भीमराव रामजी अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के महू छावनी (अब डॉ. अंबेडकर नगर) में हुआ था। वे महार जाति से थे, जो उस समय समाज में अछूत मानी जाती थी। उनके पिता रामजी मालोजी सकपाल ब्रिटिश भारतीय सेना में सुबेदार थे और शिक्षा को महत्व देते थे।
बचपन
से ही अंबेडकर ने जातिगत भेदभाव झेला। स्कूल में उन्हें पानी तक छूने की इजाजत
नहीं थी,
फिर भी वे पढ़ाई में अव्वल रहे। उन्होंने एलफिंस्टन कॉलेज से स्नातक
किया और फिर उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका और इंग्लैंड गए।
- कोलंबिया विश्वविद्यालय (अमेरिका)
से 1915
में एम.ए. और 1917 में पीएच.डी.।
- लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स
से डी.एससी. की उपाधि।
- ग्रेज़ इन (लंदन)
से बार-एट-लॉ की डिग्री।
संविधान निर्माता के रूप में योगदान
1947
में भारत की आज़ादी के बाद, डॉ. अंबेडकर को
स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण की ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त
किया गया। उन्होंने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी,
लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में परिभाषित
करने वाले संविधान का नेतृत्व किया।
संविधान
में उनके विचारों के प्रमुख बिंदु:
1.समानता
का अधिकार (Right to Equality)
– जाति, धर्म, लिंग के
आधार पर भेदभाव का निषेध।
2. अस्पृश्यता
का उन्मूलन (Article 17)
– जो उनके जीवन का केंद्रीय लक्ष्य था।
3.अनुसूचित
जातियों व जनजातियों के लिए आरक्षण – सामाजिक
न्याय की स्थापना हेतु।
4.बुनियादी
अधिकारों और कर्तव्यों की स्थापना।
5. धर्म
की स्वतंत्रता और सामाजिक सुधार की दृष्टि।
न्यायिक दृष्टिकोण और सामाजिक न्याय
डॉ.
अंबेडकर का मानना था कि "कानून के समक्ष
समानता" ही सच्चा लोकतंत्र है। उन्होंने
न्यायशास्त्र में गहन अध्ययन किया और भारतीय समाज की संरचना को एक न्यायिक
दृष्टिकोण से पुनर्निर्माण की मांग की।
उन्होंने
कहा था:
“If
I find the Constitution being misused, I shall be the first to burn it.”
यह
वक्तव्य इस बात का संकेत था कि वे किसी भी अन्याय के पक्ष में नहीं थे—even
if वह संविधान से आता हो। उनका पूरा जीवन न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्शों को स्थापित करने के लिए समर्पित था।
डॉ. अंबेडकर की प्रमुख पुस्तकें और उनके विचार
डॉ.
अंबेडकर ने अनेक ग्रंथ लिखे जो आज भी सामाजिक चेतना और बौद्धिक विमर्श का केंद्र
हैं। यहाँ कुछ प्रमुख पुस्तकों और उनके विषयों की चर्चा की जा रही है:
1.
"Annihilation of Caste" (1936)
- यह एक क्रांतिकारी भाषण था,
जो जाति व्यवस्था पर तीव्र प्रहार करता है।
- इसमें उन्होंने हिंदू धर्म के
सामाजिक ढांचे की आलोचना की और सुधार की आवश्यकता जताई।
- आर्य समाज जैसे संगठनों की आलोचना
करते हुए, उन्होंने जाति को समाप्त किए बिना
भारत के लोकतंत्र की कल्पना को व्यर्थ बताया।
2.
"The Buddha and His Dhamma" (1957, मरणोपरांत प्रकाशित)
- यह उनकी अंतिम और सबसे आध्यात्मिक
रचना थी।
- इसमें उन्होंने भगवान बुद्ध के
विचारों को सामाजिक क्रांति से जोड़ा।
- यह ग्रंथ आज भी बौद्ध अनुयायियों
के लिए मार्गदर्शक है।
3.
