भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 'संप्रभुता' का अर्थ और महत्व
भारतीय संविधान की प्रस्तावना
(Preamble) हमारे संविधान की आत्मा है। यह संविधान के उद्देश्यों, आदर्शों और मूल्यों का सार प्रस्तुत करती है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है
कि भारत एक "संपूर्ण, समाजवादी,
धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य" है। प्रस्तावना में प्रयुक्त 'संप्रभु'
(Sovereign) शब्द का विशेष महत्व है, क्योंकि
यह भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता को दर्शाता है। यह दर्शाता
है कि भारत किसी भी बाहरी शक्ति से स्वतंत्र है और यहां की जनता ही सर्वोच्च शक्ति
का स्रोत है।
संप्रभुता का अर्थ और परिभाषा
'संप्रभुता' का शाब्दिक अर्थ है – सर्वोच्च और पूर्ण अधिकार। किसी राष्ट्र की संप्रभुता
का मतलब है कि वह राष्ट्र अपने सभी आंतरिक और बाहरी मामलों में पूरी तरह स्वतंत्र
है और किसी भी बाहरी शक्ति या संगठन का उस पर नियंत्रण नहीं है।
- आंतरिक संप्रभुता:
यह राष्ट्र के अंदरूनी मामलों में पूर्ण स्वतंत्रता को दर्शाता है। इसमें
विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का
स्वतंत्र रूप से काम करना शामिल है।
- बाहरी संप्रभुता:
यह राष्ट्र की विदेश नीति, अंतरराष्ट्रीय
संबंधों और रक्षा के मामलों में पूर्ण स्वतंत्रता को दर्शाता है।
भारतीय संदर्भ में संप्रभुता का महत्व
जब भारत ने 15
अगस्त 1947 को स्वतंत्रता प्राप्त की, तो उसने औपनिवेशिक शासन से मुक्ति पाकर एक स्वतंत्र राष्ट्र
के रूप में अपनी पहचान बनाई। इसके बाद 26 जनवरी 1950 को जब भारतीय संविधान लागू हुआ, तो भारत ने अपनी संप्रभुता
की घोषणा करते हुए यह स्पष्ट कर दिया कि अब भारत न तो किसी ब्रिटिश साम्राज्य का
हिस्सा है और न ही किसी अन्य राष्ट्र का अधीनस्थ राज्य।
भारतीय संविधान की
प्रस्तावना में जब यह कहा गया कि –
"हम,
भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण
प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष,
लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए..."
तो इसका अर्थ यह था कि भारत आंतरिक और बाहरी मामलों में पूरी तरह
स्वतंत्र होगा और यहां की जनता ही अधिकारों का सर्वोच्च स्रोत होगी।
संप्रभुता और
संविधान के अनुच्छेद (Articles)
भारतीय संविधान में
संप्रभुता की भावना को कई अनुच्छेदों के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है –
- अनुच्छेद 1:
भारत को "राज्यों का संघ" बताया गया है, जो यह संकेत देता है कि भारत की अखंडता और संप्रभुता सुनिश्चित की गई
है।
- अनुच्छेद 51:
अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देने और न्यायसंगत
व्यवस्था को बनाए रखने की बात करता है, जो भारत की
बाहरी संप्रभुता को दर्शाता है।
- अनुच्छेद 246: संसद और राज्य विधानसभाओं को विधायी शक्तियां प्रदान करता है, जो आंतरिक संप्रभुता को दर्शाता है।
संप्रभुता पर भारतीय न्यायपालिका के ऐतिहासिक फैसले
केशवानंद भारती बनाम केरल
राज्य (1973):
इस
ऐतिहासिक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के मूल ढांचे (Basic
Structure) की अवधारणा प्रस्तुत की। न्यायालय ने
स्पष्ट किया कि भारत की संप्रभुता, लोकतंत्र,
और न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान के
मूल ढांचे का हिस्सा हैं और इन्हें किसी भी संशोधन द्वारा बदला नहीं जा सकता।
एस.आर. बोम्मई बनाम
भारत संघ (1994):
इस
मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि संविधान की प्रस्तावना में
निहित मूल सिद्धांतों का पालन करना सरकार और संसद दोनों के लिए अनिवार्य है।
न्यायालय ने यह भी कहा कि संप्रभुता और धर्मनिरपेक्षता संविधान की बुनियाद
हैं और इन्हें किसी भी हाल में बदला नहीं जा सकता।
गोलकनाथ बनाम पंजाब
राज्य (1967):
इस
फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा कि संसद संविधान के मौलिक अधिकारों को
बदलने के लिए संप्रभु शक्ति का दुरुपयोग नहीं कर सकती। इससे यह स्पष्ट हुआ
