भारत
के मुख्य न्यायाधीश (CJI) बीआर गवई ने हाल ही में
ऑक्सफोर्ड यूनियन में एक महत्वपूर्ण भाषण दिया, जिसमें
उन्होंने भारतीय संविधान को "स्याही में लिखी एक शांत क्रांति" बताया।
उन्होंने कहा कि संविधान न केवल लोगों को अधिकार देता है, बल्कि
उन लोगों को भी सशक्त बनाता है जो ऐतिहासिक रूप से समाज में दबे हुए थे। इस दौरान
उन्होंने "न्यायिक सक्रियता" और "न्यायिक आतंकवाद" के बीच की
रेखा को लेकर एक अहम चेतावनी दी। आइए, सरल भाषा में इस विषय
को विस्तार से समझते हैं।
संविधान: एक शांत क्रांति
सीजेआई
गवई ने संविधान को एक ऐसी ताकत बताया जो समाज में बदलाव लाती है। यह न केवल लोगों
को अधिकार देता है, बल्कि उन वर्गों को भी ऊपर
उठाता है जो लंबे समय से सामाजिक, आर्थिक या अन्य कारणों से
हाशिए पर रहे हैं। संविधान समानता, स्वतंत्रता और न्याय के
सिद्धांतों पर आधारित है, और यह देश के हर नागरिक को गरिमा
और सम्मान के साथ जीने का अवसर देता है।
न्यायिक
सक्रियता क्या है?
न्यायिक
सक्रियता का मतलब है कि जब विधायिका (जो कानून बनाती है) या कार्यपालिका (जो कानून
लागू करती है) अपने कर्तव्यों में विफल होती है, तो
न्यायपालिका (कोर्ट) हस्तक्षेप करती है। इसका उद्देश्य लोगों के संवैधानिक
अधिकारों की रक्षा करना और यह सुनिश्चित करना है कि सरकार संविधान के दायरे में
काम करे। उदाहरण के लिए:
- अगर कोई कानून संविधान के खिलाफ
हो,
तो कोर्ट उसे रद्द कर सकती है।
- अगर सरकार कोई ऐसा काम करे जो
नागरिकों के अधिकारों का हनन करता हो, तो
कोर्ट उस पर रोक लगा सकती है।
सीजेआई
गवई ने कहा कि भारत जैसे देश में, जहां सामाजिक और
आर्थिक असमानताएं हैं, न्यायिक सक्रियता जरूरी है। यह
सुनिश्चित करती है कि कमजोर वर्गों के अधिकारों की रक्षा हो।
न्यायिक आतंकवाद: एक चेतावनी
हालांकि,
सीजेआई ने चेतावनी दी कि न्यायिक सक्रियता को "न्यायिक
आतंकवाद" में नहीं बदलना चाहिए। इसका मतलब है कि कोर्ट को अपनी शक्ति का
इस्तेमाल सोच-समझकर और सीमित दायरे में करना चाहिए। अगर कोर्ट हर छोटे-बड़े मामले
में दखल देने लगे, खासकर उन मामलों में जो विधायिका या
कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में हैं, तो यह संतुलन बिगड़
सकता है। इससे:
- लोकतंत्र की दूसरी शाखाओं
(विधायिका और कार्यपालिका) की स्वायत्तता कम हो सकती है।
- कोर्ट पर अनावश्यक दबाव बढ़ सकता
है।
- लोगों का भरोसा न्यायपालिका पर कम
हो सकता है।
सीजेआई
ने कहा कि कोर्ट को केवल तभी हस्तक्षेप करना चाहिए जब कोई कानून:
- संविधान के मूल ढांचे (जैसे
समानता, स्वतंत्रता) का उल्लंघन करता हो।
- मौलिक अधिकारों (जैसे बोलने की
आजादी, जीवन का अधिकार) के खिलाफ हो।
- स्पष्ट रूप से मनमाना या
भेदभावपूर्ण हो।
न्यायिक समीक्षा की शक्ति
न्यायिक
समीक्षा वह प्रक्रिया है जिसमें कोर्ट यह जांचता है कि कोई कानून या सरकारी फैसला
संविधान के अनुरूप है या नहीं। सीजेआई ने कहा कि इस शक्ति का इस्तेमाल बहुत
सावधानी से और केवल असाधारण मामलों में करना चाहिए। उदाहरण के लिए:
