हाल
ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फैसला दिया, जो तमिलनाडु
सरकार और राज्यपाल के बीच टकराव से जुड़ा था। इस फैसले ने देश की संघीय
व्यवस्था (Federal Structure) और उसमें राज्यपाल की
भूमिका को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है। चलिए इसे समझते हैं।
मामला
क्या था?
तमिलनाडु
सरकार ने कुछ विधेयक (बिल) पास किए थे, लेकिन
राज्यपाल ने उन पर बहुत समय तक कोई फैसला नहीं लिया — न मंजूरी दी, न ही खारिज किया। ये बिल राज्य के लिए
जरूरी थे, पर महीनों तक फँसे रहे।
आख़िरकार,
सरकार सुप्रीम कोर्ट गई और कहा कि ये बिल अब तक मंजूरी नहीं मिलने
से सरकार का काम रुक रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल करते हुए कहा कि "राज्यपाल के पास बिल लटकाए रखने का कोई
अधिकार नहीं है", और बिलों को कानून मान लिया जाए।
सांविधानिक नियम क्या हैं?
1. अनुच्छेद
200 के तहत राज्यपाल के पास यह अधिकार होता है कि वह विधानसभा से पास हुए
विधेयक को:
o मंजूरी
दे सकते हैं,
o वापस
भेज सकते हैं,
o राष्ट्रपति
के पास भेज सकते हैं।
2. लेकिन
इसमें कोई समय-सीमा तय नहीं है कि ये निर्णय कितने दिन में लेना है। इसी का फायदा
उठाकर कई बार राज्यपाल बिलों को महीनों लटकाए रखते हैं।
3. अब
सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत विशेष अधिकार का उपयोग करके कहा कि ऐसा करना संविधान के खिलाफ है,
और बिलों को "कानून" माना जाएगा।
संघीय
व्यवस्था (Federalism) का क्या मतलब है?
भारत
एक संघीय देश है — यानी केंद्र और राज्यों की अपनी-अपनी सीमित शक्तियाँ
हैं। राज्यपाल, वैसे तो केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त
होते हैं, लेकिन उन्हें राज्य के मामलों में निष्पक्ष और
तटस्थ रहना चाहिए।
पर
असल में क्या हो रहा है?
कई
बार राज्यपाल राजनीतिक दबाव में काम करते हैं,
जिससे केंद्र और राज्यों के बीच खींचतान शुरू हो जाती है — जो संघीय
ढांचे के लिए खतरा है।
सुप्रीम
कोर्ट का संदेश क्या है?
सुप्रीम
कोर्ट ने साफ कहा:
- राज्यपाल की भूमिका संवैधानिक
रूप से सीमित है।
- वे सरकार के काम में जानबूझकर
बाधा नहीं बना सकते।
- विधेयकों पर फैसला समय पर लिया
जाना चाहिए, नहीं तो यह लोकतंत्र
और संविधान दोनों के खिलाफ है।
आगे क्या होगा?
इस
फैसले से एक ओर तो न्याय मिला, लेकिन कुछ लोग ये भी
कह रहे हैं कि अगर हर बार कोर्ट को आकर ऐसे फैसले लेने पड़ें, तो इससे संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा को नुकसान पहुँच सकता है।
और
ये भी चिंता है कि अगर राज्यपालों की भूमिका विवादित और पक्षपाती दिखे,
तो केंद्र-राज्य संबंधों में और खटास आ सकती है।
निष्कर्ष – बात साफ है:
- राज्यपाल का काम सिर्फ
"ठप्पा" लगाना नहीं है, बल्कि
संवैधानिक संतुलन बनाए रखना है।
- सरकार को काम करने देना चाहिए,
और उसमें बाधा नहीं बनना चाहिए।
- सुप्रीम कोर्ट ने इस बार साफ
संदेश दिया है — कि राजनीतिक कारणों से संविधान के साथ खिलवाड़ नहीं
चलेगा।
FAQs
प्रश्न
1:
क्या सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल को कोई आदेश दे सकता है?
उत्तर:
सीधे तौर पर नहीं। संविधान के अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल को उनके कार्यकाल के दौरान न्यायिक कार्यवाही से सुरक्षा
दी गई है।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल के फैसलों की संवैधानिक समीक्षा (Judicial
Review) कर सकती है, खासकर जब वे
लोकतांत्रिक मूल्यों या संविधान के विरुद्ध हों।
प्रश्न
2:
फिर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में क्या कहा?
उत्तर:
हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल
द्वारा विधेयकों को लंबित रखना संविधान के खिलाफ है।
तमिलनाडु सरकार ने 10 विधेयक बिना मंजूरी के
अटकाने के मुद्दे पर कोर्ट में याचिका दी थी।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल को "बिना समयसीमा
के" कोई बिल लंबित रखने का अधिकार नहीं है।
प्रश्न
3:
राज्यपाल का काम क्या होता है? क्या वे सरकार
से ऊपर हैं?
उत्तर:
नहीं। राज्यपाल एक संवैधानिक प्रमुख होते हैं, लेकिन वे मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह से काम करते हैं
(अनुच्छेद 163)।
राज्यपाल का काम है केंद्र और राज्य के बीच सेतु का काम करना,
न कि टकराव पैदा करना।
प्रश्न
4:
क्या यह फैसला राज्यों को केंद्र से ज्यादा ताकत देता है?
उत्तर:
नहीं, यह फैसला संविधान में लिखे संतुलन को
बनाए रखने की दिशा में है।
यह सिर्फ यह कहता है कि कोई भी संस्था — चाहे राज्यपाल हो या सरकार
— संवैधानिक मर्यादा से बाहर नहीं जा सकती।
प्रश्न
5:
क्या सुप्रीम कोर्ट का यह दखल गलत परंपरा बन सकता है?
उत्तर:
सिद्धांत रूप से, हाँ — अगर हर विवाद कोर्ट तक
जाए तो इससे संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा पर असर पड़ सकता है।
लेकिन जब संवैधानिक संस्थाएं (जैसे राज्यपाल) निष्पक्ष और समय पर
काम नहीं करतीं, तब न्यायपालिका ही अंतिम रास्ता होती है।
प्रश्न
6:
इससे क्या खतरा हो सकता है?
उत्तर:
- अगर राज्यपाल पक्षपातपूर्ण
व्यवहार करें तो केंद्र-राज्य संबंधों में दरार आ सकती है।
- इससे राज्यों में लोकतंत्र कमजोर
हो सकता है और संघीय ढांचा भी प्रभावित हो सकता है।
- इससे संवैधानिक संकट और
न्यायिक बोझ दोनों बढ़ सकते हैं।
प्रश्न
7:
इसका समाधान क्या है?
उत्तर:
- राज्यपालों की नियुक्ति में राजनीतिक
प्रभाव कम किया जाए।
- उनके कामकाज को संवैधानिक
सीमाओं में बाँधा जाए।
- सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्देशों
का पालन सुनिश्चित किया जाए।
- और सबसे ज़रूरी — लोकतांत्रिक
मर्यादा और संवैधानिक संतुलन को बनाए रखा जाए।