सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का भाग 1 साधारणतः वादों के विषय में,रेखांकित करता है तथा इस भाग में धारा 9 व 14 को सम्मिलित किया गया है तथा धारा 9 से 14 तक न्यायालयों की अधिकारिता और पूर्व-न्याय को रखा गया है।
धारा 9
- वाद का क्षेत्राधिकार (Jurisdiction to Try All Suits of a
Civil Nature)
प्रावधान:
- धारा 9
यह स्पष्ट करती है कि सभी वाद जो सिविल प्रकृति (civil
nature) के हैं, उनकी सुनवाई और निपटारा
सिविल न्यायालयों द्वारा किया जा सकता है, सिवाय उन
मामलों के जिन पर किसी अन्य कानून द्वारा रोक लगाई गई हो।
प्रमुख बिंदु:
1. सिविल
प्रकृति के वाद:
o संपत्ति,
संविदा, कर्तव्य या वैयक्तिक अधिकारों से
संबंधित वाद।
o वाद
का स्वरूप सिविल प्रकृति का होना चाहिए, भले ही
पक्षकार सरकारी संस्थान हो।
2. अपवाद:
o कुछ
वाद जिन्हें सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार से बाहर रखा गया हो,
जैसे राजस्व विवाद या कर निर्धारण।
न्यायिक दृष्टांत:
- State of Madhya Pradesh v. Kalyan
Singh (1960 AIR 1103 SC): इस
मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सिविल न्यायालयों को सभी
सिविल प्रकृति के वादों की सुनवाई का अधिकार है।
- Dhulabhai v. State of Madhya Pradesh
(AIR 1969 SC 78): न्यायालय ने कहा
कि सिविल न्यायालय का अधिकार तभी बाधित होगा, जब किसी
अन्य कानून द्वारा विशेष रूप से निषिद्ध किया गया हो।
धारा 10
- सम-सुभीत वाद का निषेध (Stay of Suit)
प्रावधान:
- यदि किसी वाद का विषयवस्तु और
पक्षकार समान हैं और वह वाद किसी अन्य सक्षम न्यायालय में लंबित है,
तो दूसरा न्यायालय उस वाद की सुनवाई नहीं करेगा।
उद्देश्य:
- समान विषय और पक्षकारों के बीच दो
समानांतर वादों की सुनवाई से बचाव करना।
शर्तें:
1. वाद
का विषय और पक्षकार समान होने चाहिए।
2. पहला
वाद किसी सक्षम न्यायालय में लंबित हो।
3. दूसरा
वाद उसी विषय पर चलाया गया हो।
न्यायिक दृष्टांत:
- Indian Bank v. Maharashtra State
Cooperative Marketing Federation (1998): उच्चतम न्यायालय ने दो समान वादों में परस्पर विरोधाभासी निर्णयों को
रोकने के लिए धारा 10 के महत्व को रेखांकित किया।
- M/S Aspi Jal v. Khushroo Rustom
Dadyburjor (2013): इस मामले में
न्यायालय ने कहा कि धारा 10 का उद्देश्य न्यायिक
संसाधनों की बचत और परस्पर विरोधाभासी निर्णयों से बचना है।
धारा 11
- पूर्व न्याय का सिद्धांत (Res Judicata)
प्रावधान:
- धारा 11
के अनुसार, यदि किसी विवाद का किसी सक्षम
न्यायालय द्वारा निर्णय हो चुका है, तो उसी विवाद को
वही पक्षकार दोबारा किसी अन्य न्यायालय में नहीं उठा सकते।
पूर्व न्याय के
तत्व:
1. विषयवस्तु
समान हो।
2. पक्षकार
समान हों।
3. मुद्दा
किसी सक्षम न्यायालय द्वारा निर्णीत हो।
4. निर्णय
अंतिम हो।
महत्व:
- न्यायिक निश्चितता और वादों की
अंतिमता सुनिश्चित करता है।
- पुनरावृत्ति और परस्पर विरोधी
