नमस्ते,
दोस्तों! आपका स्वागत है LegalMitra.in पर। आज हम एक महत्वपूर्ण कानूनी विषय पर बात करेंगे, जो भारतीय दंड प्रक्रिया से जुड़ा है। हम चर्चा करेंगे धारा 202
के बारे में, जो दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC)
में है, और इसके समकक्ष धारा 225
के बारे में, जो भारतीय नागरिक सुरक्षा
संहिता (BNSS) में है। ये दोनों धाराएं प्रक्रिया
जारी करने का स्थगन यानी अदालती प्रक्रिया शुरू करने को टालने से संबंधित हैं।
अगर
आप कानून के छात्र हैं, वकील हैं, या आम नागरिक जो न्यायिक प्रक्रिया को समझना चाहते हैं, तो यह ब्लॉग पोस्ट आपके लिए बहुत उपयोगी होगा। हम सरल भाषा में हर हिस्से
को विस्तार से समझाएंगे, ताकि कोई जटिलता न लगे। चलिए शुरू
करते हैं!
पहले
समझें: प्रक्रिया जारी करने का स्थगन क्या है?
जब
कोई व्यक्ति अदालत में शिकायत (complaint) दर्ज कराता
है कि उसके खिलाफ कोई अपराध हुआ है, तो मजिस्ट्रेट (जज) को
यह तय करना होता है कि आरोपी के खिलाफ समन (summons) या
वारंट (warrant) जारी किया जाए या नहीं। लेकिन कभी-कभी,
मजिस्ट्रेट को लगता है कि शिकायत में पर्याप्त सबूत नहीं हैं या
मामले की और जांच जरूरी है। ऐसी स्थिति में, मजिस्ट्रेट
प्रक्रिया को कुछ समय के लिए रोक सकता है और जांच करवा सकता है। यही
"प्रक्रिया जारी करने का स्थगन" है।
यह
धारा मुख्य रूप से उन मामलों में लागू होती है जहां आरोपी मजिस्ट्रेट की अदालत के
क्षेत्र से बाहर रहता है। इसका उद्देश्य है कि बिना ठोस आधार के किसी को परेशान न
किया जाए,
और न्यायिक प्रक्रिया दुरुपयोग न हो। अब हम CrPC की धारा 202 को विस्तार से देखेंगे।
CrPC धारा 202: विस्तृत व्याख्या
दंड
प्रक्रिया संहिता (CrPC) 1973 की धारा 202 में तीन उप-धाराएं हैं। आइए इन्हें सरल
भाषा में तोड़कर समझें:
उप-धारा
(1):
मजिस्ट्रेट की शक्तियां और जांच का प्रावधान
- मुख्य बात: अगर मजिस्ट्रेट को कोई शिकायत मिलती है (जिसका वह संज्ञान ले सकता है या जो उसे सौंपी गई है), और आरोपी मजिस्ट्रेट के क्षेत्र से बाहर रहता है, तो मजिस्ट्रेट आरोपी के खिलाफ आदेश (समन या वारंट) जारी करने को टाल सकता है।
- क्या कर सकता है मजिस्ट्रेट?
- खुद जांच कर सकता है।
- या पुलिस अधिकारी को जांच का
आदेश दे सकता है।
- या किसी अन्य व्यक्ति (जो उसे
ठीक लगे) को जांच सौंप सकता है।
- उद्देश्य:
यह तय करना कि मामले में आगे कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार
हैं या नहीं।
- प्रतिबंध (कब जांच का आदेश नहीं
दे सकता):
- (क) अगर अपराध केवल
सेशन कोर्ट (उच्च अदालत) द्वारा ट्रायल किया जा सकता है।
- (ख) अगर शिकायत अदालत
द्वारा नहीं की गई है, तो पहले शिकायतकर्ता और मौजूद
गवाहों की शपथ पर जांच (धारा 200 के तहत) जरूरी है।
उदाहरण:
मान लीजिए दिल्ली का कोई व्यक्ति मुंबई में रहने वाले आरोपी के
खिलाफ दिल्ली की अदालत में शिकायत करता है। मजिस्ट्रेट सोचता है कि शिकायत सच्ची
है या नहीं, तो वह जांच करवा सकता है ताकि बिना वजह आरोपी को
दिल्ली बुलाना न पड़े।
उप-धारा
(2):
जांच के दौरान गवाहों का बयान
- मुख्य बात:
जांच के समय, मजिस्ट्रेट अगर जरूरी समझे
तो गवाहों के शपथ पर बयान ले सकता है।
- विशेष मामला:
अगर अपराध केवल सेशन कोर्ट द्वारा ट्रायल किया जा सकता है,
तो मजिस्ट्रेट शिकायतकर्ता से कहेगा कि वह अपने सभी गवाहों को
पेश करे, और उनकी शपथ पर जांच करेगा।
- उद्देश्य:
यह सुनिश्चित करना कि मामले में मजबूत सबूत हैं, खासकर गंभीर अपराधों में।
उदाहरण:
अगर शिकायत हत्या जैसे गंभीर अपराध की है (जो सेशन कोर्ट में ट्रायल
