भारत
में आपराधिक न्याय प्रणाली में दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC)
और अब नई भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) के तहत आरोप तय करना एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया सुनिश्चित
करती है कि अभियुक्त को उसके खिलाफ लगाए गए अपराधों की जानकारी स्पष्ट रूप से दी
जाए और उसे निष्पक्ष सुनवाई का अवसर मिले। इस लेख में हम दंड प्रक्रिया संहिता
(CrPC) की धारा 240 और भारतीय
नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 263
की विस्तृत व्याख्या करेंगे, जिसमें दोनों
धाराओं की समानताएं, अंतर, और उनके
कार्यान्वयन को एक उदाहरण के साथ समझाया जाएगा।
दंड
प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 240
दंड
प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 240 आपराधिक मुकदमों में आरोप तय करने की प्रक्रिया को नियंत्रित करती है। यह
धारा मजिस्ट्रेट को यह अधिकार देती है कि वह विचारणीय अपराध के मामले में अभियुक्त
के खिलाफ लिखित रूप में आरोप तैयार करे। इस धारा के दो उप-भाग हैं:
धारा
240(1)
इस
उप-भाग के अनुसार, यदि मजिस्ट्रेट विचार,
परीक्षा (यदि कोई हो), और सुनवाई के बाद यह
राय बनाता है कि अभियुक्त ने इस अध्याय के तहत विचारणीय अपराध किया है, जिसका विचारण वह स्वयं करने में सक्षम है और जिसे वह पर्याप्त रूप से
दंडित कर सकता है, तो वह अभियुक्त के खिलाफ लिखित रूप में
आरोप तैयार करेगा।
मुख्य बिंदु:
- मजिस्ट्रेट को यह विश्वास होना
चाहिए कि अभियुक्त ने अपराध किया है।
- अपराध ऐसा होना चाहिए जिसका
विचारण मजिस्ट्रेट की अधिकारिता में हो।
- मजिस्ट्रेट को यह भी विश्वास होना
चाहिए कि वह अपराध के लिए उचित दंड दे सकता है।
धारा
240(2)
इसके
बाद,
तैयार किया गया आरोप अभियुक्त को पढ़कर सुनाया जाएगा और उसे समझाया
जाएगा। अभियुक्त से पूछा जाएगा कि क्या वह अपराध के लिए दोषी है या वह मुकदमे की
मांग करता है।
मुख्य बिंदु:
- अभियुक्त को आरोप की पूरी जानकारी
दी जाती है।
- अभियुक्त को यह चुनने का अधिकार
है कि वह दोष स्वीकार करता है या मुकदमे के लिए आगे बढ़ना चाहता है।
भारतीय
नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 263
भारतीय
नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), जो कि दंड प्रक्रिया
संहिता का स्थान ले रही है, की धारा 263 भी आरोप तय करने की प्रक्रिया को नियंत्रित करती है। यह धारा CrPC की धारा 240 के समान है, लेकिन
इसमें कुछ महत्वपूर्ण बदलाव शामिल किए गए हैं, विशेष रूप से
समय-सीमा के संबंध में।
धारा
263(1)
इस
उप-भाग के अनुसार, यदि मजिस्ट्रेट विचार,
परीक्षा (यदि कोई हो), और सुनवाई के बाद यह
राय बनाता है कि अभियुक्त ने इस अध्याय के तहत विचारणीय अपराध किया है, जिसका विचारण वह स्वयं करने में सक्षम है और जिसे वह पर्याप्त रूप से
दंडित कर सकता है, तो वह प्रथम सुनवाई की तारीख से साठ
दिन की अवधि के भीतर अभियुक्त के खिलाफ लिखित आरोप तैयार करेगा।
मुख्य बिंदु:
- यह धारा CrPC
की धारा 240(1) के समान है, लेकिन इसमें समय-सीमा (60 दिन) का प्रावधान
जोड़ा गया है।
- यह समय-सीमा सुनिश्चित करती है कि
आपराधिक प्रक्रिया में देरी न हो और न्याय जल्दी प्रदान किया जाए।
धारा
263(2)
इसके
बाद,
आरोप को अभियुक्त को पढ़कर सुनाया जाएगा और समझाया जाएगा। अभियुक्त
से पूछा जाएगा कि क्या वह अपराध के लिए दोषी है या मुकदमे की मांग करता है।
मुख्य बिंदु:
- यह उप-भाग CrPC
की धारा 240(2) के समान है।
- अभियुक्त को निष्पक्ष सुनवाई का
अधिकार सुनिश्चित किया जाता है।
CrPC धारा 240 और BNSS धारा 263 के बीच अंतर
हालांकि
दोनों धाराएं समान प्रक्रिया का पालन करती हैं, लेकिन BNSS
धारा 263 में एक महत्वपूर्ण बदलाव शामिल किया
गया है:
- समय-सीमा का प्रावधान:
BNSS धारा 263(1) में यह स्पष्ट रूप से
उल्लेख किया गया है कि मजिस्ट्रेट को प्रथम सुनवाई की तारीख से 60 दिनों के भीतर आरोप तैयार करना होगा। CrPC की
धारा 240 में ऐसी कोई समय-सीमा नहीं थी। यह बदलाव
आपराधिक न्याय प्रणाली को और अधिक कुशल और समयबद्ध बनाने के लिए किया गया है।
उदाहरण: आरोप तय करने की प्रक्रिया
आइए,
एक काल्पनिक परिदृश्य के माध्यम से दोनों धाराओं को समझते हैं:
परिदृश्य:
अकरम, एक व्यक्ति, पर
भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 379 (चोरी)
के तहत मामला दर्ज किया गया है। पुलिस ने जांच पूरी की और मामला मजिस्ट्रेट के
समक्ष प्रस्तुत किया गया। मजिस्ट्रेट ने सबूतों की जांच की और पाया कि अकरम के
खिलाफ चोरी का प्रथम दृष्टया मामला बनता है।
प्रक्रिया:
1. विचार
और सुनवाई:
·
मजिस्ट्रेट ने पुलिस
द्वारा प्रस्तुत चार्जशीट, गवाहों के बयान, और अन्य साक्ष्यों की जांच की। उसे विश्वास हो गया कि अकरम ने चोरी का
अपराध किया है, जो कि मजिस्ट्रेट की अधिकारिता में विचारणीय
है और जिसके लिए वह दंड दे सकता है।
2. आरोप
तैयार करना:
o CrPC
धारा 240(1) के तहत,
मजिस्ट्रेट अकरम के खिलाफ लिखित रूप में आरोप तैयार करता है,
जिसमें यह उल्लेख किया जाता है कि अकरम ने IPC की धारा 379 के तहत चोरी का अपराध किया।
o BNSS
धारा 263(1) के तहत,
मजिस्ट्रेट को यह सुनिश्चित करना होगा कि यह आरोप प्रथम सुनवाई की
तारीख से 60 दिनों के भीतर तैयार किया जाए। उदाहरण के लिए,
यदि प्रथम सुनवाई 1 जुलाई 2025 को हुई, तो मजिस्ट्रेट को 30 अगस्त
2025 तक आरोप तैयार करना होगा।
3. आरोप
का पठन और समझाना:
o मजिस्ट्रेट
अकरम को आरोप पढ़कर सुनाता है: "आप, अकरम,
पर यह आरोप है कि आपने दिनांक 15 जून 2025
को श्याम के घर से 50,000 रुपये मूल्य का
सामान चुराया, जो कि IPC की धारा 379
के तहत दंडनीय अपराध है।"
o मजिस्ट्रेट
अकरम को यह समझाता है कि यह अपराध क्या है और इसके परिणाम क्या हो सकते हैं।
o इसके
बाद,
मजिस्ट्रेट अकरम से पूछता है: "क्या आप इस अपराध के लिए दोषी
हैं, या आप मुकदमे की मांग करते हैं?"
4. अकरम
का जवाब:
o यद
अकरम दोषी स्वीकार करता है, तो मजिस्ट्रेट सजा पर विचार
करेगा।
o यदि
मुकदमे की मांग करता है,
तो मामला सुनवाई के लिए आगे बढ़ेगा, जिसमें
गवाहों की जांच और साक्ष्य प्रस्तुत किए जाएंगे।
निष्कर्ष
दंड
प्रक्रिया संहिता की धारा 240 और BNSS की धारा 263 दोनों ही आपराधिक मुकदमों में
निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। BNSS में समय-सीमा का जोड़ा जाना एक प्रगतिशील कदम है, जो
यह सुनिश्चित करता है कि न्याय प्रक्रिया में अनावश्यक देरी न हो। दोनों धाराएं
अभियुक्त को यह समझने का अवसर देती हैं कि उनके खिलाफ क्या आरोप हैं और उन्हें
अपनी बात रखने का मौका मिलता है। यह प्रक्रिया भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली की
नींव को मजबूत करती है।