कि भारत की संप्रभुता न केवल सरकार की शक्ति में निहित है,
बल्कि जनता के अधिकारों की रक्षा में भी इसका योगदान है।
संप्रभुता और भारतीय लोकतंत्र में जनता की भूमिका
भारत में संप्रभुता
का वास्तविक स्रोत जनता है। भारतीय लोकतंत्र में जनता को सर्वोच्च शक्ति
प्राप्त है, जो चुनावों के माध्यम से अपने
प्रतिनिधियों का चयन करती है।
- चुनावी प्रक्रिया:
जनता अपने मताधिकार का प्रयोग करके सरकार बनाती है।
- नागरिक अधिकार:
भारतीय संविधान ने जनता को मौलिक अधिकार प्रदान किए हैं,
जिनकी रक्षा करना सरकार का कर्तव्य है।
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता:
न्यायपालिका की स्वतंत्रता भी भारत की संप्रभुता को मजबूत करती है,
क्योंकि यह सरकार को संविधान की सीमा में रहने के लिए बाध्य
करती है।
संप्रभुता और वैश्विक संबंध
भारत की बाहरी
संप्रभुता इस बात में भी परिलक्षित होती है कि भारत अंतरराष्ट्रीय संगठनों
जैसे संयुक्त राष्ट्र (UN), विश्व
व्यापार संगठन (WTO), और अन्य अंतरराष्ट्रीय निकायों
का सदस्य होते हुए भी अपनी राष्ट्रीय नीतियों और विदेश नीति को स्वतंत्र
रूप से संचालित करता है। भारत किसी भी अंतरराष्ट्रीय संधि या समझौते को स्वीकार
करते समय राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देता है।
निष्कर्ष
भारतीय संविधान की प्रस्तावना
में 'संप्रभुता' का उल्लेख केवल एक औपचारिक घोषणा नहीं है, बल्कि यह
भारत के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता का प्रतिबिंब है। यह हमें यह याद दिलाती है कि भारत न केवल बाहरी
शक्तियों से स्वतंत्र है, बल्कि अपने आंतरिक मामलों में भी
जनता की इच्छा सर्वोपरि है। संप्रभुता की रक्षा करना हर भारतीय का कर्तव्य है
और यह सुनिश्चित करना कि संविधान के मूल सिद्धांत अक्षुण्ण रहें, हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार है।
भारत की संप्रभुता
न केवल एक राजनीतिक अवधारणा है, बल्कि यह
देश के प्रत्येक नागरिक के सम्मान, अधिकार और
कर्तव्य से भी जुड़ी हुई है। इसलिए, संप्रभुता का अर्थ सिर्फ स्वतंत्रता नहीं, बल्कि
जनता की सर्वोच्चता और संविधान के प्रति हमारी प्रतिबद्धता है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न FAQs:
1. भारतीय
संविधान की प्रस्तावना में 'संप्रभुता' का क्या अर्थ है?
उत्तर:
संप्रभुता का अर्थ है कि भारत एक पूर्ण स्वतंत्र और स्वायत्त
राष्ट्र है, जो किसी भी बाहरी शक्ति, साम्राज्य या संगठन के नियंत्रण से मुक्त है। यह भारत को अपने आंतरिक और
बाहरी मामलों में पूर्ण अधिकार और आत्मनिर्णय की क्षमता प्रदान करता है।
2. 'संप्रभुता'
कितने प्रकार की होती है और इसका भारतीय संदर्भ में क्या महत्व है?
उत्तर:
संप्रभुता दो प्रकार की होती है:
- आंतरिक संप्रभुता:
भारत की विधायिका, कार्यपालिका और
न्यायपालिका को स्वतंत्र रूप से कार्य करने का अधिकार।
- बाहरी संप्रभुता:
भारत की विदेश नीति और रक्षा संबंधी मामलों में किसी भी बाहरी शक्ति से
स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता।
भारतीय संदर्भ में, यह नागरिकों की सर्वोच्चता और राष्ट्र की आत्मनिर्णय की भावना को दर्शाता है।
3. भारतीय
संविधान में 'संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न' शब्द का ऐतिहासिक संदर्भ क्या है?
उत्तर:
'संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न' शब्द का ऐतिहासिक
संदर्भ भारत के स्वतंत्रता संग्राम और औपनिवेशिक शासन से मुक्ति से जुड़ा
है।
- लाहौर अधिवेशन,
1929: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 26
जनवरी 1930 को पूर्ण स्वराज की
घोषणा की।
- भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम,
1947: भारत को स्वतंत्रता मिली, लेकिन डोमिनियन स्टेटस प्राप्त हुआ।
- 26 जनवरी 1950:
भारतीय संविधान लागू होने के साथ भारत ने स्वयं को 'संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न' घोषित किया।
4. संविधान
सभा में 'संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न' शब्द
को शामिल करने का उद्देश्य क्या था?
