सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का भाग 1 साधारणतः वादों के विषय में, रेखांकित करता है तथा भाग 1F में धारा 35 व 35A, 35B तक को सम्मिलित किया गया है तथा धारा 35 व 35A,35B तक में"खर्चे Costs" को रखा गया है।
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Civil Procedure Code, 1908) में वाद की प्रक्रिया, पक्षकारों के अधिकार और
दायित्वों के साथ-साथ न्यायालय को विवाद के समाधान के संबंध में निर्देशित किया
गया है। वाद की समाप्ति के पश्चात् होने वाले खर्च (Cost) का
निर्धारण महत्वपूर्ण होता है, ताकि वाद का निष्पक्ष और
समयबद्ध निपटान सुनिश्चित हो सके। CPC की धारा 35,
35A और 35B खर्च से संबंधित विभिन्न
प्रावधानों का उल्लेख करती हैं, जिनका उद्देश्य अनुचित वादों
को रोकना और न्यायिक प्रक्रिया में अनुशासन बनाए रखना है। इन धाराओं के माध्यम से
न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त है कि वह वाद के पक्षकारों पर उचित और विवेकपूर्ण
खर्च डाल सके ताकि वाद की प्रक्रिया का दुरुपयोग रोका जा सके।
धारा 35:
व्यय का सामान्य निर्धारण (Costs Generally)
अर्थ:
धारा 35 के अनुसार, न्यायालय
को किसी भी वाद या कार्यवाही में वादी और प्रतिवादी को हुए व्यय (Cost) को वहन करने या न करने का आदेश देने का अधिकार प्राप्त है। यह व्यय
न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति पर निर्भर करता है और इसे मामले की परिस्थितियों को
ध्यान में रखते हुए उचित रूप से निर्धारित किया जाता है।
प्रावधान:
1. व्यय
का निर्धारण:
o न्यायालय
को यह तय करने का अधिकार है कि वाद के समापन के पश्चात किस पक्षकार को व्यय देना
होगा और कितना देना होगा।
2. विवेकाधीन
शक्ति:
o न्यायालय
यह सुनिश्चित करता है कि व्यय का आदेश वाद की परिस्थितियों और न्याय के सिद्धांतों
के अनुरूप हो।
3. वाद
के परिणाम पर निर्भर:
o सामान्यतः,
व्यय का आदेश उसी पक्ष के पक्ष में दिया जाता है जो वाद में सफल
होता है, लेकिन न्यायालय विशेष परिस्थितियों में भिन्न आदेश
भी दे सकता है।
प्रमुख केस:
Sundaram Finance Ltd. v. Abdul Samad (2018) 3 SCC 622
- सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि
धारा 35 के अंतर्गत व्यय का निर्धारण
न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति का विषय है और इसे निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके
से लागू किया जाना चाहिए।
धारा 35A:
झूठे या तुच्छ वादों के लिए अतिरिक्त व्यय (Compensatory
Costs in Respect of False or Vexatious Claims or Defences)
अर्थ:
धारा 35A के तहत, यदि
कोई पक्षकार झूठा या तुच्छ वाद (False or Vexatious Suit) दायर
करता है, तो न्यायालय उसे वाद के दूसरे पक्ष को अतिरिक्त
व्यय (Compensatory Costs) देने का आदेश दे सकता है। इस
प्रावधान का उद्देश्य न्यायालय का समय बर्बाद करने वाले अनुचित वादों पर रोक लगाना
और पक्षकारों को अनुचित वाद दायर करने से रोकना है।
प्रावधान:
1. झूठे
या तुच्छ वादों पर दंड:
o यदि
न्यायालय को यह लगता है कि वादी ने जानबूझकर झूठा, तुच्छ
या दुर्भावनापूर्ण वाद दायर किया है, तो उसे प्रतिवादी को
अतिरिक्त व्यय देने का आदेश दिया जा सकता है।
2. अधिकतम
सीमा:
o इस
प्रकार के व्यय की सीमा ₹3,000 तक निर्धारित की गई है,
हालांकि न्यायालय परिस्थितियों के अनुसार उपयुक्त राशि का आदेश दे
