सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का भाग 1 साधारणतः वादों के विषय में,रेखांकित करता है तथा इस भाग में धारा 15 व 25 को सम्मिलित किया गया है तथा धारा 15 से 25 तक "वाद करने का स्थान" को रखा गया है।
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC, 1908) की धारा 15 से 25 का विश्लेषण यह स्पष्ट करता है कि न्यायिक प्रक्रिया में वाद प्रस्तुत करने, स्थानांतरण और क्षेत्राधिकार से संबंधित प्रावधानों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इन धाराओं का मूल उद्देश्य वादियों और प्रतिवादियों को एक न्यायसंगत, सुलभ और निष्पक्ष न्याय प्रणाली प्रदान करना है।
1. वाद के उचित न्यायालय में दायर करने का सिद्धांत:
धारा 15 यह सुनिश्चित करती है कि वादी वाद उसी न्यायालय में दायर करे जो न्यूनतम सक्षम हो, जिससे उच्च न्यायालयों का बोझ कम हो और छोटे वादों का त्वरित निपटारा हो सके। इससे न्यायालयों में न्यायिक संसाधनों का कुशल उपयोग होता है और छोटे वादों को जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में सुना जाता है।
2. अचल संपत्ति से संबंधित वादों का क्षेत्राधिकार:
धारा 16 और 17 यह सुनिश्चित करती हैं कि अचल संपत्ति से जुड़े वाद उसी न्यायालय में दायर किए जाएँ जहाँ संपत्ति स्थित हो, जिससे भौगोलिक क्षेत्राधिकार सुनिश्चित हो सके। धारा 18 इस स्थिति में मार्गदर्शन करती है जहाँ क्षेत्राधिकार अनिश्चित हो, ताकि वाद को निकटतम न्यायालय में स्थानांतरित किया जा सके।
3. व्यक्तिगत और संपत्ति हानि के मामलों का क्षेत्राधिकार:
धारा 19 और 20 उन वादों पर लागू होती हैं जो व्यक्तिगत हानि या चल संपत्ति को नुकसान पहुँचाने से संबंधित हैं। इन धाराओं के माध्यम से वादी को यह विकल्प मिलता है कि वह या तो प्रतिवादी के निवास स्थान पर या जहाँ हानि हुई हो, वहाँ वाद प्रस्तुत कर सके। यह सिद्धांत वादी को न्याय पाने की सुविधा प्रदान करता है और प्रतिवादी की उपस्थिति सुनिश्चित करता है।
4. क्षेत्राधिकार पर आपत्ति और स्थानांतरण की शक्ति:
धारा 21 वाद के प्रारंभिक चरण में क्षेत्राधिकार पर आपत्ति उठाने की आवश्यकता को रेखांकित करती है। यदि यह आपत्ति प्रारंभ में नहीं उठाई जाती, तो बाद में इसे नहीं माना जाएगा। धारा 22 से 24 स्थानांतरण और वाद की वापसी से संबंधित प्रावधानों को स्पष्ट करती हैं, जहाँ न्यायालय वादी और प्रतिवादी दोनों की सुविधा और न्याय के हित में वाद को अन्य न्यायालयों में स्थानांतरित कर सकता है।
5. उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय की स्थानांतरण शक्ति:
धारा 24 उच्च न्यायालय और जिला न्यायालय को किसी भी वाद को स्थानांतरित या वापस लेने की शक्ति देती है, जबकि धारा 25 सर्वोच्च न्यायालय को देशभर के किसी भी वाद को स्थानांतरित करने का अधिकार देती है। यह शक्ति उन मामलों में विशेष रूप से महत्वपूर्ण होती है जहाँ निष्पक्ष और त्वरित न्याय के लिए वाद को स्थानांतरित करने की आवश्यकता हो।
6. महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णयों का प्रभाव:
किरण सिंह बनाम चौधरी (AIR 1957 SC 340) और कठियार बनाम यूनाइटेड इंजीनियरिंग वर्क्स (AIR 1976 SC 2313) जैसे निर्णय क्षेत्राधिकार की आपत्ति और स्थानांतरण प्रक्रिया के नियमों को स्पष्ट करते हैं, जिससे वादियों और प्रतिवादियों को न्यायिक प्रक्रिया के प्रति जागरूक किया गया है।
