नमस्ते
दोस्तों! आज हम एक ऐसे विषय पर बात करने जा रहे हैं जो हमारे देश की न्याय
व्यवस्था की नींव से जुड़ा है। भारत का संविधान दुनिया के सबसे बड़े लिखित
संविधानों में से एक है, और इसमें न्यायपालिका की
स्वतंत्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए कई महत्वपूर्ण प्रावधान हैं। आज
का हमारा फोकस अनुच्छेद 234 पर है, जो
राज्य स्तर पर न्यायिक सेवा में जिला न्यायाधीशों से अलग पदों पर भर्ती की
प्रक्रिया को नियंत्रित करता है। यह अनुच्छेद सुनिश्चित करता है कि न्यायिक पदों
पर सही और योग्य लोगों की नियुक्ति हो, ताकि न्याय की
प्रक्रिया सुचारू रूप से चले।
अगर
आप कानून के छात्र हैं, या फिर न्याय व्यवस्था में
रुचि रखते हैं, तो यह पोस्ट आपके लिए खासतौर पर उपयोगी साबित
होगी। हम इसमें अनुच्छेद 234 को विस्तार से समझेंगे – इसकी
भाषा, उद्देश्य, प्रक्रिया, महत्व और कुछ वास्तविक उदाहरणों के साथ। चलिए, शुरू
करते हैं!
अनुच्छेद
234
क्या कहता है?
संविधान
के भाग VI
(राज्यों में कार्यपालिका) के अध्याय VI (अधीनस्थ
न्यायालय) में अनुच्छेद 234 आता है।
इसकी मूल भाषा हिंदी में कुछ इस प्रकार है:
अनुच्छेद
234.
“न्यायिक सेवा में जिला
न्यायाधीशों से भिन्न व्यक्तियों की भर्ती किसी राज्य की न्यायिक सेवा में जिला
न्यायाधीशों से भिन्न व्यक्तियों की नियुक्ति राज्य के राज्यपाल द्वारा राज्य लोक
सेवा आयोग और ऐसे राज्य के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले उच्च न्यायालय
से परामर्श के पश्चात् उस निमित्त बनाए गए नियमों के अनुसार की जाएगी।"
सरल
शब्दों में कहें तो, यह अनुच्छेद राज्य की
न्यायिक सेवा में उन पदों पर भर्ती की बात करता है जो जिला न्यायाधीश
(डिस्ट्रिक्ट जज) से नीचे के होते हैं, जैसे सिविल जज,
मजिस्ट्रेट आदि। इन पदों पर नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है,
लेकिन इसमें दो महत्वपूर्ण संस्थाओं का परामर्श अनिवार्य है:
- राज्य लोक सेवा आयोग (State
Public Service Commission - SPSC): यह
भर्ती परीक्षाओं का आयोजन करता है और उम्मीदवारों की योग्यता जांचता है।
- उच्च न्यायालय (High
Court): जो उस राज्य में
न्यायिक मामलों की देखरेख करता है। उच्च न्यायालय का परामर्श इसलिए जरूरी है
क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने में मदद करता है।
यह
प्रक्रिया नियमों के अनुसार चलती है, जो
राज्यपाल द्वारा बनाए जाते हैं। मतलब, कोई मनमानी नहीं – सब
कुछ पारदर्शी और नियंत्रित तरीके से।
इस अनुच्छेद का ऐतिहासिक संदर्भ
भारत
के संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखने के लिए काफी
सोच-समझ कर प्रावधान बनाए। अनुच्छेद 234 का जन्म
1950 में संविधान लागू होने के साथ हुआ, लेकिन इसकी जड़ें ब्रिटिश काल की न्याय व्यवस्था में हैं। आजादी से पहले,
न्यायिक पदों पर नियुक्तियां अक्सर राजनीतिक प्रभाव से होती थीं,
जिससे निष्पक्षता प्रभावित होती थी।
संविधान
सभा के सदस्यों, जैसे डॉ. बी.आर. अंबेडकर, ने जोर दिया कि न्यायिक सेवा में भर्ती मेरिट-बेस्ड होनी चाहिए। इसलिए,
लोक सेवा आयोग और उच्च न्यायालय को शामिल किया गया – एक तरफ सिविल
सर्विस की तरह परीक्षा प्रक्रिया, दूसरी तरफ न्यायिक
विशेषज्ञता का इनपुट। यह अनुच्छेद अनुच्छेद 233 (जिला
न्यायाधीशों की भर्ती) के साथ मिलकर राज्य न्यायपालिका की पूरी भर्ती प्रणाली को
मजबूत बनाता है।
भर्ती की प्रक्रिया: स्टेप बाय स्टेप
अब
आइए,
इस अनुच्छेद के तहत भर्ती कैसे होती है, इसको विस्तार से समझते हैं।
यह प्रक्रिया आमतौर पर निम्नलिखित चरणों में होती है:
1. नियमों
का निर्माण: राज्यपाल, उच्च
न्यायालय और लोक सेवा आयोग से सलाह लेकर भर्ती नियम बनाते हैं। इन नियमों में आयु