उत्तर:
संविधान सभा में डॉ. भीमराव अंबेडकर और पं. जवाहरलाल
नेहरू ने यह सुनिश्चित किया कि भारत न केवल आंतरिक रूप से स्वतंत्र होगा,
बल्कि विदेश नीति और रक्षा मामलों में भी पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त
करेगा। इस शब्द का उद्देश्य भारत को एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक
और आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाना था।
5. 'संपूर्ण
प्रभुत्व-संपन्न' का अंतरराष्ट्रीय कानून में क्या अर्थ है?
उत्तर:
अंतरराष्ट्रीय कानून में संप्रभुता (Sovereignty)
का अर्थ है कि कोई राष्ट्र अपनी सीमाओं के भीतर पूर्ण अधिकार
रखता है और विदेश नीति में आत्मनिर्णय की क्षमता रखता है। भारत की संप्रभुता
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) और संयुक्त राष्ट्र (UNO) में
स्वतंत्र नीति अपनाने के रूप में परिलक्षित होती है।
6. भारतीय
संविधान में 'संप्रभुता' से जुड़े
कौन-कौन से अनुच्छेद हैं?
उत्तर:
संविधान में संप्रभुता को विभिन्न अनुच्छेदों द्वारा सशक्त किया गया
है:
- अनुच्छेद 1:
भारत को 'राज्यों का संघ' घोषित करता है।
- अनुच्छेद 51:
अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देने का दायित्व।
- अनुच्छेद 246:
संसद और राज्यों को विधायी शक्तियां प्रदान करता है।
7. भारतीय
न्यायपालिका ने 'संप्रभुता' की रक्षा
में कौन-कौन से ऐतिहासिक फैसले दिए हैं?
उत्तर:
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973):
संविधान के मूल ढांचे की अवधारणा प्रस्तुत की गई।
- एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994):
संविधान की मूल भावना की रक्षा को सर्वोपरि बताया।
- गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967):
संसद को मौलिक अधिकारों में बदलाव करने से रोका गया।
8. स्वतंत्र
भारत में 'संप्रभुता' की स्थापना कैसे
हुई?
उत्तर:
भारत ने 15 अगस्त 1947 को
स्वतंत्रता प्राप्त की, लेकिन इसे ब्रिटिश
कॉमनवेल्थ के तहत डोमिनियन स्टेटस प्राप्त हुआ। 26 जनवरी
1950 को जब भारतीय संविधान लागू हुआ, तब
भारत ने पूर्ण रूप से 'संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न'
राष्ट्र का दर्जा प्राप्त किया।
9. भारत की
संप्रभुता और वैश्विक मंच पर उसकी भूमिका क्या है?
उत्तर:
भारत ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) का नेतृत्व किया और संयुक्त राष्ट्र (UNO), WTO और अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों में स्वतंत्र विदेश नीति अपनाई। भारत
वैश्विक मंच पर स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान बनाए हुए है।
10. समकालीन
परिदृश्य में भारत की 'संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्नता' का क्या महत्व है?
उत्तर:
- आर्थिक प्रभुसत्ता:
आत्मनिर्भर भारत अभियान और वैश्विक अर्थव्यवस्था में स्वतंत्र भूमिका।
- राजनीतिक प्रभुसत्ता:
लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता की सर्वोच्चता।
- तकनीकी और रक्षा प्रभुसत्ता:
अंतरिक्ष, रक्षा और तकनीकी क्षेत्र में
आत्मनिर्भरता और सशक्त पहचान।
11. 'संपूर्ण
प्रभुत्व-संपन्न' शब्द का भविष्य में क्या प्रभाव हो सकता है?
उत्तर:
यह शब्द भारत की राष्ट्रीय अस्मिता, आत्मनिर्णय और लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्रतीक
है। भविष्य में यह भारत को वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित करने में
सहायक होगा।
“भारतीय
संविधान की प्रस्तावना में 'संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न'
शब्द न केवल भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता का प्रतीक है,
बल्कि यह देश की आर्थिक, सामाजिक और
सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता को भी दर्शाता है। यह भारत को
एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और आत्मनिर्भर
राष्ट्र बनाता है, जहां जनता ही
सर्वोच्च शक्ति का स्रोत है।“