धारा 15:
निम्नतम सक्षम न्यायालय में वाद करना (Court of Lowest Grade
Competent to Try It)
अर्थ:
वादी को वाद उसी
न्यायालय में दायर करना चाहिए जो उस वाद की सुनवाई और निर्णय के लिए न्यूनतम
सक्षमता रखता हो।
- नियम:
1. वाद
की प्रकृति और मूल्य के अनुसार न्यूनतम सक्षम न्यायालय का चयन।
2. उच्च
न्यायालयों पर बोझ कम करना।
3. छोटे
और सामान्य वादों को जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में भेजना।
उदाहरण:
- ₹5 लाख तक के वाद को
सिविल जज (जूनियर डिवीजन) द्वारा सुना जा सकता है।
- ₹5 लाख से अधिक मूल्य
वाले वाद को सिविल जज (सीनियर डिवीजन) द्वारा सुना जाएगा।
व्यवहारिक
दृष्टि से:
- यदि वादी जानबूझकर उच्च न्यायालय
में वाद करता है तो उच्च न्यायालय इसे उचित क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय में
स्थानांतरित कर सकता है।
- संबंधित निर्णय:
- किरण सिंह बनाम
चौधरी, AIR 1957 SC 340:
यदि न्यायालय की सक्षमता पर कोई आपत्ति प्रारंभिक चरण में
नहीं उठाई जाती है, तो बाद में आपत्ति मान्य नहीं
होगी।
धारा 16:
अचल संपत्ति से संबंधित वाद (Suits Relating to Immovable
Property)
अर्थ:
अचल संपत्ति से
संबंधित वाद उसी न्यायालय में प्रस्तुत किया जाएगा जहाँ संपत्ति स्थित है।
- शामिल वाद:
1. संपत्ति
की पुनः प्राप्ति।
2. बंटवारा
और स्वामित्व अधिकार का निर्धारण।
3. बंधक
मुक्ति और संपत्ति की बिक्री।
4. कब्जा,
किराए और भूस्वामित्व विवाद।
महत्व:
- अचल संपत्ति के मामले में भौगोलिक
स्थान का निर्धारण आवश्यक है।
- अपवाद:
- न्यायालय संपत्ति को स्थानांतरित
करने के लिए सक्षम है यदि प्रतिवादी न्यायालय के क्षेत्राधिकार में रहता है।
धारा 17:
विभिन्न न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में स्थित संपत्ति (Suit
Where Immovable Property is Situated in Different Jurisdictions)
अर्थ:
जब संपत्ति विभिन्न
न्यायालयों के क्षेत्र में हो, तो वादी को अधिकार है
कि वह उस स्थान पर वाद कर सकता है जहाँ संपत्ति का कोई भी भाग स्थित है।
- नियम:
1. वादी
को न्यायालय का चयन करने की स्वतंत्रता है।
2. संपत्ति
के किसी भी भाग के क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय को संपूर्ण विवाद पर अधिकार
प्राप्त होगा।
उदाहरण:
- यदि संपत्ति का आधा भाग दिल्ली
में और आधा भाग नोएडा में स्थित हो, तो
वादी दिल्ली या नोएडा में से किसी भी न्यायालय में वाद प्रस्तुत कर सकता है।
धारा 18:
अनिश्चित क्षेत्राधिकार की स्थिति (Place of Institution of
Suit When Local Limits of Jurisdiction are Uncertain)
अर्थ:
यदि यह स्पष्ट नहीं
है कि संपत्ति किस न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में है,
तो वाद उस न्यायालय में दायर किया जा सकता है जो संपत्ति से निकटतम
रूप से संबंधित हो।
नियम:
1. जब
न्यायालय की सीमाएं अनिश्चित हों, तो उच्च न्यायालय उचित
क्षेत्राधिकार का निर्धारण करेगा।
2. न्यायालय
उस स्थान पर वाद को स्वीकार कर सकता है, जहाँ
संपत्ति आंशिक रूप से भी स्थित हो।
महत्व:
- न्यायिक भ्रम से बचने और वाद की
उचित सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए यह प्रावधान आवश्यक है।
