मौलिक
अधिकार और नीति निर्देशक तत्व: एक परिचय
भारतीय
संविधान में मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) और
नीति निर्देशक तत्व (Directive Principles of State Policy) दो महत्वपूर्ण हिस्से हैं।
- मौलिक अधिकार
(भाग III, अनुच्छेद 12-35): ये नागरिकों को दिए गए वे अधिकार हैं जो उनकी स्वतंत्रता, समानता, और गरिमा की रक्षा करते हैं। जैसे-
समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14), स्वतंत्रता का अधिकार
(अनुच्छेद 19), और धर्म की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25)। ये अधिकार न्यायसंगत (justiciable) हैं,
यानी अगर इनका उल्लंघन हो तो व्यक्ति अदालत में जा सकता है।
- नीति निर्देशक तत्व
(भाग IV, अनुच्छेद 36-51): ये राज्य के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत हैं, जिनका
उद्देश्य सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित
करना है। जैसे- समान काम के लिए समान वेतन (अनुच्छेद 39), मुफ्त कानूनी सहायता (अनुच्छेद 39A), और शिक्षा
का अधिकार (अनुच्छेद 41)। ये न्यायसंगत नहीं हैं,
यानी इन्हें लागू करवाने के लिए सीधे कोर्ट नहीं जाया जा सकता।
टकराव
का कारण: मौलिक अधिकार व्यक्ति के अधिकारों पर
केंद्रित हैं, जबकि नीति निर्देशक तत्व सामाजिक कल्याण और
सामूहिक हित पर जोर देते हैं। कई बार सरकार नीति निर्देशक तत्वों को लागू करने के
लिए कानून बनाती है, जो मौलिक अधिकारों (खासकर संपत्ति के
अधिकार) का उल्लंघन करते प्रतीत होते हैं। इससे टकराव की स्थिति बनती है।
गोलकनाथ
मामला (1967)
- पंजाब सरकार ने पंजाब
सिक्योरिटी ऑफ लैंड टेनर्स एक्ट, 1953
के तहत कुछ जमीनों को अधिग्रहण करने की कोशिश की, ताकि नीति निर्देशक तत्वों (जैसे भूमि सुधार) को लागू किया जा सके।
- गोलकनाथ परिवार ने इसे चुनौती दी,
क्योंकि यह उनके संपत्ति के मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 31) का उल्लंघन करता था।
- मुद्दा यह था कि क्या संसद
संविधान संशोधन करके मौलिक अधिकारों को सीमित कर सकती है।
सुप्रीम
कोर्ट का फैसला:
- सुप्रीम कोर्ट ने 6:5
के बहुमत से फैसला दिया कि संसद मौलिक अधिकारों को संशोधन
के जरिए छीन या सीमित नहीं कर सकती।
- कोर्ट ने कहा कि मौलिक अधिकार
संविधान का मूल हिस्सा हैं और इन्हें संशोधन की शक्ति (अनुच्छेद 368)
के तहत बदला नहीं जा सकता।
- इस मामले में कोर्ट ने संविधान
संशोधन को कानून माना और कहा कि अगर कोई संशोधन मौलिक अधिकारों का
उल्लंघन करता है, तो उसे अनुच्छेद 13
के तहत अवैध घोषित किया जा सकता है।
प्रभाव:
- यह पहली बार था जब कोर्ट ने संसद
की संशोधन शक्ति पर अंकुश लगाया।
- नीति निर्देशक तत्वों को लागू
करने के लिए बने कानूनों को मौलिक अधिकारों के सामने कमजोर माना गया।
- सरकार ने इस फैसले को पलटने के
लिए 24वाँ, 25वाँ
और 29वाँ संशोधन (1971) किए,
ताकि संसद की शक्ति को बहाल किया जाए।
केशवानंद
भारती मामला (1973)
- केरल सरकार ने केरल लैंड
रिफॉर्म्स एक्ट के तहत स्वामी केशवानंद भारती के मठ की जमीन अधिग्रहण
करने की कोशिश की।
- उन्होंने इसे अपने मौलिक
अधिकारों (संपत्ति का अधिकार,
धर्म की स्वतंत्रता) के खिलाफ बताकर चुनौती दी।
- सरकार ने 24वें और 25वें संशोधन के जरिए यह सुनिश्चित किया
था कि नीति निर्देशक तत्वों को लागू करने वाले कानूनों को मौलिक अधिकारों के
आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती।
सुप्रीम
कोर्ट का फैसला:
- 13 जजों की बेंच ने 7:6 के बहुमत से ऐतिहासिक फैसला दिया।
- कोर्ट ने "मूल संरचना सिद्धांत" (Basic Structure Doctrine) प्रतिपादित किया। इसके अनुसार:
- संसद को संविधान संशोधन की शक्ति
है,
लेकिन वह संविधान की मूल संरचना को नहीं बदल सकती।
- मूल संरचना में शामिल हैं:
संविधान की सर्वोच्चता, लोकतंत्र,
धर्मनिरपेक्षता, शक्तियों का पृथक्करण,
और मौलिक अधिकार।
- कोर्ट ने गोलकनाथ मामले को आंशिक रूप से पलट दिया और कहा कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है, बशर्ते वह मूल संरचना को नुकसान न पहुँचाए।
- 25वें संशोधन को वैध माना गया, जिसमें नीति निर्देशक तत्वों को मौलिक अधिकारों पर प्राथमिकता दी गई थी।
प्रभाव:
- यह मामला भारत के संवैधानिक
इतिहास में मील का पत्थर है।
- इसने मौलिक अधिकारों और नीति
निर्देशक तत्वों के बीच संतुलन बनाया। कोर्ट ने कहा कि दोनों का सामंजस्य
जरूरी है।
- मूल संरचना सिद्धांत ने संसद की
शक्ति को सीमित करते हुए न्यायपालिका को संविधान का संरक्षक बनाया।
मिनर्वा
मिल्स मामला (1980)
- मिनर्वा मिल्स
एक कपड़ा मिल थी, जिसे सरकार ने
राष्ट्रीयकरण के तहत अधिग्रहण किया।
- मालिकों ने इसे मौलिक अधिकारों
(संपत्ति का अधिकार) के उल्लंघन के आधार पर चुनौती दी।
- इस मामले में 42वें संशोधन (1976) की वैधता पर सवाल उठा,
जिसमें नीति निर्देशक तत्वों को मौलिक अधिकारों पर पूर्ण
प्राथमिकता दी गई थी और संशोधनों को न्यायिक समीक्षा से बाहर रखा गया था।
सुप्रीम
कोर्ट का फैसला:
- कोर्ट ने 42वें संशोधन के कुछ हिस्सों को असंवैधानिक घोषित किया।
- कोर्ट ने कहा कि मौलिक अधिकार
और नीति निर्देशक तत्व संविधान के दो पहिए हैं,
और एक को दूसरे पर पूर्ण प्राथमिकता नहीं दी जा सकती।
- न्यायिक समीक्षा
को संविधान की मूल संरचना का हिस्सा माना गया। 42वें संशोधन का वह हिस्सा जो संशोधनों को न्यायिक समीक्षा से बाहर
करता था, रद्द कर दिया गया।
- कोर्ट ने दोहराया कि मौलिक
अधिकारों और नीति निर्देशक तत्वों के बीच सामंजस्य होना चाहिए।
प्रभाव:
- इस मामले ने केशवानंद भारती के
मूल संरचना सिद्धांत को और मजबूत किया।
- नीति निर्देशक तत्वों को लागू
करने के लिए मौलिक अधिकारों को पूरी तरह कुर्बान नहीं किया जा सकता।
- न्यायपालिका की शक्ति को और
सुदृढ़ किया गया।
तीनों मामलों के बीच संबंध
1. गोलकनाथ
(1967):
o यह
पहला मामला था जिसमें मौलिक अधिकारों को सर्वोच्च माना गया और संसद की संशोधन
शक्ति पर सवाल उठा।
o इसने
नीति निर्देशक तत्वों के सामने मौलिक अधिकारों को प्राथमिकता दी,
जिससे सरकार की सामाजिक सुधारों की योजना बाधित हुई।
o इसने
बाद के मामलों के लिए आधार तैयार किया।
2. केशवानंद
भारती (1973):
o गोलकनाथ
के कठोर रुख को संतुलित किया और मूल संरचना सिद्धांत दिया।
o मौलिक
अधिकारों और नीति निर्देशक तत्वों के बीच सामंजस्य की बात कही।
o नीति
निर्देशक तत्वों को लागू करने के लिए कुछ हद तक मौलिक अधिकारों में संशोधन को
मंजूरी दी।
3. मिनर्वा
मिल्स (1980):
o इसने
केशवानंद भारती के सिद्धांत को और स्पष्ट किया।
o नीति
निर्देशक तत्वों को मौलिक अधिकारों पर असीमित प्राथमिकता देने की कोशिश को खारिज
किया।
o दोनों
के बीच संतुलन को संविधान का आधार माना।
निष्कर्ष
- मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक
तत्वों का टकराव एक संवैधानिक चुनौती
रहा है। गोलकनाथ ने मौलिक अधिकारों को सर्वोपरि माना,
केशवानंद भारती ने मूल संरचना सिद्धांत के जरिए संतुलन बनाया,
और मिनर्वा मिल्स ने इस संतुलन को और मजबूत किया।
- इन मामलों ने यह सुनिश्चित किया
कि न तो संसद की शक्ति असीमित हो और न ही मौलिक अधिकार सामाजिक कल्याण के
रास्ते में बाधा बनें।
- आज भी ये मामले भारत की संवैधानिक
व्याख्या और न्यायिक समीक्षा के आधार हैं।