नमस्कार,
दोस्तों! आज हम भारतीय संविधान के एक महत्वपूर्ण प्रावधान पर चर्चा
करेंगे – अनुच्छेद 235, यह अनुच्छेद न्यायपालिका की
स्वतंत्रता और शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को मजबूत करने में अहम भूमिका
निभाता है। अगर आप कानून के छात्र हैं, सिविल सर्विस की
तैयारी कर रहे हैं, या बस भारतीय संविधान के बारे में जानने के लिए उत्सुक
हैं, तो यह पोस्ट आपके लिए है। हम इसमें अनुच्छेद की
व्याख्या, इतिहास, महत्व और कुछ प्रमुख
केस लॉ पर विस्तार से बात करेंगे। चलिए शुरू करते हैं!
अनुच्छेद
235
का पाठ
भारतीय
संविधान 1950
के अनुच्छेद 235 का हिंदी अनुवाद कुछ इस
प्रकार है:
"जिला न्यायालयों और उनके अधीनस्थ न्यायालयों पर नियंत्रण, जिसके अंतर्गत राज्य की न्यायिक सेवा के और जिला न्यायाधीश के पद से
निम्नतर कोई पद धारण करने वाले व्यक्तियों की पदस्थापना, प्रोन्नति
और उन्हें अनुमति प्रदान करना है, उच्च न्यायालय में निहित
होगा, किन्तु इस अनुच्छेद की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया
जाएगा कि वह ऐसे किसी व्यक्ति से अपील का कोई अधिकार छीन लेती है जो उसे उसकी सेवा
की शर्तों को विनियमित करने वाली विधि के अधीन प्राप्त है या उच्च न्यायालय को
उसके साथ ऐसी विधि के अधीन विहित उसकी सेवा की शर्तों के अनुसार ही व्यवहार करने
के अलावा अन्य तरीके से व्यवहार करने के लिए प्राधिकृत करती है।"
संक्षेप
में,
यह अनुच्छेद उच्च न्यायालय को जिला न्यायालयों और उनके अधीनस्थ
न्यायालयों पर नियंत्रण देता है। इसमें न्यायिक सेवा के सदस्यों (जिला न्यायाधीश
से नीचे के पदों पर) की पोस्टिंग, प्रमोशन और छुट्टी देने की
शक्ति शामिल है। लेकिन यह उनके अपील के अधिकार को छीनता नहीं है और उच्च न्यायालय
को सेवा शर्तों के विपरीत कार्य करने की अनुमति नहीं देता।
अनुच्छेद
235
का इतिहास
अनुच्छेद
235
मूल रूप से भारत के मसौदा संविधान, 1948 का
हिस्सा नहीं था। इसे बाद में जोड़ा गया। 16 सितंबर 1949
को, मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. बी.आर.
अंबेडकर ने इसे मसौदा अनुच्छेद 209सी के रूप में प्रस्तावित
किया। प्रस्तावित पाठ लगभग वही था जो आज है, जिसमें उच्च
न्यायालय को अधीनस्थ न्यायालयों पर नियंत्रण देने की बात थी।
अध्यक्ष
ने इसे शक्तियों के पृथक्करण (separation of powers) के
सिद्धांत के अनुरूप बताया, क्योंकि इससे राज्य की दीवानी
न्यायिक व्यवस्था कार्यपालिका के बजाय उच्च न्यायालय के नियंत्रण में आ जाती है।
संविधान सभा ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। एक छोटा संशोधन अस्वीकार कर दिया
गया, और अंततः 16 सितंबर 1949 को अनुच्छेद 209सी को अपनाया गया, जो बाद में अनुच्छेद 235 बना।
यह
प्रावधान संविधान के भाग VI (राज्यों में कार्यकारी और
विधायी शक्तियां) के अध्याय V (उच्च न्यायालय) में आता है,
जो राज्य स्तर पर न्यायिक प्रणाली को मजबूत करता है।
अनुच्छेद
235
की व्याख्या
अनुच्छेद
235
दो मुख्य भागों में बंटा है:
1. उच्च
न्यायालय का नियंत्रण: उच्च न्यायालय को
जिला और अधीनस्थ न्यायालयों पर पूर्ण नियंत्रण दिया गया है। इसमें शामिल है:
o न्यायिक
सेवा के सदस्यों (जिला न्यायाधीश से नीचे) की पोस्टिंग (posting)।
o प्रमोशन
(promotion)।
o छुट्टी
(leave)
प्रदान करना।
यह
नियंत्रण व्यापक है और इसमें अनुशासनिक कार्रवाई भी शामिल हो सकती है,
जैसा कि विभिन्न केस लॉ में स्पष्ट किया गया है।
2. सीमाएं:
o यह
अनुच्छेद सेवा सदस्यों के अपील के अधिकार को नहीं छीनता,
जो उनकी सेवा शर्तों को नियंत्रित करने वाली कानूनों से मिलता है।
o उच्च
न्यायालय को सेवा शर्तों के विपरीत व्यवहार करने की अनुमति नहीं देता।