धारा 19:
व्यक्तिगत हानि या संपत्ति की क्षति के लिए वाद (Suits for
Compensation for Wrongs to Person or Movable Property)
अर्थ:
जब किसी व्यक्ति को
व्यक्तिगत हानि हुई हो या उसकी चल संपत्ति को क्षति पहुँची हो,
तो वाद निम्न स्थानों पर दायर किया जा सकता है:
1. जहाँ
प्रतिवादी निवास करता है।
2. जहाँ
हानि या क्षति हुई है।
उदाहरण:
- किसी वाहन दुर्घटना में हुई क्षति
का वाद उस स्थान पर दायर किया जा सकता है जहाँ दुर्घटना हुई हो या जहाँ
प्रतिवादी रहता है।
महत्व:
- इस धारा का उद्देश्य वादी को अपने
वाद के लिए उचित स्थान चुनने की स्वतंत्रता देना है।
धारा 20:
अन्य वाद का स्थान (Other Suits Where to Be Instituted)
अर्थ:
धारा 20
उन वादों पर लागू होती है जो अचल संपत्ति से संबंधित नहीं हैं।
वाद
प्रस्तुत करने के स्थान:
1. जहाँ
प्रतिवादी निवास करता है, व्यवसाय करता है या
व्यक्तिगत रूप से रहता है।
2. जहाँ
वाद का कारण उत्पन्न हुआ है।
3. यदि
एक से अधिक प्रतिवादी हैं, तो किसी भी प्रतिवादी के
निवास स्थान पर वाद दायर किया जा सकता है।
महत्व:
- इस धारा का उद्देश्य न्यायालय को
उपयुक्त क्षेत्राधिकार में वाद दर्ज करने का मार्गदर्शन देना है।
- अपवाद:
- पक्षकारों की सहमति से वाद किसी
अन्य स्थान पर भी दायर किया जा सकता है।
धारा 21:
क्षेत्राधिकार पर आपत्ति (Objections to Jurisdiction)
अर्थ:
यदि प्रतिवादी को
क्षेत्राधिकार पर आपत्ति हो, तो उसे यह आपत्ति
प्रारंभिक चरण में ही उठानी चाहिए।
नियम:
- आपत्ति प्रारंभिक सुनवाई के दौरान
उठाई जानी चाहिए।
- यदि आपत्ति प्रारंभ में नहीं उठाई
जाती है, तो बाद में इसे नहीं माना जाएगा।
- महत्वपूर्ण निर्णय:
- कठियार बनाम
युनाइटेड इंजीनियरिंग वर्क्स, AIR 1976 SC 2313:
न्यायालय ने माना कि प्रारंभ में आपत्ति न उठाने पर प्रतिवादी
का अधिकार समाप्त हो जाता है।
धारा 22:
वाद का स्थानांतरण (Power to Transfer Suits)
अर्थ:
न्यायालय,
यदि यह उचित समझे, तो किसी भी वाद को किसी
अन्य सक्षम न्यायालय में स्थानांतरित कर सकता है।
कारण:
1. न्याय
के हित में।
2. वादी
और प्रतिवादी दोनों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए।
3. यदि
न्यायालय को लगता है कि स्थानांतरण से निष्पक्ष न्याय होगा।
धारा 23:
स्थानांतरण के लिए आवेदन (To Which Court Application Lies
for Transfer)
अर्थ:
वाद के स्थानांतरण
का आवेदन निम्न न्यायालयों में प्रस्तुत किया जा सकता है:
1. उच्च
न्यायालय।
2. वह
न्यायालय जहाँ वाद विचाराधीन है।
महत्व:
- उच्च न्यायालय द्वारा किसी भी वाद
का स्थानांतरण उस क्षेत्र में किया जा सकता है जहाँ उचित न्याय की संभावना
हो।
धारा 24:
उच्च न्यायालय द्वारा वाद का स्थानांतरण और वापसी (General
Power of Transfer and Withdrawal)
अर्थ:
उच्च न्यायालय या
जिला न्यायालय किसी भी वाद को:
1. स्थानांतरित
कर सकता है।
2. वापसी
करके किसी अन्य न्यायालय में भेज सकता है।
नियम:
- न्यायालय को स्थानांतरण का कारण
दर्ज करना होगा।
- नए न्यायालय में वाद को नए सिरे
से सुना जाएगा।
महत्व:
- न्याय के हित में वाद के
स्थानांतरण का प्रावधान किया गया है।
धारा 25:
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वाद का स्थानांतरण (Power of
Supreme Court to Transfer Suits, etc.)