निर्णयों से बचाता है।
न्यायिक दृष्टांत:
- Satyadhyan Ghosal v. Deorajin Debi
(AIR 1960 SC 941): न्यायालय ने कहा
कि धारा 11 का उद्देश्य विवादों का स्थायी समाधान
सुनिश्चित करना है।
- Daryao v. State of U.P. (AIR 1961 SC
1457): उच्चतम न्यायालय ने
संवैधानिक रूप से पूर्व न्याय के सिद्धांत को मान्यता दी।
धारा 12
- सम-विवाद में दूसरा वाद निषिद्ध (Bar to Further Suit on
Same Cause of Action)
प्रावधान:
- यदि किसी वाद का विषय किसी अन्य
न्यायालय में विचाराधीन है, तो वही विवाद
दोबारा अन्य न्यायालय में नहीं उठाया जा सकता।
महत्व:
- न्यायिक संसाधनों का संरक्षण और
दोहरी सुनवाई से बचाव।
धारा 13
- विदेशी न्यायालयों के निर्णयों की बाध्यता (Conclusive
Nature of Foreign Judgments)
प्रावधान:
- विदेशी न्यायालय द्वारा पारित
निर्णय भारतीय न्यायालयों में बाध्यकारी होते हैं,
जब तक कि वे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन न करते
हों।
अपवाद:
1. यदि
निर्णय किसी अयोग्य न्यायालय द्वारा दिया गया हो।
2. प्राकृतिक
न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हो।
3. निर्णय
धोखाधड़ी पर आधारित हो।
4. भारतीय
कानून के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन हो।
न्यायिक दृष्टांत:
- Alcon Electronics Pvt. Ltd. v. Celem
S.A. of FOS 34320 Roujan, France (2017): इस मामले में विदेशी निर्णयों की बाध्यता और उनकी वैधता पर प्रकाश
डाला गया।
धारा 14
- विदेशी न्यायालयों के निर्णयों की औपचारिक प्रमाणिकता (Presumption
as to Foreign Judgments)
प्रावधान:
- जब किसी विदेशी न्यायालय द्वारा
पारित निर्णय को भारतीय न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है,
तो उसे सही माना जाता है जब तक कि इसका खंडन न किया जाए।
शर्तें:
- निर्णय सक्षम न्यायालय द्वारा
पारित होना चाहिए।
- निर्णय प्राकृतिक न्याय के
सिद्धांतों का पालन करता हो।
- निर्णय धोखाधड़ी पर आधारित न हो।
निष्कर्ष (Conclusion):
सिविल प्रक्रिया
संहिता,
1908 के भाग 1 में धारा 9 से 14 तक वादों की अधिकारिता, सम-सुभीत
वाद का निषेध, पूर्व न्याय का सिद्धांत और विदेशी न्यायालयों
के निर्णयों की बाध्यता को स्पष्ट किया गया है।
- प्रमुख सिद्धांत:
- सिविल न्यायालयों की व्यापक
अधिकारिता (धारा 9)
- सम-विषयक वादों की रोकथाम (धारा 10)
- पूर्व न्याय का सिद्धांत और
वादों की अंतिमता (धारा 11)
- विदेशी न्यायालयों के निर्णयों
की बाध्यता और प्रमाणिकता (धारा 13 और
14)
- महत्व:
- इन धाराओं का उद्देश्य न्यायिक
प्रक्रियाओं की पारदर्शिता, प्रभावशीलता और
विवादों की त्वरित एवं निश्चित सुनवाई सुनिश्चित करना है।
- इससे भारतीय सिविल न्याय प्रणाली
में स्थिरता और विश्वसनीयता बनी रहती है।
FAQs: सिविल
प्रक्रिया संहिता, 1908 (भाग 1: धारा 9
से 14)
Q1: सिविल
प्रक्रिया संहिता, 1908 का भाग 1 किन
विषयों को कवर करता है?
