तारीख:
12 फरवरी 2025
कोर्ट: उत्तराखंड हाईकोर्ट
न्यायाधीश: माननीय श्री मनोज कुमार
तिवारी
मामला क्या था?
इस केस में एक
महिला ने अपने पति के खिलाफ धारा 125 दंड
प्रक्रिया संहिता (CrPC) के तहत
भरण-पोषण की मांग की थी। महिला का कहना था कि वह उसकी कानूनी पत्नी है और उसकी कोई
आय नहीं है। ऐसे में पति को उसका भरण-पोषण देना चाहिए।
अब तक क्या-क्या
हुआ?
1. 25
अप्रैल 2005 को महिला
ने आवेदन दिया।
2. 5
मार्च 2008 को न्यायिक
मजिस्ट्रेट, रुद्रप्रयाग ने फैसला सुनाया और पति को ₹1000/-
प्रतिमाह भरण-पोषण देने का आदेश दिया।
3. इसके
बाद धारा 127 CrPC के
तहत महिला ने रकम बढ़ाने की अर्जी लगाई।
4. 24
सितंबर 2010 को
भरण-पोषण बढ़ाकर ₹2000/- प्रतिमाह किया गया।
5. फिर
24
अगस्त 2015 को इसे और
बढ़ाकर ₹5000/- प्रतिमाह कर
दिया गया।
पति ने क्या किया?
पति ने इस फैसले को
चुनौती दी और धारा 397 CrPC के तहत सेशन्स जज रुद्रप्रयाग के यहां अपील की।
01 सितंबर 2016 को उसकी अपील भी खारिज
कर दी गई।
हाईकोर्ट में
याचिका
अंत में पति ने धारा
482
CrPC
के तहत उत्तराखंड हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की।
12 फरवरी 2025 को इस मामले में सुनवाई
हुई।
- याचिकाकर्ता (पति) की तरफ से कोई
वकील उपस्थित नहीं था।
- महिला की तरफ से श्री जयवर्धन
कंडपाल पेश हुए।
हाईकोर्ट ने क्या
कहा?
कोर्ट ने साफ कहा
कि धारा 127 CrPC के
तहत यदि परिस्थितियों में बदलाव होता है, तो मजिस्ट्रेट
भरण-पोषण की राशि को बढ़ा सकता है।
कोर्ट ने सभी
पुराने आदेशों को देखा और पाया कि
- मजिस्ट्रेट का फैसला और सेशन्स जज
का निर्णय कानून के अनुरूप हैं।
अंतिम फैसला:
याचिका खारिज।
महिला को ₹5000/- प्रतिमाह भरण-पोषण मिलता रहेगा।
निष्कर्ष
उत्तराखंड उच्च
न्यायालय का यह फैसला भरण-पोषण (Maintenance) के अधिकार
और उसके उचित निर्धारण की दिशा में एक अहम कानूनी मिसाल है। इस निर्णय ने दो मुख्य
सिद्धांतों को मज़बूती से सामने रखा है — पहला, पत्नी का
अपने पति की आय में वृद्धि के अनुपात में भरण-पोषण पाने का कानूनी अधिकार और दूसरा, मुद्रास्फीति व जीवन-यापन की बढ़ती
लागत को ध्यान में रखते हुए भरण-पोषण राशि में समय-समय पर संशोधन की आवश्यकता।
इस प्रकरण में
अदालत ने यह बिल्कुल स्पष्ट किया कि जब पति की आय में कई गुना वृद्धि हो जाती है
और पत्नी अब भी पुरानी नाममात्र की भरण-पोषण राशि पर आश्रित रहती है,
तो यह न्यायसंगत नहीं है। खास तौर पर जब पत्नी के पास अपनी कोई आय
का साधन नहीं है और वह आर्थिक कठिनाई में जीवन व्यतीत कर रही हो। अदालत ने यह भी
माना कि धारा 146 BNSS का उद्देश्य ही यही है कि
परिस्थितियों में बदलाव के अनुसार भरण-पोषण की राशि को संशोधित किया जा सके।
यह फैसला खासतौर पर
उन मामलों के लिए एक मार्गदर्शन है, जहाँ
पति-पत्नी के बीच तलाक या अलगाव के बाद भी पत्नी के पुनर्विवाह न करने या खुद का
आर्थिक सहारा न होने की स्थिति बनी रहती है। अदालत ने कहा कि ऐसी स्थिति में पति
को अपनी बढ़ती आमदनी का लाभ केवल अपने लिए नहीं रखना चाहिए, बल्कि
पत्नी की बुनियादी ज़रूरतें और गरिमामय जीवन सुनिश्चित करने के लिए भी जिम्मेदार
रहना चाहिए।
साथ ही,
न्यायालय ने भविष्य में ऐसी याचिकाओं पर विचार करते समय
मुद्रास्फीति दर, जीवन-यापन की लागत, और दोनों पक्षों की वर्तमान आय और जिम्मेदारियों को ध्यान में रखने की आवश्यकता पर भी बल दिया।
इस निर्णय से यह
संदेश भी जाता है कि कानून सामाजिक न्याय और जीवन की गरिमा के सिद्धांत पर
आधारित है। पति और पत्नी भले ही साथ न रह रहे हों,
लेकिन एक विवाहित महिला को अपने पूर्व पति की आय और जीवन स्तर के
अनुरूप सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार है।
इस प्रकार,
उत्तराखंड उच्च न्यायालय का यह फैसला न केवल पति-पत्नी के विवादों
में भरण-पोषण निर्धारण की कानूनी व्यवस्था को मजबूत करता है, बल्कि इसे व्यावहारिक और मानवीय दृष्टिकोण से भी स्थापित करता है।
केस संख्या: C482/1151/2016
याचिकाकर्ता बनाम प्रतिवादी: श्री राघव सिंह बनाम श्रीमती प्रिया सिंह