सीमा, शैक्षणिक योग्यता (आमतौर पर LLB डिग्री),
परीक्षा पैटर्न आदि शामिल होते हैं।
2. परीक्षा
का आयोजन: राज्य लोक सेवा आयोग (जैसे UPPSC,
BPSC आदि) न्यायिक सेवा परीक्षा आयोजित करता है। यह परीक्षा तीन
चरणों में होती है:
o प्रारंभिक
परीक्षा (Prelims): ऑब्जेक्टिव
टाइप, जिसमें सामान्य ज्ञान, कानून की
बेसिक्स आदि होते हैं।
o मुख्य
परीक्षा (Mains): सब्जेक्टिव,
जहां कानूनी ज्ञान, लेखन कौशल और विश्लेषण की
जांच होती है।
o साक्षात्कार
(Interview):
उच्च न्यायालय के जजों या विशेषज्ञों द्वारा, जहां
उम्मीदवार की व्यक्तित्व और नैतिकता देखी जाती है।
3. परामर्श
और अंतिम नियुक्ति: परीक्षा पास करने वालों की
सूची लोक सेवा आयोग उच्च न्यायालय को भेजता है। उच्च न्यायालय अपनी राय देता है –
अगर कोई उम्मीदवार अनुपयुक्त लगे, तो उसे हटाया जा सकता है।
अंत में, राज्यपाल नियुक्ति पत्र जारी करते हैं।
यह
प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि राजनीतिक हस्तक्षेप कम हो और न्यायिक पदों पर केवल
योग्य लोग आएं। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में PCS-J
(Provincial Civil Service - Judicial) परीक्षा इसी अनुच्छेद के
तहत होती है।
अनुच्छेद
234
का महत्व: क्यों जरूरी है यह?
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता:
उच्च न्यायालय का परामर्श कार्यपालिका (राज्यपाल) को
न्यायपालिका से अलग रखता है। इससे भ्रष्टाचार या पक्षपात की गुंजाइश कम होती
है।
- मेरिट-बेस्ड सिलेक्शन:
लोक सेवा आयोग की भूमिका से भर्ती पारदर्शी बनती है, जो आरक्षण नीतियों (SC/ST/OBC) को भी
लागू करती है।
- राज्यों की स्वायत्तता:
हर राज्य अपनी जरूरतों के अनुसार नियम बना सकता है, लेकिन केंद्र की देखरेख में (अनुच्छेद 312 के तहत All India Judicial Service की
चर्चा होती रहती है)।
- न्यायिक बैकलॉग कम करना:
योग्य जजों की भर्ती से अदालतों में लंबित मामलों की संख्या
घटती है। आज भारत में 5 करोड़ से ज्यादा केस पेंडिंग
हैं, और ऐसे प्रावधान इससे निपटने में मदद करते हैं।
हालांकि,
चुनौतियां भी हैं। कभी-कभी लोक सेवा आयोग और उच्च न्यायालय के बीच
मतभेद होते हैं, जिससे देरी होती है। सुप्रीम कोर्ट ने कई
मामलों में (जैसे State of Bihar vs. Bal Mukund Sah 2000) स्पष्ट किया है कि उच्च न्यायालय का परामर्श बाध्यकारी है।
वास्तविक उदाहरण और हालिया विकास
- उदाहरण 1:
2023 में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने MPPSC द्वारा भेजी गई सूची में से कुछ उम्मीदवारों को अयोग्य घोषित किया,
क्योंकि उनके बैकग्राउंड में आपराधिक रिकॉर्ड था। यह अनुच्छेद 234
की ताकत दिखाता है।
- उदाहरण 2:
बिहार में 2024 की न्यायिक परीक्षा में
महिलाओं के लिए आरक्षण बढ़ाया गया, जो इस अनुच्छेद के
नियमों के तहत संभव हुआ।
- हालिया बहस:
ऑल इंडिया ज्यूडिशियल सर्विस (AIJS) की
मांग चल रही है, जो अनुच्छेद 312 के
तहत केंद्र द्वारा लागू हो सकती है। लेकिन कई राज्य इसका विरोध करते हैं,
क्योंकि इससे अनुच्छेद 234 की स्वायत्तता
प्रभावित हो सकती है।
निष्कर्ष: न्याय की मजबूत नींव
अनुच्छेद
234 सिर्फ एक कानूनी प्रावधान नहीं, बल्कि हमारे
लोकतंत्र की रक्षा करने वाला एक स्तंभ है। यह सुनिश्चित करता है कि न्यायिक सेवा
में प्रवेश करने वाले लोग न केवल बुद्धिमान हों, बल्कि नैतिक
रूप से मजबूत भी। अगर हम एक निष्पक्ष समाज चाहते हैं, तो ऐसे
प्रावधानों को समझना और उनका सम्मान करना जरूरी है।
अगर
आपने कभी न्यायिक परीक्षा दी है या इससे जुड़ी कोई कहानी है,
तो कमेंट्स में शेयर करें! क्या आपको लगता है कि AIJS
लागू होनी चाहिए? आपकी राय क्या है? पढ़ने के लिए धन्यवाद, और अगले ब्लॉग में मिलते हैं
कुछ और दिलचस्प विषय पर। जय हिंद!