उत्तर:
भाग 1 मुख्यतः वादों की प्रकृति, न्यायालयों की अधिकारिता, सम-सुभीत वाद का निषेध (Stay
of Suit), पूर्व न्याय (Res Judicata) और
विदेशी न्यायालयों के निर्णयों की बाध्यता जैसे विषयों को कवर करता है। इसमें धारा
9 से 14 तक प्रावधान सम्मिलित हैं।
Q2: धारा 9
के तहत कौन से वाद सिविल प्रकृति के माने जाते हैं?
उत्तर:
सिविल प्रकृति के वाद वे होते हैं जो संपत्ति, संविदा, कर्तव्य या वैयक्तिक अधिकारों से संबंधित
होते हैं। यदि किसी वाद का स्वरूप सिविल प्रकृति का है तो वह सिविल न्यायालयों के
क्षेत्राधिकार में आता है, भले ही पक्षकार सरकारी संस्थान
हो।
Q3: धारा 9
के तहत कौन से वाद अपवादस्वरूप बाहर रखे गए हैं?
उत्तर:
सिविल प्रकृति के वादों से निम्नलिखित वाद अपवादस्वरूप बाहर हैं:
- राजस्व विवाद (Revenue
Matters)
- कर निर्धारण और संबंधित विषय
- ऐसे वाद जिन पर विशेष कानून
द्वारा रोक लगाई गई हो।
Q4: धारा 10
(सम-सुभीत वाद का निषेध) का उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
धारा 10 का उद्देश्य समान विषय और पक्षकारों
के बीच समानांतर वादों की सुनवाई से बचाव करना है। यदि कोई वाद किसी सक्षम
न्यायालय में पहले से लंबित हो, तो दूसरा न्यायालय उसी विवाद
पर सुनवाई नहीं करेगा।
Q5: धारा 11
(पूर्व न्याय का सिद्धांत) के मुख्य तत्व क्या हैं?
उत्तर:
पूर्व न्याय (Res Judicata) के मुख्य तत्व
हैं:
1. वाद
का विषय समान हो।
2. पक्षकार
समान हों।
3. मामला
किसी सक्षम न्यायालय द्वारा निर्णीत हो।
4. निर्णय
अंतिम और बाध्यकारी हो।
Q6: धारा 11
के तहत पूर्व न्याय का सिद्धांत क्यों महत्वपूर्ण है?
उत्तर:
पूर्व न्याय का सिद्धांत न्यायिक संसाधनों को बचाने और विवादों की
पुनरावृत्ति से बचने में मदद करता है। यह न्यायिक निश्चितता और विवादों की अंतिमता
सुनिश्चित करता है।
Q7: धारा 12
का क्या प्रावधान है?
उत्तर:
धारा 12 यह स्पष्ट करती है कि यदि किसी वाद का
विषय किसी अन्य न्यायालय में विचाराधीन है, तो वही विवाद
दोबारा अन्य न्यायालय में नहीं उठाया जा सकता।
Q8: धारा 13
के तहत विदेशी न्यायालयों के निर्णय कब बाध्यकारी नहीं होते?
उत्तर:
विदेशी न्यायालयों के निर्णय निम्नलिखित परिस्थितियों में बाध्यकारी
नहीं होते:
1. निर्णय
किसी अयोग्य न्यायालय द्वारा दिया गया हो।
2. प्राकृतिक
न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हो।
3. निर्णय
धोखाधड़ी पर आधारित हो।
4. भारतीय
कानून के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन हो।
Q9: धारा 14
के तहत विदेशी न्यायालयों के निर्णयों की प्रमाणिकता पर क्या नियम
हैं?
उत्तर:
धारा 14 यह कहती है कि यदि किसी विदेशी
न्यायालय द्वारा पारित निर्णय को भारतीय न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है,
तो उसे सही माना जाएगा जब तक कि इसका खंडन न किया जाए।
Q10: क्या
धारा 10 और धारा 11 में अंतर है?
उत्तर:
धारा 10: सम-सुभीत वाद का निषेध (Stay
of Suit) का सिद्धांत लागू होता है जब समान विषय और पक्षकारों के
बीच एक वाद लंबित हो।
धारा 11: पूर्व न्याय (Res
Judicata) का सिद्धांत लागू होता है जब किसी विवाद का निर्णय किसी
सक्षम न्यायालय द्वारा किया जा चुका हो और वही विवाद पुनः प्रस्तुत किया जाए।
Q11: क्या
सिविल न्यायालयों का अधिकार कभी बाधित हो सकता है?
