भारतीय संविधान के भाग IV (अनुच्छेद 36 से 51) में वर्णित राज्य के नीति निदेशक तत्व (Directive Principles of State Policy - DPSP) देश के शासन के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत हैं। ये तत्व सरकार को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करने वाली नीतियाँ बनाने का निर्देश देते हैं। यद्यपि ये कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं हैं, इनका उद्देश्य एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। इस लेख में इन तत्वों का इतिहास, संवैधानिक उल्लेख और विशेषताओं पर विस्तार से चर्चा की गई है।
इतिहास
राज्य
के नीति निदेशक तत्वों की अवधारणा का विकास विभिन्न ऐतिहासिक और वैचारिक स्रोतों
से हुआ है। इनका मूल आधार आयरलैंड के संविधान (1937) में निहित है, जहाँ से भारतीय संविधान निर्माताओं ने
इन्हें प्रेरणा के रूप में अपनाया। इसके अतिरिक्त, निम्नलिखित
कारकों ने इन तत्वों को आकार देने में योगदान दिया:
1. औपनिवेशिक
शासन की चुनौतियाँ: स्वतंत्रता के समय भारत
व्यापक गरीबी, अशिक्षा और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं से जूझ
रहा था। संविधान निर्माताओं ने एक ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता महसूस की जो सामाजिक
और आर्थिक लोकतंत्र को बढ़ावा दे।
2. सप्रू
समिति (1945): इस समिति
ने अधिकारों को दो श्रेणियों में विभाजित करने का सुझाव दिया - न्यायसंगत (मौलिक
अधिकार) और गैर-न्यायसंगत (नीति निदेशक तत्व)। यह विचार DPSP की आधारशिला बना।
3. समाजवादी
और गांधीवादी विचारधारा: DPSP में समाजवादी
सिद्धांत (जैसे समानता और कल्याण) और गांधीवादी आदर्श (जैसे ग्राम
पंचायतों का विकास) शामिल किए गए, जो भारतीय स्वतंत्रता
संग्राम की विचारधारा से प्रेरित थे।
4. संविधान
सभा में बहस: संविधान सभा में DPSP
की प्रासंगिकता पर व्यापक चर्चा हुई। कुछ सदस्यों ने इन्हें "वैधानिकता
रहित" मानकर आलोचना की, लेकिन डॉ. बी. आर. अंबेडकर
ने इन्हें "निर्देशों का साधन" और संविधान की "नवीन
विशेषता" के रूप में महत्वपूर्ण बताया।
संवैधानिक उल्लेख
भारतीय
संविधान के भाग IV में
अनुच्छेद 36 से 51 तक नीति निदेशक
तत्वों का वर्णन है। इनका सार अनुच्छेद 37 में स्पष्ट किया
गया है, जो कहता है कि ये तत्व कानूनी रूप से लागू करने
योग्य नहीं हैं, लेकिन देश के शासन में मौलिक हैं, और इन्हें कानून बनाते समय लागू करना राज्य का कर्तव्य है। नीचे प्रमुख
अनुच्छेदों का उल्लेख किया गया है:
- अनुच्छेद 38:
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय
सुनिश्चित करना और असमानताओं को कम करना।
- अनुच्छेद 39:
सभी नागरिकों को आजीविका, समान वेतन और
संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित करना।
- अनुच्छेद 39A:
निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करना।
- अनुच्छेद 41:
कार्य, शिक्षा और सार्वजनिक सहायता का
अधिकार सुनिश्चित करना।
- अनुच्छेद 42:
काम की मानवीय परिस्थितियाँ और मातृत्व राहत प्रदान करना।
- अनुच्छेद 43:
निर्वाह योग्य मजदूरी और उचित जीवन स्तर सुनिश्चित करना।
- अनुच्छेद 43A:
उद्योगों में श्रमिकों की भागीदारी सुनिश्चित करना।
- अनुच्छेद 44:
समान नागरिक संहिता लागू करना।
- अनुच्छेद 45:
14 वर्ष तक के बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा।
- अनुच्छेद 46:
अनुसूचित जाति, जनजाति और कमजोर वर्गों
के हितों का संरक्षण।
- अनुच्छेद 47:
पोषण स्तर, स्वास्थ्य और नशाबंदी को
बढ़ावा देना।
- अनुच्छेद 48:
कृषि और पशुपालन का आधुनिकीकरण।
- अनुच्छेद 48A:
पर्यावरण और वन्यजीवों की रक्षा।
- अनुच्छेद 49:
राष्ट्रीय स्मारकों की रक्षा।
- अनुच्छेद 50:
न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करना।
- अनुच्छेद 51:
