मुख्य बिन्दु
- दिल्ली हाईकोर्ट ने 13
मई 2025 को फैसला दिया कि बच्चों के
भरण-पोषण का पूरा खर्च पिता को उठाना होगा, भले ही मां
की कमाई ज्यादा हो।
- इस मामले में,
पिता की मासिक आय 1.75 लाख रुपये थी,
जबकि मां 75,000-80,000 रुपये प्रति माह
कमाती थीं।
- अदालत ने कहा कि मां की भावनात्मक
और शारीरिक जिम्मेदारियां पैसे से तौली नहीं जा सकतीं,
इसलिए पिता को पूरी वित्तीय जिम्मेदारी लेनी होगी।
- यह फैसला बच्चों के हितों को
प्राथमिकता देता है और माताओं की दोहरी भूमिका को मान्यता देता है।
फैसले का संक्षिप्त विवरण
यह मामला एक तलाकशुदा दंपति का है, जहां मां
बच्चों की देखभाल कर रही है और कामकाजी भी है। पिता ने अदालत से मांग की थी कि
चूंकि मां 75,000-80,000 रुपये प्रति माह कमाती है, इसलिए बच्चों के खर्च को बराबर बांटा जाए।
हाईकोर्ट का फैसला
दिल्ली
हाईकोर्ट ने पिता की मांग को खारिज करते हुए कहा कि बच्चों के भरण-पोषण की पूरी
वित्तीय जिम्मेदारी पिता पर है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि भरण-पोषण में सिर्फ
बुनियादी जरूरतें नहीं, बल्कि शिक्षा, सह-पाठ्यक्रम गतिविधियां और बच्चों की गरिमा बनाए रखना भी शामिल है।
मां की भूमिका
हाईकोर्ट
ने माना कि मां एक कामकाजी पेशेवर होने के साथ-साथ बच्चों की देखभाल का बोझ भी
उठाती है,
जिसे पैसे से मापा नहीं जा सकता। इसलिए, उसे
वित्तीय जिम्मेदारी से मुक्त रखा जाना चाहिए।
मामला
क्या है?
यह
मामला एक तलाकशुदा दंपति से संबंधित है, जहां मां
बच्चों की शारीरिक हिरासत में है और वह एक कामकाजी पेशेवर है, जो प्रति माह 75,000 से 80,000 रुपये कमाती है। पिता की मासिक आय करीब 1.75 लाख
रुपये है, और उसने अदालत से मांग की थी कि चूंकि मां भी
कमाती है, इसलिए बच्चों के खर्च को 50:50 बांटा जाए। हालांकि, दिल्ली हाईकोर्ट ने इस मांग को
खारिज कर दिया और पिता को बच्चों के भरण-पोषण का पूरा खर्च उठाने का आदेश दिया,
जिसमें महीने में 50,000 रुपये शामिल हैं।
कानूनी आधार और प्रावधान
इस
फैसले का आधार भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की
धारा 125 है, जो बच्चों के भरण-पोषण के
लिए माता-पिता की जिम्मेदारियों को परिभाषित करती है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया
कि भरण-पोषण में सिर्फ बुनियादी जरूरतें (जैसे खाना, कपड़े)
ही नहीं, बल्कि बच्चों की शिक्षा, सह-पाठ्यक्रम
गतिविधियां, और उनकी सामाजिक गरिमा बनाए रखना भी शामिल है।
यह सुनिश्चित करने के लिए कि बच्चे का जीवन स्तर प्रभावित न हो, अदालत ने पिता की आर्थिक क्षमता को प्राथमिकता दी।
अदालत के तर्क और मां की दोहरी भूमिका
हाईकोर्ट
ने मां की दोहरी भूमिका को व्यापक रूप से स्वीकार किया। अदालत ने कहा कि मां न
केवल एक कार्यरत पेशेवर है, बल्कि बच्चों की देखभाल का
पूरा भावनात्मक और शारीरिक बोझ भी उठाती है। इस बोझ को मौद्रिक शब्दों में नहीं
आंका जा सकता। अदालत ने यह भी कहा कि मां को कार्यालय के काम के बाद बच्चों की
देखभाल के लिए अतिरिक्त समय और ऊर्जा देनी पड़ती है, जो पिता
की तुलना में अधिक चुनौतीपूर्ण है। इसलिए, वित्तीय
जिम्मेदारी पिता पर डालना उचित है, खासकर जब वह आर्थिक रूप
से सक्षम है।
पिता की आय और पारदर्शिता
अदालत
ने पिता की आय के बारे में भी टिप्पणी की। पिता ने अपनी आय को स्पष्ट नहीं किया था,
और उसने ग्रॉसरी बिजनेस से होने वाली आय के बारे में विस्तृत
जानकारी नहीं दी। अदालत ने इस पर नकारात्मक निष्कर्ष निकाला और कहा कि पिता की आय
का अनुमान लगाते हुए फैसला सुनाया गया। यह दिखाता है कि अदालत पारदर्शिता और सही
जानकारी पर जोर देती है।
सामाजिक और कानूनी प्रभाव
यह
फैसला बच्चों के हितों को प्राथमिकता देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह
माताओं की अक्सर अनदेखी की जाने वाली भूमिका को मान्यता देता है,
जो न केवल वित्तीय योगदान देती हैं, बल्कि
बच्चों की देखभाल में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यह फैसला यह भी स्पष्ट
करता है कि आय के आधार पर खर्च को बराबर बांटना उचित नहीं है, खासकर जब एक माता-पिता बच्चों की दैनिक देखभाल का बोझ उठा रहा हो।
निष्कर्ष और भविष्य की दिशा
दिल्ली हाईकोर्ट का यह फैसला न केवल कानूनी दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक रूप से भी एक सकारात्मक संदेश देता है। यह बच्चों के बेहतर भविष्य और माता-पिता की जिम्मेदारियों को संतुलित करने की दिशा में एक बड़ा कदम है। भविष्य में, इस तरह के फैसले परिवार कानून में और अधिक समानता और पारदर्शिता ला सकते हैं, खासकर तलाक के बाद बच्चों की देखभाल के मामले में।