मुख्य बिन्दु
- दिल्ली हाईकोर्ट ने गुर्जर
रेजीमेंट की मांग वाली याचिका को "पूरी तरह से विभाजनकारी" करार
देते हुए खारिज किया।
- अदालत ने कहा कि कोई कानून या
संवैधानिक प्रावधान नहीं है जो किसी विशेष समुदाय के लिए रेजीमेंट बनाने का
अधिकार देता हो।
- याचिकाकर्ता रोहन बासोया ने तर्क
दिया था कि गुर्जर समुदाय को अन्य समुदायों की तरह समर्पित रेजीमेंट नहीं दी
गई है।
- अदालत ने चेतावनी दी कि इस तरह की
मांग सेना की एकता को नुकसान पहुंचा सकती है, और याचिकाकर्ता ने अंततः याचिका वापस ले ली।
पृष्ठभूमि
गुर्जर
समुदाय की मांग लंबे समय से चली आ रही है, जिसमें
कहा गया है कि उनकी सैन्य विरासत को देखते हुए उन्हें एक अलग रेजीमेंट दी जानी
चाहिए। हालांकि, यह मुद्दा संवेदनशील है और समुदाय-आधारित
विभाजन को बढ़ावा देने का जोखिम उठाता है।
अदालत का निर्णय
28
मई, 2025 को दिल्ली हाईकोर्ट ने इस याचिका को
खारिज करते हुए कहा कि यह मांग सेना की एकता के खिलाफ है और कानूनी आधारहीन है।
मुख्य न्यायाधीश डी.के. उपाध्याय और न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला की पीठ ने
याचिकाकर्ता को फटकार लगाई और जुर्माने की चेतावनी दी, जिसके
बाद याचिकाकर्ता ने याचिका वापस ले ली।
प्रभाव और निहितार्थ
यह निर्णय यह दर्शाता है कि अदालत समुदाय-आधारित मांगों को लेकर सतर्क है, खासकर जब वे राष्ट्रीय सुरक्षा और सेना की एकता से जुड़े हों। यह मुद्दा भविष्य में भी चर्चा का विषय बना रह सकता है, खासकर राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर।
तथ्यों की पूरी जानकारी
दिल्ली
हाईकोर्ट का हालिया निर्णय, जिसमें गुर्जर रेजीमेंट की
मांग वाली जनहित याचिका (PIL) को "पूरी तरह से
विभाजनकारी" करार देते हुए खारिज किया गया, ने कानूनी
और सामाजिक दोनों स्तरों पर काफी चर्चा पैदा की है। यह निर्णय 28 मई, 2025 को मुख्य न्यायाधीश डी.के. उपाध्याय और
न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला की पीठ द्वारा लिया गया, और
यह भारतीय सेना की संरचना और समुदाय-आधारित मांगों के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण
मोड़ माना जा रहा है।
याचिकाकर्ता रोहन बासोया के तथ्य
गुर्जर
समुदाय,
जो मुख्य रूप से उत्तर भारत, पाकिस्तान और
अफगानिस्तान में निवास करता है, को ऐतिहासिक रूप से कृषि,
पशुपालन और सैन्य गतिविधियों से जोड़ा गया है। याचिकाकर्ता रोहन
बासोया ने अपनी याचिका में दावा किया कि गुर्जर समुदाय ने 1857 की क्रांति, 1947, 1965, 1971 के भारत-पाकिस्तान
युद्धों, कारगिल युद्ध (1999), और
जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद-रोधी अभियानों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने तर्क दिया कि अन्य समुदायों जैसे सिख, जाट, राजपूत, गोरखा, और डोगरा को समर्पित रेजीमेंट दी गई हैं, लेकिन
गुर्जर समुदाय को यह सुविधा नहीं दी गई, जो संविधान के
अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 16 (सार्वजनिक रोजगार में समानता) का उल्लंघन है।
याचिका
में यह भी कहा गया कि गुर्जर रेजीमेंट की स्थापना से समान अवसर उपलब्ध होंगे,