यह
प्रावधान अनुच्छेद 233 (जिला न्यायाधीशों की
नियुक्ति) और अनुच्छेद 234 (न्यायिक सेवा में भर्ती) से
जुड़ा है, जो उच्च न्यायालय की भूमिका को और मजबूत करते हैं।
अनुच्छेद
235
का महत्व
अनुच्छेद
235
न्यायपालिका की स्वतंत्रता का एक मजबूत स्तंभ है। इसके प्रमुख महत्व
निम्नलिखित हैं:
- शक्तियों का पृथक्करण:
यह कार्यपालिका से न्यायपालिका को अलग रखता है। पहले, अधीनस्थ न्यायालय कार्यपालिका के अधीन थे, लेकिन
यह अनुच्छेद उन्हें उच्च न्यायालय के नियंत्रण में लाता है, जिससे राजनीतिक हस्तक्षेप कम होता है।
- न्यायिक स्वतंत्रता:
उच्च न्यायालय को अधीनस्थ न्यायाधीशों पर प्रशासनिक नियंत्रण
देकर, यह सुनिश्चित करता है कि न्याय प्रक्रिया
निष्पक्ष और कुशल रहे। इससे न्यायाधीशों की पदोन्नति और पोस्टिंग में
पारदर्शिता आती है।
- अनुशासन और दक्षता:
यह अनुच्छेद उच्च न्यायालय को अधीनस्थ न्यायालयों में अनुशासन
बनाए रखने की शक्ति देता है, जो समग्र न्याय व्यवस्था
को मजबूत करता है।
- राज्य स्तर पर संघीय संरचना:
यह राज्य की न्यायिक सेवा को केंद्रित नियंत्रण देता है,
जो संविधान के संघीय ढांचे के अनुरूप है।
बिना
इस प्रावधान के, कार्यपालिका का हस्तक्षेप बढ़ सकता था,
जो लोकतंत्र के लिए हानिकारक होता।
प्रमुख केस लॉ और व्याख्या
सुप्रीम
कोर्ट ने अनुच्छेद 235 की व्याख्या कई
महत्वपूर्ण मामलों में की है। यहां कुछ प्रमुख केसेज हैं:
1. State
of West Bengal vs. Nripendra Nath Bagchi (1966):
सुप्रीम
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 235 के तहत
उच्च न्यायालय का नियंत्रण व्यापक है और इसमें अनुशासनिक नियंत्रण भी शामिल है। यह
केस उच्च न्यायालय की शक्तियों की सीमा निर्धारित करने में महत्वपूर्ण था।
2. Chief
Justice of Andhra Pradesh & Anr vs. L.V.A. Dikshitulu & Ors (1978): कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 235 उच्च न्यायालय को
अधीनस्थ न्यायालयों पर पूर्ण नियंत्रण देता है, लेकिन यह
अनुच्छेद 371-D (आंध्र प्रदेश से संबंधित) के साथ संघर्ष
नहीं करता। यह केस विशेष रूप से अनुच्छेद 235 की धुरी भूमिका
पर जोर देता है।
3. Yoginath
D. Bagde vs. State of Maharashtra & Anr (1999):
यहां
कोर्ट ने अनुच्छेद 235 के तहत
"नियंत्रण" शब्द की व्याख्या की, जिसमें नियुक्ति,
प्रमोशन और अनुशासन शामिल है। यह अनुच्छेद 233 और 234 के साथ पढ़ा जाना चाहिए।
4. B.S.
Yadav & Ors vs. State of Haryana & Ors (1980):
कोर्ट
ने कहा कि अनुच्छेद 235 उच्च न्यायालय को सेवा
शर्तों को निर्धारित करने की शक्ति नहीं देता, लेकिन
नियंत्रण की अनुमति देता है। यह सेवा नियमों और अनुच्छेद 309 के साथ संतुलन बनाता है।
5. High
Court of Judicature at Bombay vs. Shirishkumar Rangrao Patil (1997):
इस
केस में अनुशासनिक समिति की भूमिका पर चर्चा हुई, और
कहा गया कि अनुच्छेद 235 के तहत उच्च न्यायालय का नियंत्रण
प्राथमिक है।
ये
केसेज दिखाते हैं कि अनुच्छेद 235 को न्यायपालिका की
स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सख्ती से लागू किया जाता है।
निष्कर्ष
अनुच्छेद
235
भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो न्यायपालिका को मजबूत
बनाता है। यह न केवल अधीनस्थ न्यायालयों पर उच्च न्यायालय का नियंत्रण सुनिश्चित
करता है, बल्कि शक्तियों के पृथक्करण को भी बढ़ावा देता है।
आज के समय में, जब न्यायिक स्वतंत्रता पर बहस चल रही है,
यह अनुच्छेद और अधिक प्रासंगिक हो जाता है। अगर आपको यह पोस्ट पसंद
आई, तो कमेंट में बताएं या शेयर करें। क्या आप किसी विशेष
केस या संविधान के अन्य अनुच्छेद पर पोस्ट चाहते हैं? बताएं!
धन्यवाद
पढ़ने के लिए!