होता है), तो मजिस्ट्रेट सभी गवाहों को बुलाकर उनके बयान
रिकॉर्ड करेगा।
उप-धारा
(3):
गैर-पुलिस जांचकर्ता की शक्तियां
- मुख्य बात:
अगर जांच कोई गैर-पुलिस व्यक्ति कर रहा है, तो उसे पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी जैसी शक्तियां मिलती हैं,
सिवाय बिना वारंट गिरफ्तारी की।
- उद्देश्य:
जांच निष्पक्ष और प्रभावी हो, लेकिन
दुरुपयोग न हो।
यह
धारा न्यायिक प्रक्रिया को मजबूत बनाती है और फर्जी शिकायतों को रोकती है।
BNSS धारा 225: विस्तृत व्याख्या
भारतीय
नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS)
2023 की धारा 225 CrPC की धारा 202 का आधुनिक संस्करण है। यह भी तीन उप-धाराओं में बंटी है। BNSS नई कानून है जो CrPC की जगह लेगी, और इसमें कुछ बदलाव हैं ताकि प्रक्रिया तेज और सरल हो। आइए देखें:
उप-धारा
(1):
मजिस्ट्रेट की शक्तियां और जांच का प्रावधान
·
मुख्य बात:
मजिस्ट्रेट को शिकायत मिलने पर (जिसका वह संज्ञान ले सकता है या जो
उसे सौंपी गई है), और आरोपी उसके क्षेत्र से बाहर रहता है,
तो वह आरोपी के खिलाफ आदेश जारी करने को टाल सकता है।
क्या कर सकता है मजिस्ट्रेट?
o खुद
जांच कर सकता है।
o पुलिस
अधिकारी को जांच सौंप सकता है।
o या
किसी अन्य व्यक्ति को जांच का निर्देश दे सकता है।
·
उद्देश्य:
कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार हैं या नहीं, यह
तय करना।
प्रतिबंध
(कब जांच का आदेश नहीं दे सकता):
o (क) अगर अपराध केवल सेशन कोर्ट द्वारा ट्रायल किया जा सकता है।
o (ख) अगर शिकायत अदालत द्वारा नहीं की गई है, तो पहले
शिकायतकर्ता और गवाहों की शपथ पर जांच (धारा 223 के तहत)
जरूरी है।
नोट:
यहां "परिवाद" की जगह "शिकायत"
शब्द इस्तेमाल हुआ है, जो सरल है। धारा संख्याएं भी बदली हैं
(CrPC की धारा 192 अब BNSS की 212 है, और धारा 200
अब 223 है)।
उप-धारा
(2):
जांच के दौरान गवाहों का बयान
- मुख्य बात:
जांच में मजिस्ट्रेट गवाहों के शपथ पर बयान ले सकता है अगर
जरूरी लगे।
- विशेष मामला:
अगर अपराध केवल सेशन कोर्ट का है, तो
शिकायतकर्ता से सभी गवाहों को पेश करने और उनकी जांच करने को कहा जाएगा।
- उद्देश्य:
CrPC जैसा ही, लेकिन भाषा थोड़ी आधुनिक
है।
उप-धारा
(3):
गैर-पुलिस जांचकर्ता की शक्तियां
- मुख्य बात:
गैर-पुलिस व्यक्ति को पुलिस थाने के प्रभारी जैसी शक्तियां
मिलती हैं, सिवाय बिना वारंट गिरफ्तारी की।
- उद्देश्य:
जांच प्रभावी हो।
BNSS
में मुख्य फोकस डिजिटल और तेज प्रक्रिया पर है, लेकिन इस धारा में CrPC से ज्यादा बदलाव नहीं हैं।
मुख्य
समानताएं: दोनों में जांच का प्रावधान, प्रतिबंध, और शक्तियां एक जैसी हैं। मुख्य अंतर:
BNSS में भाषा सरल है, और यह नई संहिता का
हिस्सा है जो 1 जुलाई 2024 से लागू हुई
है। CrPC पुरानी है, लेकिन BNSS
इसे रिप्लेस कर रही है।
निष्कर्ष: इन धाराओं का महत्व
धारा
202
CrPC और धारा 225 BNSS न्यायिक प्रक्रिया में
संतुलन बनाती हैं। ये सुनिश्चित करती हैं कि आरोपी को बिना वजह परेशान न किया जाए,
और शिकायत में सच्चाई की जांच हो। खासकर जब आरोपी दूर रहता है,
तो यह धारा यात्रा और समय की बचत करती है। अगर आप किसी कानूनी मामले
में फंस गए हैं, तो हमेशा वकील से सलाह लें।
अगर
आपको यह पोस्ट पसंद आई, तो शेयर करें और कमेंट में
बताएं कि अगला विषय क्या हो। LegalMitra.in पर और भी
कानूनी जानकारियां पढ़ें। धन्यवाद!
(नोट: यह व्याख्या सामान्य जानकारी के लिए है। कानूनी सलाह के लिए पेशेवर
वकील से संपर्क करें।)

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