भर्ती बढ़ेगी, और राष्ट्रीय सुरक्षा मजबूत
होगी, साथ ही सैन्य रणनीतिक हितों को भी बढ़ावा मिलेगा। इसके
अलावा, सरकार से मांग की गई थी कि वह इसकी व्यवहार्यता का
अध्ययन करे और गुर्जर रेजीमेंट गठित करे।
अदालत का निर्णय और तर्क
हाईकोर्ट
ने इस याचिका पर विचार करने से इनकार करते हुए इसे "पूरी तरह से
विभाजनकारी" करार दिया। अदालत ने स्पष्ट किया कि भारतीय सेना में
रेजीमेंट का गठन समुदाय या जाति के आधार पर नहीं, बल्कि
राष्ट्रीय एकता और सैन्य दक्षता के आधार पर किया जाता है। अदालत ने यह भी कहा कि
कोई कानून या संवैधानिक प्रावधान नहीं है जो किसी विशेष समुदाय के लिए रेजीमेंट
बनाने का अधिकार देता हो। पीठ ने याचिकाकर्ता के वकील को फटकार लगाई और सलाह दी कि
इस तरह की याचिकाएं दाखिल करने से पहले उचित शोध किया जाए। अदालत ने यह भी चेतावनी
दी कि यदि याचिकाकर्ता अपनी मांग पर अड़े, तो जुर्माना भी
लगाया जा सकता है। अंततः, याचिकाकर्ता ने अदालत की
टिप्पणियों को देखते हुए याचिका वापस ले ली, और मामला खारिज
हो गया।
कानूनी और सामाजिक प्रभाव
यह
निर्णय भारतीय सेना की संरचना और समुदाय-आधारित मांगों के बीच संतुलन स्थापित करने
की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। अदालत का तर्क था कि सेना की एकता और अखंडता को
बनाए रखना राष्ट्रीय हित में है, और समुदाय-आधारित
रेजीमेंट का गठन इस एकता को खतरे में डाल सकता है। यह निर्णय यह भी दर्शाता है कि
अदालतें ऐसी मांगों को लेकर सतर्क हैं, जो सामाजिक विभाजन को
बढ़ावा दे सकती हैं।
हालांकि,
यह मुद्दा राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर विवादास्पद बना रह सकता है।
गुर्जर समुदाय की मांग लंबे समय से चली आ रही है, और यह अन्य
समुदायों की समान मांगों को भी प्रेरित कर सकता है, जिससे
कानूनी और प्रशासनिक चुनौतियां बढ़ सकती हैं।
तुलनात्मक दृष्टिकोण
भारतीय
सेना में पहले से ही कुछ रेजीमेंट हैं जो ऐतिहासिक और क्षेत्रीय आधार पर गठित की
गई हैं,
जैसे सिख रेजीमेंट, गोरखा रेजीमेंट, आदि। लेकिन इनका गठन समुदाय-आधारित मांगों से अधिक ऐतिहासिक और सैन्य
परंपराओं पर आधारित है। अदालत का यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि भविष्य में ऐसी
मांगों को कानूनी मान्यता देना मुश्किल होगा, खासकर जब वे
राष्ट्रीय एकता को प्रभावित कर सकते हों।
समाचार और स्रोत
इस
निर्णय से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए, आप LawTrend.in और TV9 Hindi की रिपोर्ट्स देख सकते हैं। इन लेखों
में निर्णय की पृष्ठभूमि, पीठ के सदस्यों, और याचिकाकर्ता के दावों जैसे विवरण शामिल हैं।
निष्कर्ष
दिल्ली
हाईकोर्ट का यह निर्णय यह दर्शाता है कि समुदाय-आधारित मांगों को लेकर अदालतें
सतर्क हैं, खासकर जब वे राष्ट्रीय सुरक्षा और सेना
की एकता से जुड़े हों। यह निर्णय भविष्य में समान मांगों को कानूनी मान्यता देने
में एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम कर सकता है। हालांकि, यह
मुद्दा सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर चर्चा का विषय बना रह सकता है, और गुर्जर समुदाय की मांगें भविष्य में भी उठ सकती हैं।