"Who Were the Shudras?" (1946)
- इसमें उन्होंने वर्ण व्यवस्था की
उत्पत्ति का ऐतिहासिक विश्लेषण किया।
- उन्होंने शूद्रों को मूल आर्य
बताया और ब्राह्मणवाद को शूद्रों के पतन के लिए जिम्मेदार ठहराया।
4.
"The Problem of the Rupee: Its Origin and Its Solution" (1923)
- यह अर्थशास्त्र पर उनकी पीएचडी
थीसिस थी।
- इसमें भारतीय मुद्रा प्रणाली,
ब्रिटिश नीति और सोने के मानक पर विश्लेषण है।
5.
"Thoughts on Linguistic States" (1955)
- राज्यों का भाषायी आधार पर
पुनर्गठन कैसे होना चाहिए, इस पर उनकी गहरी
सोच थी।
- उन्होंने चेतावनी दी थी कि भाषायी
आधार पर राज्य निर्माण से राष्ट्रवाद कमजोर हो सकता है।
राजनीतिक जीवन और संघर्ष
डॉ.
अंबेडकर ने केवल विचारों तक सीमित न रहकर सामाजिक व राजनीतिक आंदोलन चलाए:
- बहिष्कृत हितकारिणी सभा (1924)
– दलितों के अधिकारों के लिए।
- महाड़ सत्याग्रह (1927)
– सार्वजनिक जल स्रोतों तक दलितों की पहुँच के लिए।
- नासिक का कालाराम मंदिर आंदोलन
–
मंदिरों में प्रवेश के अधिकार के लिए।
राजनीतिक
प्रयास:
- स्वतंत्र मजदूर पार्टी (1936)
– बाद में इसका नाम शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन पड़ा।
- 1942 में वायसराय की
कार्यकारी परिषद में श्रम मंत्री रहे।
- 1951 में संविधान मंत्री
पद से इस्तीफा दिया क्योंकि हिंदू कोड बिल पास नहीं हो पाया।
धर्म परिवर्तन और बौद्ध धर्म की दीक्षा
14
अक्टूबर 1956 को नागपुर में डॉ. अंबेडकर ने
लगभग 5 लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली।
उन्होंने कहा:
"I
was born a Hindu, but I will not die a Hindu."
बौद्ध
धर्म उनके लिए केवल आध्यात्मिक रास्ता नहीं, बल्कि
सामाजिक क्रांति का माध्यम था। उन्होंने 'त्रिशरण' और 'पंचशील' को नए जीवन मूल्य
के रूप में अपनाया।
निधन और विरासत
6
दिसंबर 1956 को डॉ. अंबेडकर का निधन हो गया।
उनका समाधि स्थल 'चैत्यभूमि', मुंबई में स्थित है, जो आज लाखों अनुयायियों के लिए
तीर्थस्थल है।
उनकी
विरासत में शामिल हैं:
- संविधान निर्माता
के रूप में सम्मान।
- दलित चेतना और सामाजिक न्याय
का प्रतीक।
- साहित्य,
शिक्षा, राजनीति और धर्म
में क्रांतिकारी योगदान।
- भारत रत्न (1990)
– भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान, मरणोपरांत।
आज के भारत के लिए डॉ. अंबेडकर के विचारों की प्रासंगिकता
आज
जब भारत जातिगत भेदभाव, आर्थिक असमानता और सामाजिक
असंतुलन से जूझ रहा है, डॉ. अंबेडकर के विचार अधिक प्रासंगिक
हो गए हैं। उन्होंने शिक्षा को सबसे बड़ा हथियार बताया:
“शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो।”
उनकी
दृष्टि एक ऐसे भारत की थी, जहाँ हर व्यक्ति को समान
अवसर, सम्मान और न्याय मिले—चाहे
उसका जन्म किसी भी जाति, धर्म या वर्ग में हुआ हो।
निष्कर्ष
डॉ.
भीमराव अंबेडकर का जीवन भारतीय इतिहास का सबसे प्रेरणादायक अध्याय है। उन्होंने
अपने जीवन से यह सिद्ध किया कि सामाजिक उत्पीड़न को ज्ञान,
संघर्ष और नैतिक साहस से पराजित किया जा सकता है।
वे
केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक विचार,
एक आंदोलन और एक संविधान हैं। उनका जीवन
आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा।