19 अप्रैल 2025
समाज में जब भी कोई बदलाव आता है, खासकर ऐसा जो सदियों पुरानी व्यवस्था को चुनौती देता है, तो उसके पीछे विचार, संघर्ष और चेतना की एक लंबी यात्रा होती है। महिलाओं की बढ़ती भागीदारी भी ऐसा ही एक परिवर्तन है, जिसे अक्सर ‘घुसपैठ’ जैसे शब्दों में देखा और कहा जाता है।
हाल ही में सुप्रीम
कोर्ट की जज बी.वी. नागरत्ना ने इस पर बेहद महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक
टिप्पणी की। उन्होंने कहा, “महिलाएं पुरुषों के
पेशों में घुसपैठ नहीं कर रहीं, बल्कि उन बाधाओं को तोड़ रही
हैं, जिन्होंने उन्हें पीढ़ियों से बाहर रखा।”
यह केवल एक बयान
नहीं,
बल्कि सामाजिक सोच को बदलने की दिशा में एक हस्तक्षेप है,
जिसे गहराई से समझना जरूरी है।
'घुसपैठ' बनाम 'हकदारी' की बहस
हमारी भाषा हमारे
समाज की सोच को दर्शाती है। जब हम कहते हैं कि महिलाएं अब अदालतों,
संसद, सेना, या बोर्डरूम
में आ रही हैं, तो अनजाने में यह माना जाता है कि ये जगहें
पहले पुरुषों की थीं और महिलाएं 'नई प्रवेशकर्ता'
हैं।
लेकिन क्या यह सच
है?
जस्टिस नागरत्ना का
कहना है कि महिलाएं किसी की जगह नहीं ले रहीं, बल्कि उन अनुचित
सामाजिक और संस्थागत रुकावटों को हटा रही हैं, जिन्होंने
उन्हें वहां से दूर रखा।
यह हक वापस लेने की लड़ाई है, न कि
किसी पर कब्ज़ा जमाने की।
भाषा और मानसिकता का रिश्ता
यह बयान हमें यह
सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम अब भी पुरानी सोच की भाषा का इस्तेमाल
कर रहे हैं?
जब हम कहते हैं –
- “महिलाएं अब सेना में आ
रही हैं...”
- “महिलाएं अब बोर्ड
मीटिंग्स में दिखती हैं...”
तो इन शब्दों में
यह छिपा होता है कि जैसे यह 'उनकी जगह' नहीं थी। जस्टिस नागरत्ना ने इस भाषा पर सवाल उठाया, और सुझाव दिया कि हमारी भाषा समानता और अधिकार के भाव से भरपूर
होनी चाहिए, न कि कृपा या अचरज से।
विचारों की विरासत का पुनर्पाठ
महिलाएं जब अदालतों
में,
संसद में, या कॉरपोरेट बोर्ड में बैठती हैं,
तो वे अपनी 'सीमाएं' नहीं
तोड़ रहीं, बल्कि देश की बौद्धिक और संस्थागत विरासत में
अपना हिस्सा वापस ले रही हैं।
यह बात उन सभी
महिलाओं के संघर्ष को मान्यता देती है, जिन्होंने
पितृसत्तात्मक सोच और बाधाओं से लड़ते हुए रास्ता बनाया। यह एक 'क्रांति' है – मगर चुपचाप, गरिमापूर्ण
और सार्थक।
बदलाव की भाषा को
बदलना क्यों जरूरी है?
जस्टिस नागरत्ना के
मुताबिक,
जब तक हम बदलाव को सही शब्दों में व्यक्त नहीं करेंगे,
तब तक समाज में गहराई से परिवर्तन नहीं आएगा।
भाषा में छिपा पूर्वग्रह धीरे-धीरे संस्थागत भेदभाव को मजबूत
करता है।
इसलिए हमें चाहिए
कि हम कहें –
- महिलाएं अपनी जगह ले रही हैं।
- महिलाएं योग्यता से आगे बढ़ रही हैं।
- महिलाएं संस्थानों का हिस्सा हैं, बाहरी नहीं।
समाज की सोच
जस्टिस बी.वी.
नागरत्ना का यह बयान केवल महिला अधिकारों की बात नहीं करता,
यह समाज की सोच को चुनौती देने वाला विमर्श है। यह हमें यह
सोचने पर मजबूर करता है कि हमारी भाषा, हमारे शब्द, और हमारा नजरिया क्या वाकई समानता के पक्ष में हैं?
अब समय है कि हम
‘घुसपैठ’ जैसे शब्दों को त्यागें और महिलाओं की भागीदारी को अधिकार और गरिमा के
साथ स्वीकार करें। यह सिर्फ लैंगिक न्याय नहीं, बल्कि
सामाजिक चेतना का संकेत है।
आप क्या सोचते हैं?
क्या हमारी भाषा अब भी पितृसत्तात्मक सोच को ढो रही है? अपने विचार कमेंट में जरूर साझा करें।