सीधा उत्तर
- भारत सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में
कहा कि भारत दुनिया भर के शरणार्थियों के लिए धर्मशाला नहीं है।
- यह बयान एक श्रीलंकाई मूल के
व्यक्ति की निर्वासन के खिलाफ याचिका खारिज करते हुए दिया गया,
जो भारत में 10 साल की सजा पूरी करने के
बाद निर्वासित हो रहा था।
- कोर्ट ने कहा कि भारत के 140
करोड़ की आबादी के साथ, यह सभी
शरणार्थियों को रखने की उम्मीद नहीं कर सकता।
- यह मामला संवेदनशील है,
और विभिन्न पक्षों के बीच मतभेद हो सकते हैं, जैसे कि मानवाधिकार समूह और राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं के बीच
संतुलन।
पृष्ठभूमि
सुप्रीम
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भारत में रहने का अधिकार केवल नागरिकों के लिए है,
और गैर-नागरिकों, जिसमें शरणार्थी भी शामिल
हैं, को विदेशी अधिनियम के तहत निपटाया जाएगा। भारत संयुक्त
राष्ट्र शरणार्थी कन्वेंशन का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है और आधिकारिक तौर पर
शरणार्थियों को मान्यता नहीं देता।
संदर्भ
यह
बयान 19
मई, 2025 को न्यायमूर्ति दीपंकर दत्ता और के
विनोद चंद्रन की बेंच द्वारा दिया गया था। कोर्ट ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 21
के तहत जीवन का अधिकार सभी को उपलब्ध है, लेकिन
यह विदेशियों को निवास का अधिकार नहीं देता।
विस्तृत सर्वेक्षण
सुप्रीम
कोर्ट के हालिया बयान, जिसमें कहा गया कि
"भारत दुनिया भर के शरणार्थियों के लिए धर्मशाला नहीं है," ने भारत की शरणार्थी नीति और कानूनी ढांचे पर व्यापक चर्चा को जन्म दिया
है। यह बयान 19 मई, 2025 को दिया गया
था, जब कोर्ट ने एक श्रीलंकाई मूल के व्यक्ति की याचिका
खारिज की, जो भारत में 10 साल की सजा
पूरी करने के बाद निर्वासित हो रहा था। इस लेख में, हम इस
बयान के संदर्भ, कानूनी आधार, और इसके
व्यापक निहितार्थों की विस्तृत जांच करेंगे।
ऐतिहासिक और कानूनी संदर्भ
भारत
ने ऐतिहासिक रूप से शरणार्थियों के लिए एक आश्रय स्थल के रूप में कार्य किया है,
जैसे कि 1947 के विभाजन के दौरान और तिब्बती
शरणार्थियों के लिए। हालांकि, भारत संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी
कन्वेंशन, 1951 और इसके 1967 प्रोटोकॉल
का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है, जिसका अर्थ है कि उसके पास कोई
औपचारिक शरणार्थी कानून नहीं है। इसके बजाय, शरणार्थी
मुद्दों को विदेशी अधिनियम, 1946 के तहत संबोधित किया जाता
है, जो गैर-नागरिकों की प्रविष्टि और निवास को विनियमित करता
है।
सुप्रीम
कोर्ट ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि अनुच्छेद 21, जो
जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है, सभी के लिए
लागू होता है, चाहे वे नागरिक हों या विदेशी। उदाहरण के लिए,
The Times of India की रिपोर्ट के अनुसार,
कोर्ट ने कहा कि रोहिंग्या शरणार्थियों को अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार उपलब्ध है, लेकिन यह निवास का
अधिकार नहीं देता।
हालिया मामला और कोर्ट का बयान
19
मई, 2025 को, सुप्रीम
कोर्ट की बेंच, जिसमें न्यायमूर्ति दीपंकर दत्ता और के विनोद
चंद्रन शामिल थे, ने एक श्रीलंकाई मूल के व्यक्ति की याचिका
खारिज कर दी, जो निर्वासन का सामना कर रहा था। India Today की रिपोर्ट के अनुसार, कोर्ट ने कहा कि भारत, जिसकी आबादी 140 करोड़ है, दुनिया भर के शरणार्थियों को रखने की