अर्थ:
सर्वोच्च न्यायालय
के पास भारत के किसी भी न्यायालय में किसी भी वाद, अपील
या अन्य कार्यवाही को स्थानांतरित करने की शक्ति है।
कारण:
1. न्याय
के हित में।
2. पक्षकारों
के बीच निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित करने के लिए।
नियम:
- स्थानांतरण से पहले दोनों पक्षों
को सुनवाई का समुचित अवसर दिया जाएगा।
- महत्वपूर्ण निर्णय:
- के. शिवकुमार बनाम दत्ता अमल, AIR 2008 SC 282: सर्वोच्च न्यायालय ने निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित करने के लिए स्थानांतरण का आदेश दिया।
निष्कर्ष:
धारा 15 से 25 का समग्र अध्ययन यह दर्शाता है कि CPC ने वादों की सुनवाई, स्थानांतरण और क्षेत्राधिकार के निर्धारण के लिए व्यापक और न्यायसंगत प्रावधान किए हैं। ये धाराएँ न्यायालयों को अनुशासन और न्याय के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए उचित प्रक्रिया अपनाने का मार्गदर्शन देती हैं। क्षेत्राधिकार और स्थानांतरण से संबंधित ये प्रावधान न्यायालयों में कार्यकुशलता और त्वरित न्याय सुनिश्चित करने के उद्देश्य को साकार करते हैं। न्यायालयों की भूमिका केवल वादों का निपटारा करना नहीं है, बल्कि पक्षकारों को निष्पक्ष, त्वरित और सुलभ न्याय प्रदान करना भी है। CPC की इन धाराओं से न्यायिक प्रणाली में पारदर्शिता, विश्वास और विश्वसनीयता सुनिश्चित होती है, जिससे न्याय के मूल उद्देश्य की पूर्ति होती है।
सिविल प्रक्रिया
संहिता, 1908 (CPC, 1908) – धारा 15 से 25 पर विस्तृत FAQs (अक्सर
पूछे जाने वाले प्रश्न)
Q1. धारा 15
का उद्देश्य और आवश्यकता क्या है?
उत्तर:
धारा 15 का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना
है कि वाद उसी न्यायालय में दायर किया जाए जो उस वाद को सुनने और निर्णय देने के
लिए न्यूनतम सक्षम (Lowest Grade Competent Court) हो। इससे निम्नलिखित लाभ होते हैं:
- उच्च न्यायालयों पर अनावश्यक बोझ
कम होता है।
- छोटे और सामान्य वाद जिला और
अधीनस्थ न्यायालयों में सुने जा सकते हैं।
- न्यायालयों का समय और संसाधन बचता
है।
उदाहरण:
- ₹5 लाख तक के वाद को
सिविल जज (जूनियर डिवीजन) द्वारा सुना जाता है।
- ₹5 लाख से अधिक मूल्य
वाले वाद को सिविल जज (सीनियर डिवीजन) द्वारा सुना जाएगा।
न्यायिक दृष्टिकोण:
- किरण सिंह बनाम चौधरी,
AIR 1957 SC 340: यदि न्यायालय की
सक्षमता पर प्रारंभिक चरण में आपत्ति नहीं उठाई जाती है, तो बाद में इसे उठाने का अधिकार समाप्त हो जाता है।
Q2. धारा 16
के तहत अचल संपत्ति से संबंधित वाद किस न्यायालय में दायर किया जाना
चाहिए?
उत्तर:
धारा 16 के अनुसार, अचल
संपत्ति से संबंधित वाद उसी न्यायालय में दायर किया
जाएगा, जिसके अधिकार क्षेत्र में वह संपत्ति स्थित हो।
शामिल वाद:
- संपत्ति की पुनः प्राप्ति।
- स्वामित्व अधिकार का निर्धारण और
बंटवारा।
- बंधक मुक्ति और संपत्ति की
बिक्री।
- किराया,
कब्जा और भूस्वामित्व विवाद।
अपवाद:
- यदि प्रतिवादी संपत्ति के
क्षेत्राधिकार से बाहर रहता है और न्यायालय को वाद की सुनवाई उचित लगती है,
तो वाद उस न्यायालय में दायर हो सकता है जहाँ प्रतिवादी निवास
करता है।
Q3. धारा 17
के तहत विभिन्न न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में स्थित संपत्ति के
वाद का प्रावधान क्या है?
