सर्वोच्च
न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने हाल ही में एक मामले में टिप्पणी की कि अदालतों को
गलत फैसले लेने से बचना चाहिए, क्योंकि इससे जनता का
न्याय व्यवस्था पर भरोसा कम होता है। कोर्ट ने कहा कि अलग-अलग अदालती पीठों के
परस्पर विरोधी फैसले लोगों का विश्वास डगमगा देते हैं और न्यायपालिका की
जिम्मेदारी है कि उसके फैसलों में एकरूपता (consistency) हो।
यह बात सुप्रीम कोर्ट ने एक वैवाहिक विवाद (पति-पत्नी के झगड़े) से जुड़े मामले की
सुनवाई के दौरान कही, जिसमें कर्नाटक हाई कोर्ट की दो
अलग-अलग पीठों ने एक ही मामले में विरोधाभासी फैसले दिए थे।
मामला
क्या था?
यह
मामला एक पति-पत्नी के बीच विवाद से जुड़ा था। पत्नी ने अपने पति के खिलाफ शिकायत
दर्ज की थी, जिसमें उसने आरोप लगाया था कि:
- पति का किसी दूसरी
महिला के साथ संबंध है।
- दूसरी महिला उसके साथ
गाली-गलौज करती है।
- पति और उसके परिवार
ने दहेज की मांग की और उसके साथ दुर्व्यवहार किया। इन कारणों से पत्नी अपने
माता-पिता के साथ रहने लगी थी। उसने पति के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया,
लेकिन कर्नाटक हाई कोर्ट ने इस मामले को रद्द कर दिया। पत्नी
ने हाई कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की।
सुप्रीम
कोर्ट ने क्या कहा?
सुप्रीम
कोर्ट की पीठ, जिसमें जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस
जॉयमाल्या बागची शामिल थे, ने इस मामले की सुनवाई की। कोर्ट
ने निम्नलिखित बातें कहीं:
1. असंगत
फैसलों का असर:
o जब
अलग-अलग पीठें एक ही तरह के मामले में अलग-अलग फैसले देती हैं,
तो यह जनता का भरोसा तोड़ता है।
o ऐसे
फैसले मुकदमेबाजी (कानूनी प्रक्रिया) को जुए की तरह बना देते हैं,
जहां लोग यह अनुमान लगाने लगते हैं कि कौन सी अदालत उनके पक्ष में
फैसला देगी।
o इससे
"फोरम शॉपिंग" जैसी गलत प्रथाएं शुरू होती हैं,
जिसमें लोग अपने फायदे के लिए ऐसी अदालत चुनते हैं जो उनके पक्ष में
फैसला दे सकती है।
2. कर्नाटक
हाई कोर्ट की गलती:
o सुप्रीम
कोर्ट ने कहा कि कर्नाटक हाई कोर्ट के जज ने गलती की। जज ने पत्नी की शिकायत (FIR)
और उसमें लगाए गए आरोपों की सत्यता की जांच शुरू कर दी, जो कानूनन गलत था।
o हाई
कोर्ट के जज ने FIR में दर्ज हमले के आरोपों
को मेडिकल साक्ष्य (जैसे घाव प्रमाण पत्र) से तुलना करके आरोपों को गलत माना। यह
एक तरह का "मिनी-ट्रायल" (छोटा मुकदमा) था, जो
कानून में स्वीकार्य नहीं है।
o सुप्रीम
कोर्ट ने कहा कि मेडिकल साक्ष्य और प्रत्यक्षदर्शी (नेत्र) साक्ष्य में अंतर का
विश्लेषण मुकदमे (ट्रायल) के दौरान होना चाहिए, न कि
शुरुआती चरण में। इस आधार पर मामले को रद्द करना गलत था।
3. न्यायाधीश
की गलती:
o हाई
कोर्ट के जज ने यह मान लिया कि पत्नी की शिकायत दुर्भावनापूर्ण (बदले की भावना से)
थी और अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग था, क्योंकि
मामला वैवाहिक अदालत में भी लंबित था। सुप्रीम कोर्ट ने इसे गलत ठहराया।
o कोर्ट
ने कहा कि जज ने खुद को गुमराह किया और कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया।
सुप्रीम कोर्ट का निर्देश
सुप्रीम
कोर्ट ने न केवल कर्नाटक हाई कोर्ट के फैसले को गलत ठहराया,
बल्कि सभी अदालतों को यह निर्देश दिया कि:
- फैसलों में एकरूपता
होनी चाहिए।
- शुरुआती चरण में,
बिना पूर्ण मुकदमे के, शिकायतों को रद्द
करने से बचना चाहिए।
- जजों को कानूनी
प्रक्रिया का सख्ती से पालन करना चाहिए और "मिनी-ट्रायल" जैसे गलत
तरीकों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।
क्यों
सख्त रुख अपनाया?
सुप्रीम
कोर्ट ने यह सख्त रुख इसलिए अपनाया क्योंकि:
- असंगत फैसले
न्यायपालिका की विश्वसनीयता को कम करते हैं।
- जनता का भरोसा बनाए
रखने के लिए जरूरी है कि अदालतें एकसमान और निष्पक्ष तरीके से फैसले दें।
- गलत फैसले कानूनी
प्रक्रिया को कमजोर करते हैं और लोगों को न्याय मिलने में बाधा उत्पन्न करते
हैं।
निष्कर्ष
सुप्रीम
कोर्ट ने इस मामले के जरिए यह संदेश दिया कि अदालतों को अपने फैसलों में सावधानी
बरतनी चाहिए। कर्नाटक हाई कोर्ट की गलती को सुधारते हुए कोर्ट ने यह सुनिश्चित
करने की कोशिश की कि भविष्य में ऐसी गलतियां न हों। यह फैसला न केवल इस पति-पत्नी
के मामले में महत्वपूर्ण है, बल्कि यह सभी अदालतों
के लिए एक मार्गदर्शन है कि वे कानून का पालन करें और जनता का भरोसा बनाए रखें।