अंतरराष्ट्रीय शांति और सम्मानजनक संबंधों को बढ़ावा देना।
संशोधन
- 44वाँ संशोधन (1977):
अनुच्छेद 38 में धारा 2 जोड़ी गई, जो आर्थिक असमानताओं को कम करने पर
जोर देती है।
- 42वाँ संशोधन (1976):
अनुच्छेद 31C को संशोधित कर DPSP को मौलिक अधिकारों पर प्राथमिकता देने का प्रयास किया गया, लेकिन इसे केशवानंद भारती मामले में आंशिक रूप से असंवैधानिक घोषित
किया गया।
विशेषताएँ
राज्य
के नीति निदेशक तत्वों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
1. गैर-न्यायसंगत
प्रकृति: ये तत्व कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं
हैं, अर्थात् इन्हें लागू न करने पर नागरिक न्यायालय में
अपील नहीं कर सकते।
2. कल्याणकारी
राज्य का आधार: ये सामाजिक और आर्थिक
लोकतंत्र की स्थापना के लिए एक कल्याणकारी राज्य की रूपरेखा प्रदान करते हैं।
3. वर्गीकरण: यद्यपि संविधान में इन्हें वर्गीकृत नहीं किया गया, इन्हें तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है:
· समाजवादी सिद्धांत: आर्थिक समानता, संसाधनों का उचित वितरण (अनुच्छेद 38, 39, 41, 42, 43, 47)
· गांधीवादी सिद्धांत: ग्राम पंचायतों का विकास, कुटीर उद्योग, नशाबंदी (अनुच्छेद 40, 43, 47)
· उदार-बौद्धिक सिद्धांत: समान नागरिक संहिता, अंतरराष्ट्रीय शांति, पर्यावरण संरक्षण (अनुच्छेद 44, 48A, 51)।
4. मार्गदर्शक
सिद्धांत: ये सरकार के लिए नीतिगत द ishानिर्देश प्रदान करते हैं, जो कानून और नीतियाँ
बनाते समय ध्यान में रखे जाते हैं।
5. लचीलापन:
ये तत्व समय के साथ बदलती सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप
लागू किए जा सकते हैं।
6. मौलिक
अधिकारों के साथ सामंजस्य: सर्वोच्च न्यायालय ने
"हार्मोनी सिद्धांत" के माध्यम से DPSP और मौलिक
अधिकारों के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया है।
7. शैक्षणिक
महत्व: ये तत्व नागरिकों और सरकार को
सामाजिक-आर्थिक न्याय के आदर्शों के प्रति जागरूक करते हैं।
महत्व
- कल्याणकारी राज्य की स्थापना:
DPSP का लक्ष्य सामाजिक, आर्थिक और
राजनीतिक न्याय के माध्यम से एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है।
- संविधान की प्रस्तावना का
प्रतिबिंब: ये तत्व न्याय,
स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के
आदर्शों को साकार करते हैं।
- नीति निर्माण में मार्गदर्शन:
ये सरकार को जनहितकारी नीतियाँ बनाने के लिए दिशा प्रदान करते
हैं।
- सामाजिक परिवर्तन:
शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण संरक्षण और कमजोर वर्गों के उत्थान जैसे क्षेत्रों में ये
सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहित करते हैं।
आलोचना
- गैर-न्यायसंगत प्रकृति:
आलोचकों का कहना है कि इन तत्वों का कानूनी बाध्यता न होना
इन्हें "नैतिक सुझाव" मात्र बनाता है।
- मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष:
कुछ मामलों में DPSP और मौलिक अधिकारों
के बीच टकराव देखा गया, जैसे जमींदारी उन्मूलन के समय।
- अस्पष्टता और अव्यवस्था:
इन तत्वों को व्यवस्थित रूप से वर्गीकृत न करने के कारण इन्हें
लागू करना जटिल हो सकता है।
निष्कर्ष
राज्य
के नीति निदेशक तत्व भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं,
जो एक न्यायपूर्ण और कल्याणकारी समाज की स्थापना के लिए मार्गदर्शन
प्रदान करते हैं। इनका इतिहास आयरलैंड के संविधान और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की
विचारधाराओं से प्रेरित है। यद्यपि ये कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं हैं, इनका शैक्षणिक और नीतिगत महत्व निर्विवाद है। संविधान निर्माताओं की
दूरदर्शिता के कारण ये तत्व आज भी सामाजिक-आर्थिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने
में प्रासंगिक बने हुए हैं।