सकता है।
महत्व:
- न्यायालय की प्रक्रिया के
दुरुपयोग को रोकना।
- वादकारियों को अनुचित और तुच्छ
वाद दायर करने से हतोत्साहित करना।
प्रमुख केस:
Gurpreet Singh v. Chatur Bhuj Goel, AIR 1988 SC 400
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 35A
का उद्देश्य झूठे और तुच्छ वादों पर लगाम लगाना और न्यायालय की
कार्यवाही में अनुशासन बनाए रखना है।
धारा 35B:
सुनवाई में देरी पर व्यय (Costs for Delay in Proceedings)
अर्थ:
धारा 35B न्यायालय को यह अधिकार देती है कि
यदि किसी पक्षकार द्वारा अनुचित देरी की जाती है, तो वह
पक्षकार को व्यय देने का आदेश दे सकता है। इस व्यय का उद्देश्य न्यायालय की
समयसीमा और प्रक्रिया में देरी को रोकना है ताकि वाद का समयबद्ध निपटारा हो सके।
प्रावधान:
1. अनावश्यक
देरी पर दंड:
o यदि
कोई पक्षकार बिना किसी उचित कारण के सुनवाई में देरी करता है या न्यायालय की
प्रक्रिया में बाधा डालता है, तो न्यायालय उसे व्यय
देने का आदेश दे सकता है।
2. सुनवाई
में बाधा:
o यदि
किसी पक्षकार द्वारा जानबूझकर सुनवाई को लंबित रखा जाता है,
तो न्यायालय उसे उचित लागत देने का निर्देश देता है।
3. अगली
सुनवाई में भुगतान:
o न्यायालय
द्वारा आदेशित व्यय को अगली सुनवाई से पहले भुगतान करना आवश्यक होता है,
अन्यथा संबंधित पक्षकार को वाद की सुनवाई का अधिकार खोना पड़ सकता
है।
महत्व:
- न्यायालय की समयबद्ध कार्यवाही
सुनिश्चित करना।
- वाद की सुनवाई में देरी और
प्रक्रियागत बाधाओं को रोकना।
प्रमुख केस:
Salem Advocate Bar Association v. Union of India, (2005) 6 SCC 344
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 35B
का उद्देश्य वाद की सुनवाई में अनावश्यक देरी को रोकना और
समयबद्ध निपटान सुनिश्चित करना है।
भारतीय संविधान का
संबंध:
भारतीय संविधान का अनुच्छेद
21
(Article 21) यह सुनिश्चित करता है कि
प्रत्येक नागरिक को न्याय प्राप्त करने का अधिकार (Right to Fair
Trial) प्राप्त है। अनुच्छेद 21 के तहत
न्याय का समय पर निपटारा न्यायिक प्रक्रिया का एक अनिवार्य तत्व है, और सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 35, 35A और 35B
इस उद्देश्य को पूरा करती हैं। ये प्रावधान वाद की निष्पक्ष सुनवाई,
प्रक्रिया में अनुशासन और समयबद्ध निपटान सुनिश्चित करने में सहायक
हैं।
निष्कर्ष
सिविल प्रक्रिया
संहिता,
1908 की धारा 35, 35A और 35B
का मुख्य उद्देश्य वाद की प्रक्रिया में न्यायालय की कार्यवाही को
सुचारू, अनुशासित और न्यायसंगत बनाए रखना है।
- धारा 35:
व्यय का सामान्य निर्धारण करके वाद में सफल पक्षकार को उचित
व्यय प्रदान करता है।
- धारा 35A:
झूठे और तुच्छ वादों के खिलाफ अतिरिक्त व्यय लगाकर न्यायिक समय
की रक्षा करता है।
- धारा 35B:
सुनवाई में देरी करने वाले पक्षकारों पर दंडात्मक व्यय लगाकर
वाद की प्रक्रिया में समयबद्धता सुनिश्चित करता है।
इन प्रावधानों का
उचित और न्यायसंगत अनुपालन न्यायिक प्रक्रिया की प्रभावशीलता और विश्वास को बनाए
रखता है। Indian judiciary के विभिन्न निर्णयों ने
इन प्रावधानों की आवश्यकता और महत्व को लगातार रेखांकित किया है, जिससे न्याय की निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित हो सके।
FAQs
Q1: सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) में 'खर्च' (Cost) क्या होता है?