- अगर सरकार कोई ऐसा कानून बनाए जो
संविधान के मूल सिद्धांतों (जैसे धर्मनिरपेक्षता या लोकतंत्र) के खिलाफ हो।
- अगर कोई नीति लोगों के मौलिक
अधिकारों का हनन करती हो।
राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के बीच सवाल
सीजेआई
ने अपने भाषण में एक हालिया मामले का भी जिक्र किया। इस साल अप्रैल में,
सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा था कि राष्ट्रपति को राज्यपाल
द्वारा भेजे गए विधेयकों (बिल) पर तीन महीने के भीतर फैसला लेना चाहिए। यह फैसला
इसलिए लिया गया ताकि विधायी प्रक्रिया में देरी न हो।
हालांकि, इसके बाद राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सलाह मांगी। इस अनुच्छेद के तहत राष्ट्रपति किसी कानूनी या सार्वजनिक महत्व के मुद्दे पर कोर्ट से राय ले सकते हैं।
राष्ट्रपति ने दो सवाल
उठाए:
1. क्या
राज्यपाल को विधेयक पर फैसला लेते समय मंत्रिपरिषद की सलाह माननी जरूरी है?
संविधान
के अनुच्छेद 200 के तहत, राज्यपाल
को विधेयक पर फैसला लेना होता है। राष्ट्रपति ने पूछा कि क्या राज्यपाल इस मामले
में पूरी तरह से मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं, या उनके
पास कोई स्वतंत्र विवेक (निर्णय लेने की आजादी) है।
2. क्या
राज्यपाल के फैसले को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है?
संविधान
के अनुच्छेद 361 में कहा गया है कि राष्ट्रपति या
राज्यपाल अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए कोर्ट में जवाबदेह नहीं हैं।
राष्ट्रपति ने पूछा कि क्या राज्यपाल का कोई फैसला, जैसे कि
विधेयक को मंजूरी न देना, कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है।
इसका
क्या मतलब है?
यह
पूरा मामला संविधान के तहत शक्ति-संतुलन (Checks and Balances) का एक उदाहरण है। भारत का संविधान तीनों शाखाओं—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—को अलग-अलग जिम्मेदारियां देता है, लेकिन यह भी सुनिश्चित करता है कि कोई भी शाखा अपनी शक्ति का दुरुपयोग न
करे। सीजेआई गवई का कहना है कि न्यायपालिका को अपनी शक्ति का इस्तेमाल तभी करना
चाहिए जब यह बेहद जरूरी हो, ताकि लोकतंत्र का संतुलन बना
रहे।
निष्कर्ष
सीजेआई
बीआर गवई ने अपने भाषण में यह स्पष्ट किया कि:
- संविधान भारत के लिए एक
क्रांतिकारी दस्तावेज है जो कमजोर वर्गों को सशक्त बनाता है।
- न्यायिक सक्रियता जरूरी है,
लेकिन इसे "न्यायिक आतंकवाद" में नहीं बदलना
चाहिए।
- कोर्ट को अपनी शक्ति का इस्तेमाल
सीमित और असाधारण मामलों में करना चाहिए।
- राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के
बीच चल रही चर्चा यह दिखाती है कि संवैधानिक सवालों को सुलझाने के लिए संवाद
जरूरी है।
यह
भाषण हमें याद दिलाता है कि संविधान और न्यायपालिका का काम लोगों के अधिकारों की
रक्षा करना है, लेकिन यह भी जरूरी है कि सभी संस्थाएं
अपने दायरे में रहकर काम करें ताकि लोकतंत्र मजबूत रहे।