उम्मीद नहीं कर सकता। कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि याचिकाकर्ता को अपने देश लौटना होगा
या कहीं और शरण लेनी होगी।
यह
बयान विशेष रूप से रोहिंग्या शरणार्थियों के संदर्भ में भी लागू होता है,
जैसा कि The Times of India में उल्लेख किया गया है।
कोर्ट ने कहा कि रोहिंग्या को भारत में रहने का अधिकार नहीं है, और उनका निर्वासन विदेशी अधिनियम के तहत किया जाएगा। सॉलिसिटर जनरल तुषार
मेहता और अधिवक्ता कानू अग्रवाल ने राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं को उजागर किया,
जिसने इस निर्णय को और मजबूत किया।
सार्वजनिक और सामाजिक प्रतिक्रियाएं
इस
बयान ने व्यापक सार्वजनिक और सामाजिक मीडिया चर्चा को जन्म दिया है। X
पर, कई उपयोगकर्ताओं ने इस बयान को साझा किया
और टिप्पणी की। उदाहरण के लिए, X post by vedikabaisa में कहा गया, "—सुप्रीम कोर्ट का साहसिक बयान 'INDIA
IS NOT A DHARAMSHALA that can ENTERTAIN REFUGEES FROM ALL OVER THE WORLD'।" इसी तरह, IndiaToday ने कहा, "सुप्रीम
कोर्ट का बड़ा बयान: भारत धर्मशाला नहीं, दुनिया भर के
शरणार्थियों को रखने में सक्षम नहीं: SC।" ये पोस्ट
कोर्ट के बयान की तत्कालीन पुष्टि और जनता की प्रतिक्रिया को दर्शाते हैं।
हालांकि,
मानवाधिकार समूहों ने इस निर्णय पर चिंता व्यक्त की है, यह तर्क देते हुए कि यह अंतरराष्ट्रीय कानून और मानवीय मूल्यों का उल्लंघन
कर सकता है। Frontline की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि
असम-बांग्लादेश सीमा पर निर्वासन नीति संवैधानिक उल्लंघन और मानवीय संकट पैदा कर
रही है।
तुलनात्मक विश्लेषण
पिछले
मामलों की तुलना में, सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी
रोहिंग्या शरणार्थियों के निर्वासन पर इसी तरह के रुख अपनाए हैं। उदाहरण के लिए,
2021 में, कोर्ट ने कहा था कि भारत
शरणार्थियों को वापस भेजने के सिद्धांत (नॉन-रेफौलमेंट) के लिए बाध्य नहीं है,
क्योंकि यह संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है। यह निरंतरता दर्शाती
है कि कोर्ट राष्ट्रीय सुरक्षा और जनसंख्या दबाव को प्राथमिकता देता है।
तालिका:
मुख्य बिंदु और विवरण
बिंदु |
विवरण |
कोर्ट
का बयान |
भारत
धर्मशाला नहीं, दुनिया भर के शरणार्थियों
को नहीं रख सकता। |
तिथि
और बेंच |
19
मई, 2025; न्यायमूर्ति दीपंकर दत्ता और के
विनोद चंद्रन। |
संदर्भ
मामला |
श्रीलंकाई
मूल का व्यक्ति, 10 साल की सजा के बाद
निर्वासन। |
कानूनी
आधार |
विदेशी
अधिनियम, 1946; अनुच्छेद 21 जीवन का अधिकार देता है, निवास नहीं। |
भारत
की स्थिति |
संयुक्त
राष्ट्र शरणार्थी कन्वेंशन का हस्ताक्षरकर्ता नहीं। |
राष्ट्रीय
सुरक्षा चिंताएं |
सॉलिसिटर
जनरल और अधिवक्ताओं द्वारा उजागर। |
निष्कर्ष और भविष्य के निहितार्थ
यह
बयान भारत की शरणार्थी नीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ का संकेत देता है,
जो राष्ट्रीय सुरक्षा और जनसंख्या दबाव को प्राथमिकता देता है।
हालांकि, यह अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून और मानवाधिकार
समूहों के साथ तनाव पैदा कर सकता है। भविष्य में, भारत को
शरणार्थी कानूनों को औपचारिक रूप से अपनाने की आवश्यकता हो सकती है, जैसा कि International Journal of Law Management & Humanities में सुझाया गया है, ताकि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय
दायित्वों के बीच संतुलन बनाया जा सके।