उत्तर:
CPC में ‘खर्च’ वह राशि है जो मुकदमे की प्रक्रिया के दौरान या उसके
अंत में लगाई जाती है। इसमें वकील की फीस, कोर्ट फीस,
गवाहों का खर्चा आदि शामिल होता है। मुकदमे के अंत में न्यायालय यह
तय करता है कि यह खर्च कौन वहन करेगा।
Q2: धारा 35
(Section 35) क्या है और यह कैसे लागू होती है?
उत्तर:
धारा 35 CPC का सामान्य प्रावधान है, जो मुकदमे की समाप्ति पर व्यय (Cost) का निर्धारण
करता है।
- किसे व्यय देना है:
सफल पक्षकार को आमतौर पर व्यय दिया जाता है।
- कितना व्यय:
न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति के अनुसार तय किया जाता है।
- विशेष परिस्थितियाँ:
कभी-कभी न्यायालय दोनों पक्षों को अपने-अपने व्यय वहन करने का आदेश दे सकता
है।
Q3: धारा 35A
(Section 35A) का उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
धारा 35A का उद्देश्य झूठे और तुच्छ वादों (False
or Vexatious Suits) पर रोक लगाना है।
- झूठे वादों पर दंड:
झूठे वाद दायर करने पर प्रतिपक्षी को अतिरिक्त व्यय देना होता है।
- अधिकतम सीमा:
अधिकतम ₹3,000 तक का व्यय लगाया जा सकता है।
Q4: धारा 35B
(Section 35B) क्या है और इसका उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
धारा 35B का उद्देश्य वाद की सुनवाई में
अनावश्यक देरी (Delay) को रोकना है।
- अनावश्यक देरी पर दंड:
सुनवाई में देरी करने वाले पक्षकार को प्रतिपक्षी को व्यय देना होगा।
- भुगतान न करने का परिणाम:
व्यय का भुगतान न करने पर वह पक्षकार आगे सुनवाई का अधिकार खो सकता है।
Q5: धारा 35
और 35A में क्या अंतर है?
उत्तर:
- धारा 35:
सामान्य वाद में सफल पक्षकार को व्यय देने का प्रावधान।
- धारा 35A:
झूठे और तुच्छ वादों में प्रतिपक्षी को ₹3,000 तक का अतिरिक्त व्यय देने का प्रावधान।
Q6: धारा 35B
के तहत व्यय कब लगाया जाता है?
उत्तर:
जब किसी पक्षकार द्वारा सुनवाई में अनुचित देरी की जाती है, तो न्यायालय धारा 35B के तहत उसे व्यय का भुगतान
करने का आदेश दे सकता है।
Q7: क्या
धारा 35B के तहत भुगतान न करने पर वाद समाप्त हो सकता है?
उत्तर:
हाँ, यदि आदेशित व्यय का भुगतान अगली सुनवाई
से पहले नहीं किया जाता, तो संबंधित पक्षकार सुनवाई का
अधिकार खो सकता है और वाद समाप्त हो सकता है।
Q8: धारा 35A
का उद्देश्य झूठे वादों पर रोक लगाना कैसे सुनिश्चित करता है?
उत्तर:
धारा 35A झूठे वादों पर दंडात्मक व्यय लगाकर
अनुचित मुकदमों को हतोत्साहित करती है। इससे झूठे वाद दायर करने वालों पर आर्थिक
दबाव पड़ता है और वे झूठे मुकदमों से बचते हैं।
Q9: क्या
न्यायालय धारा 35 के तहत भिन्न आदेश दे सकता है?
उत्तर:
हाँ, न्यायालय परिस्थितियों के अनुसार धारा 35
के तहत भिन्न आदेश दे सकता है। कभी-कभी न्यायालय दोनों पक्षों को
अपने-अपने व्यय वहन करने का निर्देश भी दे सकता है।
Q10: यदि
कोई पक्षकार सुनवाई में देरी करता है, तो न्यायालय क्या कर
सकता है?
उत्तर:
यदि कोई पक्षकार सुनवाई में बार-बार अनावश्यक देरी करता है, तो न्यायालय धारा 35B के तहत उसे प्रतिपक्षी को व्यय
देने का आदेश दे सकता है। भुगतान न करने पर वह पक्षकार सुनवाई का अधिकार खो सकता
है।