उत्तर:
हाँ, सिविल न्यायालयों का अधिकार बाधित हो
सकता है यदि किसी अन्य विशेष कानून द्वारा किसी वाद को सिविल न्यायालय के अधिकार
क्षेत्र से बाहर रखा गया हो, जैसे राजस्व विवाद या कर
निर्धारण।
Q12: धारा 13
और धारा 14 में क्या अंतर है?
उत्तर:
- धारा
13: विदेशी न्यायालयों के निर्णयों की
बाध्यता को निर्धारित करती है।
- धारा 14:
विदेशी न्यायालयों के निर्णयों की प्रमाणिकता की मान्यता को
दर्शाती है।
Q13: धारा 10
के तहत वाद के निषेध की शर्तें क्या हैं?
उत्तर:
धारा 10 के तहत निषेध की शर्तें हैं:
1. वाद
का विषय और पक्षकार समान होने चाहिए।
2. पहला
वाद किसी सक्षम न्यायालय में लंबित हो।
3. दूसरा
वाद उसी विषय पर आधारित हो।
Q14: धारा 11
के सिद्धांत को भारतीय संविधान में कैसे मान्यता दी गई है?
उत्तर:
Daryao v. State of U.P. (AIR 1961 SC 1457) मामले में,
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पूर्व न्याय का सिद्धांत भारतीय संविधान
के अनुच्छेद 226 और अनुच्छेद 32 के तहत
भी लागू होता है, ताकि विवादों की अंतिमता सुनिश्चित हो सके।
Q15: धारा 14
के तहत कौन से निर्णय भारतीय न्यायालयों में मान्य नहीं होते?
उत्तर:
ऐसे निर्णय जो:
- अयोग्य न्यायालय द्वारा पारित हुए
हों।
- प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का
उल्लंघन करते हों।
- धोखाधड़ी पर आधारित हों।
- भारतीय कानून के मूल सिद्धांतों
का उल्लंघन करते हों।
Q16: क्या
धारा 12 और धारा 10 में कोई समानता है?
उत्तर:
हाँ, धारा 12 और धारा 10
दोनों का उद्देश्य समान वादों की पुनरावृत्ति को रोकना है, लेकिन धारा 12 वाद की बार-बार प्रस्तुति को निषिद्ध
करती है जबकि धारा 10 सम-सुभीत वाद की सुनवाई को रोकती है।
Q17: धारा 9
और धारा 11 में क्या अंतर है?
उत्तर:
- धारा 9:
वादों की सिविल प्रकृति और न्यायालय की अधिकारिता को स्पष्ट
करती है।
- धारा 11:
पूर्व न्याय (Res Judicata) का सिद्धांत
लागू करती है और एक बार निर्णीत विवाद को दोबारा उठाने से रोकती है।
Q18: सिविल
प्रक्रिया संहिता, 1908 का उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का उद्देश्य
सिविल न्यायालयों में वादों की सुनवाई, विवादों का त्वरित
समाधान और न्यायिक प्रक्रियाओं में पारदर्शिता सुनिश्चित करना है।
Q19: क्या
धारा 9 में संवैधानिक वाद भी शामिल हैं?
उत्तर:
नहीं, धारा 9 केवल सिविल
प्रकृति के वादों को कवर करती है। संवैधानिक वाद उच्च न्यायालय और सर्वोच्च
न्यायालय के क्षेत्राधिकार में आते हैं।
Q20: क्या
सिविल न्यायालय विदेशी न्यायालयों के आदेश को संशोधित कर सकते हैं?
उत्तर:
नहीं, सिविल न्यायालय विदेशी न्यायालयों के
आदेश को संशोधित नहीं कर सकते, लेकिन वे धारा 13 और धारा 14 के तहत इसकी वैधता और बाध्यता की समीक्षा
कर सकते हैं।