उत्तर:
जब संपत्ति विभिन्न न्यायालयों के क्षेत्राधिकार में स्थित हो,
तो वादी को यह स्वतंत्रता है कि वह उस न्यायालय में वाद दायर करे
जहाँ संपत्ति का कोई भी भाग स्थित हो।
नियम:
- संपत्ति के किसी भी भाग के अधिकार
क्षेत्र वाले न्यायालय को संपूर्ण विवाद पर अधिकार प्राप्त होगा।
- यदि संपत्ति दिल्ली और नोएडा में
है,
तो वादी दोनों में से किसी भी न्यायालय में वाद दायर कर सकता
है।
Q4. धारा 18
में अनिश्चित क्षेत्राधिकार की स्थिति में वाद कहाँ दायर किया जाएगा?
उत्तर:
यदि संपत्ति के स्थान या क्षेत्राधिकार की सीमाएं अनिश्चित हैं,
तो वाद को उस न्यायालय में दायर किया जा सकता है, जो संपत्ति से निकटतम रूप से संबंधित हो।
महत्व:
- न्यायिक भ्रम से बचने और उचित
सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए यह प्रावधान आवश्यक है।
- उच्च न्यायालय इस स्थिति में उचित
क्षेत्राधिकार का निर्धारण कर सकता है।
Q5. धारा 19
के तहत व्यक्तिगत हानि या चल संपत्ति की क्षति के वाद के लिए
उपयुक्त स्थान क्या है?
उत्तर:
जब किसी व्यक्ति को व्यक्तिगत हानि हुई हो या उसकी चल संपत्ति (Movable
Property) को क्षति पहुँची हो, तो वाद
निम्न स्थानों पर दायर किया जा सकता है:
1. जहाँ
प्रतिवादी निवास करता है या व्यवसाय करता है।
2. जहाँ
हानि या क्षति हुई है।
उदाहरण:
- यदि किसी वाहन दुर्घटना में हानि
हुई हो, तो वाद उस स्थान पर दायर किया जा
सकता है जहाँ दुर्घटना हुई या जहाँ प्रतिवादी रहता है।
Q6. धारा 20
के तहत वाद दायर करने के स्थान को निर्धारित करने का प्रावधान क्या
है?
उत्तर:
धारा 20 उन वादों पर लागू होती है जो अचल
संपत्ति से संबंधित नहीं हैं। ऐसे वाद निम्न स्थानों पर दायर किए जा सकते हैं:
1. जहाँ
प्रतिवादी निवास करता है, व्यवसाय करता है, या व्यक्तिगत रूप से रहता है।
2. जहाँ
वाद का कारण उत्पन्न हुआ है।
3. यदि
एक से अधिक प्रतिवादी हों, तो किसी भी प्रतिवादी के
निवास स्थान पर वाद दायर किया जा सकता है।
अपवाद:
- पक्षकारों की आपसी सहमति से
वाद किसी अन्य स्थान पर भी दायर किया जा सकता है।
Q7. धारा 21
के तहत क्षेत्राधिकार पर आपत्ति कब और कैसे उठाई जा सकती है?
उत्तर:
धारा 21 के अनुसार, यदि
प्रतिवादी को क्षेत्राधिकार पर आपत्ति हो, तो उसे यह आपत्ति प्रारंभिक
चरण (Preliminary Stage) में ही उठानी चाहिए।
नियम:
- आपत्ति प्रारंभिक सुनवाई के दौरान
उठाई जानी चाहिए।
- यदि आपत्ति प्रारंभ में नहीं उठाई
जाती, तो बाद में इसे नहीं माना जाएगा।
महत्वपूर्ण निर्णय:
- कठियार बनाम युनाइटेड इंजीनियरिंग
वर्क्स, AIR 1976 SC 2313:
न्यायालय ने माना कि प्रारंभ में आपत्ति न उठाने पर प्रतिवादी
का अधिकार समाप्त हो जाता है।
Q8. धारा 22
के तहत वाद स्थानांतरण का आधार और प्रक्रिया क्या है?
उत्तर:
धारा 22 के तहत, यदि
न्यायालय को उचित लगे तो वह वाद को किसी अन्य न्यायालय में स्थानांतरित (Transfer)
कर सकता है।
स्थानांतरण के
कारण:
1. न्याय
के हित में।
2. वादी
और प्रतिवादी दोनों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए।
3. यदि
न्यायालय को लगता है कि स्थानांतरण से निष्पक्ष न्याय होगा।
Q9. धारा 23
के तहत वाद स्थानांतरण का आवेदन किस न्यायालय में प्रस्तुत किया जा
सकता है?
