हाल
ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया कि कोई भी अपीलीय
न्यायालय (जैसे हाईकोर्ट) किसी दोषी व्यक्ति की सजा को तब नहीं बढ़ा सकता,
जब वह स्वयं अपनी सजा के खिलाफ अपील करता है। यह तब तक नहीं हो सकता,
जब तक कि सरकार, पीड़ित या शिकायतकर्ता ने सजा
बढ़ाने की मांग में अलग से अपील दायर न की हो। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर अपीलीय
न्यायालय ऐसा करता है, तो यह निष्पक्षता के सिद्धांत और
आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 386(बी)(iii) का उल्लंघन होगा, जो
ऐसी अपीलों में सजा बढ़ाने पर रोक लगाती है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह
मामला बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ से जुड़ा है। एक व्यक्ति को POCSO
एक्ट (बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों से संबंधित कानून) और भारतीय दंड
संहिता (IPC) के तहत यौन उत्पीड़न का दोषी ठहराया गया था।
उसे सात साल की सजा सुनाई गई थी। दोषी ने इस सजा और दोषसिद्धि के खिलाफ हाईकोर्ट
में अपील की। लेकिन हाईकोर्ट ने न केवल उसकी अपील खारिज की, बल्कि
अपनी पुनर्विचार शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सजा बढ़ाने की संभावना पर विचार
करने के लिए मामले को वापस निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) को भेज दिया। निचली अदालत
ने हाईकोर्ट के निर्देश पर सजा को सात साल से बढ़ाकर आजीवन कारावास कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम
कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस कदम को गलत ठहराया। जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस
एससी शर्मा की खंडपीठ ने कहा कि जब दोषी स्वयं अपील करता है,
तो अपीलीय न्यायालय उसकी सजा को बढ़ाने का आदेश नहीं दे सकता। ऐसा
करना न केवल CrPC के नियमों के खिलाफ है, बल्कि यह दोषी के अधिकारों का भी उल्लंघन करता है। कोर्ट ने कहा कि सजा
बढ़ाने के लिए सरकार, पीड़ित या शिकायतकर्ता को अलग से अपील
दायर करनी होगी। साथ ही, दोषी को यह बताने का मौका मिलना
चाहिए कि उसकी सजा क्यों नहीं बढ़ाई जानी चाहिए।
सुप्रीम
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि हाईकोर्ट के पास CrPC की धारा 401 के तहत स्वतः संज्ञान लेकर सजा बढ़ाने
की शक्ति है, लेकिन इसका इस्तेमाल दोषी की
अपील के दौरान नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट ने दोषी की अपील में
सजा बढ़ाने का निर्देश देकर गलती की, क्योंकि इससे दोषी की
स्थिति पहले से भी बदतर हो गई।
कानूनी प्रावधान
सुप्रीम
कोर्ट ने CrPC के प्रावधानों का हवाला देते हुए कहा
कि अपीलीय न्यायालय के पास कई अधिकार हैं, जैसे:
- दोषी को बरी करना।
- मामले की दोबारा सुनवाई का आदेश
देना।
- सजा को बनाए रखना या उसकी
प्रकृति/अवधि को बदलना।
लेकिन
सजा को बढ़ाने की शक्ति का इस्तेमाल केवल तभी हो सकता है,
जब सरकार, पीड़ित या शिकायतकर्ता ने इसके लिए
अपील की हो। इसके अलावा, सजा को उस हद तक ही बढ़ाया जा सकता
है, जो मूल रूप से उस अपराध के लिए कानून में निर्धारित है।
सुप्रीम कोर्ट का अंतिम आदेश
सुप्रीम
कोर्ट ने इस मामले में अपील को स्वीकार किया और हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया।
कोर्ट ने दोषी की दोषसिद्धि को बरकरार रखा, लेकिन सजा
को आजीवन कारावास से घटाकर मूल सात साल की सजा कर दिया। चूंकि दोषी पहले ही सात
साल से अधिक की सजा भुगत चुका था, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने
उसे तुरंत रिहा करने का आदेश दिया।
इस फैसले का महत्व
यह
फैसला निष्पक्ष सुनवाई और दोषी के अधिकारों की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। यह
सुनिश्चित करता है कि अपीलीय न्यायालय अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न करें और दोषी
को अनुचित रूप से कठोर सजा न दी जाए। साथ ही, यह CrPC
के प्रावधानों की सही व्याख्या को रेखांकित करता है, जो न्याय प्रक्रिया में संतुलन बनाए रखने के लिए बनाए गए हैं।
निष्कर्ष:
सुप्रीम
कोर्ट ने अपने इस फैसले से स्पष्ट किया कि अपीलीय न्यायालय को दोषी की अपील में
सजा बढ़ाने का अधिकार नहीं है, जब तक कि सरकार,
पीड़ित या शिकायतकर्ता ने इसके लिए अलग से अपील न की हो। यह फैसला
न्यायिक निष्पक्षता और कानूनी प्रक्रिया के पालन को मजबूत करता है।