1. गोपनीयता
से सवाल उठते हैं:
जब
एक न्यायाधीश का शपथ ग्रहण चुपचाप होता है और सार्वजनिक न किया जाए,
तो इससे लोगों में यह संदेह पैदा होता है कि क्या कुछ छिपाया जा
रहा है।
2. जनता
का भरोसा प्रभावित होता है:
न्यायपालिका
पर आम जनता का भरोसा इसकी पारदर्शिता, निष्पक्षता
और नैतिकता पर आधारित होता है। अगर न्यायमूर्ति पर कोई आरोप हैं (जैसे अघोषित
नकदी), तो उनके काम में तुरंत हिस्सेदारी देना न्यायिक
नैतिकता पर चोट कर सकता है।
3. बार
और बेंच के बीच टकराव:
बार
एसोसिएशन की नाराज़गी यह दिखाती है कि वकील समाज न्यायिक प्रक्रिया में
पारदर्शिता और जवाबदेही चाहता है। अगर इस तरह के मामले नियमित हो जाएं तो इससे
न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंच सकता है।
निष्कर्ष
इस पूरे घटनाक्रम
ने यह प्रश्न खड़ा किया है कि क्या न्यायिक प्रक्रिया केवल कानूनी होनी चाहिए
या नैतिक भी?
यदि आरोप स्पष्ट नहीं हैं, तो न्यायाधीश का
स्थानांतरण और कार्यभार देना शायद कानूनन ठीक हो, लेकिन अगर
सार्वजनिक विश्वास डगमगाता है, तो यह न्यायपालिका के लिए
दीर्घकालिक नुकसान हो सकता है।
गौरतलब है कि
न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा को दिल्ली में उनके आवास से भारी मात्रा में अघोषित
नकदी मिलने के बाद स्थानांतरित किया गया था। इसी पृष्ठभूमि में उनका शपथ ग्रहण
चुपचाप होना और सूचना का अभाव कई सवाल खड़े कर रहा है।