उत्तर:
वाद स्थानांतरण का आवेदन निम्न न्यायालयों में प्रस्तुत किया जा
सकता है:
1. उच्च
न्यायालय।
2. वह
न्यायालय जहाँ वाद विचाराधीन है।
Q10. धारा 24
के तहत वाद के स्थानांतरण और वापसी की शक्तियाँ क्या हैं?
उत्तर:
धारा 24 उच्च न्यायालय और जिला न्यायालय को
किसी भी वाद, अपील, या अन्य कार्यवाही
को:
1. स्थानांतरित
(Transfer) करने।
2. वापस
(Withdraw) लेकर किसी अन्य न्यायालय में भेजने की शक्ति प्रदान करती है।
नियम:
- न्यायालय को स्थानांतरण का कारण
दर्ज करना होगा।
- नए न्यायालय में वाद को नए सिरे
से सुना जाएगा।
Q11. धारा 25
के तहत सर्वोच्च न्यायालय को वाद स्थानांतरित करने की शक्ति कब
प्राप्त होती है?
उत्तर:
धारा 25 के तहत, सर्वोच्च
न्यायालय (Supreme Court) को वाद, अपील,
या अन्य कार्यवाही को एक उच्च न्यायालय या अधीनस्थ न्यायालय से किसी
अन्य न्यायालय में स्थानांतरित करने की शक्ति प्राप्त है।
स्थानांतरण के
कारण:
1. न्याय
के हित में।
2. पक्षकारों
के बीच निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित करने के लिए।
महत्वपूर्ण निर्णय:
- के. शिवकुमार बनाम दत्ता अमल,
AIR 2008 SC 282: सर्वोच्च न्यायालय ने
निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित करने के लिए स्थानांतरण का आदेश दिया।
Q12. क्या
वाद को स्थानांतरित करने के लिए पक्षकारों की सहमति आवश्यक है?
उत्तर:
नहीं, वाद को धारा 24 और धारा 25 के तहत न्यायालय स्वतः
(Suo Motu) भी स्थानांतरित कर सकता है।
Q13. धारा 21
और धारा 24 में क्या अंतर है?
उत्तर:
- धारा 21:
- यह धारा प्रतिवादी को
क्षेत्राधिकार पर आपत्ति उठाने का अधिकार देती है।
- आपत्ति प्रारंभिक चरण में उठानी
होती है।
- धारा 24:
- यह धारा उच्च न्यायालय और जिला
न्यायालय को वाद स्थानांतरित करने और वापस लेने की शक्ति प्रदान करती है।
Q14. क्या
धारा 25 के तहत अंतर्राज्यीय वाद स्थानांतरण संभव है?
उत्तर:
हाँ, धारा 25 के तहत सर्वोच्च
न्यायालय को भारत के किसी भी न्यायालय से किसी अन्य राज्य या क्षेत्र के
न्यायालय में वाद स्थानांतरित करने की शक्ति है।
Q15. धारा 22,
23 और 24 में अंतर क्या है?
उत्तर:
- धारा 22:
वाद स्थानांतरण की शक्ति।
- धारा 23:
स्थानांतरण आवेदन प्रस्तुत करने का स्थान।
- धारा 24:
उच्च न्यायालय और जिला न्यायालय द्वारा स्थानांतरण और वापसी की
शक्ति।
Q16. क्या
धारा 24 के तहत स्थानांतरण के बाद वाद की सुनवाई नए सिरे से
होगी?
उत्तर:
हाँ, स्थानांतरण के बाद नए न्यायालय में वाद
की सुनवाई नए सिरे (De Novo) से हो सकती है,
जब तक कि न्यायालय अन्यथा निर्देश न दे।
धारा 15
से 25 के प्रावधान वाद दायर करने के स्थान,
क्षेत्राधिकार, स्थानांतरण और न्यायालय की
शक्तियों को नियंत्रित करते हैं। ये प्रावधान न्यायिक
प्रणाली को सुचारु और पारदर्शी बनाते हैं तथा पक्षकारों को न्याय दिलाने में
महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।