हाल ही में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले
पर 14 सवाल उठाए हैं, जिसमें कोर्ट ने
विधेयकों पर कार्रवाई के लिए राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए समय सीमा तय की थी। यह
मामला तमिलनाडु से शुरू हुआ, जहां राज्य सरकार ने राज्यपाल
आर.एन. रवि पर विधेयकों को लटकाने का आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका
दायर की थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया और विधेयकों पर
फैसले के लिए समय सीमा तय कर दी। लेकिन राष्ट्रपति और कानूनी विशेषज्ञों का कहना
है कि जब संविधान में ऐसी कोई समय सीमा नहीं है, तो क्या
सुप्रीम कोर्ट यह नियम बना सकता है? आइए, इस मामले को सरल भाषा में समझते हैं।
पूरा
मामला क्या है?
तमिलनाडु
सरकार ने 2023 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर
की थी। उनका आरोप था कि राज्यपाल आर.एन. रवि ने 2020 से कई
विधेयकों (कुल 12) को न तो मंजूरी दी, न
खारिज किया और न ही राष्ट्रपति को भेजा। ये विधेयक विधानसभा से पारित होने के बाद
राज्यपाल के पास लंबित थे। 18 नवंबर 2023 को तमिलनाडु विधानसभा ने इन विधेयकों को दोबारा पारित कर राज्यपाल को
भेजा। इसके बाद 28 नवंबर 2023 को
राज्यपाल ने इन्हें अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के पास
भेज दिया।
तमिलनाडु
सरकार ने इसे संवैधानिक कर्तव्यों का उल्लंघन बताते हुए सुप्रीम कोर्ट में फिर
याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन
की बेंच ने अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल करते हुए
फैसला सुनाया:
- राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को
भेजे गए विधेयकों पर राष्ट्रपति को 3 महीने में फैसला लेना होगा।
- अगर 3 महीने में फैसला न हो, तो इसका कारण लिखित रूप में दर्ज करना होगा और राज्य सरकार को सूचित करना होगा।
इस
फैसले के बाद बहस छिड़ गई। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने इसे संवैधानिक सीमाओं का
अतिक्रमण बताते हुए अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम
कोर्ट से 14 सवालों पर राय मांगी।
संविधान
क्या कहता है?
भारत
का संविधान विधेयकों की मंजूरी के लिए प्रक्रिया तो बताता है,
लेकिन समय सीमा का कोई जिक्र नहीं करता। आइए, मुख्य
प्रावधानों को समझें:
अनुच्छेद
200:
राज्यपाल के अधिकार
जब
कोई विधेयक विधानसभा से पारित होकर राज्यपाल के पास जाता है,
तो उनके पास चार विकल्प होते हैं:
1. मंजूरी
देना:
विधेयक को कानून बना देना।
2. मंजूरी
रोकना: विधेयक को अस्वीकार करना।
3. पुनर्विचार
के लिए लौटाना: विधानसभा से दोबारा विचार
करने को कहना।
4. राष्ट्रपति
को भेजना: अगर विधेयक संवैधानिक रूप से संदिग्ध हो,
तो राष्ट्रपति के पास भेजना।
इस
अनुच्छेद में यह नहीं बताया गया कि राज्यपाल को कितने समय में फैसला लेना है।
अनुच्छेद
201:
राष्ट्रपति की भूमिका
अगर
राज्यपाल कोई विधेयक राष्ट्रपति को भेजता है, तो
राष्ट्रपति के पास तीन विकल्प होते हैं:
1. मंजूरी
देना:
विधेयक को कानून बनाना।
2. अस्वीकार
करना:
विधेयक को खारिज करना।
3. पुनर्विचार
के लिए लौटाना: विधानसभा को दोबारा विचार
के लिए भेजना।
अगर
विधानसभा इसे दोबारा पारित करती है, तो भी
अंतिम फैसला राष्ट्रपति का होता है। अनुच्छेद 201 में भी समय
सीमा का कोई प्रावधान नहीं है। इसका मतलब है कि विधेयक राष्ट्रपति के पास अनिश्चित
काल तक लंबित रह सकता है।
अनुच्छेद
142:
सुप्रीम कोर्ट की विशेष शक्ति
अनुच्छेद
142
सुप्रीम कोर्ट को विशेष अधिकार देता है कि वह पूर्ण न्याय के लिए
कोई भी आदेश दे सकता है, भले ही वह मौजूदा कानून से बाहर हो।
सुप्रीम कोर्ट ने इसी शक्ति का इस्तेमाल कर तमिलनाडु मामले में समय सीमा तय की।
अनुच्छेद
143:
राष्ट्रपति का राय मांगने का अधिकार
अनुच्छेद
143(1)
के तहत राष्ट्रपति किसी कानूनी या तथ्यात्मक सवाल पर सुप्रीम कोर्ट
से राय मांग सकते हैं। अनुच्छेद 143(2) केंद्र-राज्य विवादों
में राय मांगने की अनुमति देता है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट
राय देने के लिए बाध्य नहीं है, और उसकी राय राष्ट्रपति या
सरकार के लिए बाध्यकारी भी नहीं होती।
राष्ट्रपति
ने कौन-से 14 सवाल पूछे?
राष्ट्रपति
द्रौपदी मुर्मु ने सुप्रीम कोर्ट से निम्नलिखित 14 सवालों
पर राय मांगी है:
1. अनुच्छेद
200
के तहत राज्यपाल के पास विधेयक पर क्या-क्या विकल्प हैं?
2. क्या
राज्यपाल को कैबिनेट की सलाह माननी जरूरी है?
3. क्या
राज्यपाल का संवैधानिक विवेक न्यायसंगत है?
4. क्या
अनुच्छेद 361 राज्यपाल के फैसलों पर न्यायिक
समीक्षा को पूरी तरह रोकता है?
5. जब
संविधान में समय सीमा नहीं है, तो क्या कोर्ट
अनुच्छेद 200 के तहत समय सीमा तय कर सकता है?
6. क्या
राष्ट्रपति के फैसले को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है?
7. जब
अनुच्छेद 201 में समय सीमा नहीं है, तो क्या कोर्ट समय सीमा तय कर सकता है?
8. क्या
राष्ट्रपति को अनुच्छेद 143 के तहत राय लेना अनिवार्य
है?
9. क्या राष्ट्रपति या राज्यपाल के फैसले लागू होने से पहले कोर्ट सुनवाई कर सकता है?
10. क्या अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति या राज्यपाल के फैसले को बदल सकता है?
11. क्या अनुच्छेद 200
के बिना विधानसभा का कानून लागू हो सकता है?
12. क्या संवैधानिक व्याख्या
के मामले पांच जजों की बेंच को भेजना जरूरी है?
13. क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसा
आदेश दे सकता है जो संविधान से मेल न खाए?
14. क्या केंद्र-राज्य विवाद
केवल सुप्रीम कोर्ट ही सुलझा सकता है?
क्या
सुप्रीम कोर्ट समय सीमा तय कर सकता है?
यह
सवाल इस पूरे मामले का केंद्र है। कानूनी विशेषज्ञों और राष्ट्रपति का कहना है कि
जब संविधान में समय सीमा का कोई प्रावधान नहीं है, तो
सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के तहत भी मनमानी समय सीमा नहीं
थोप सकता। ऐसा करना विधायी और कार्यकारी शक्तियों में हस्तक्षेप माना जा सकता है।
हालांकि,
सुप्रीम कोर्ट का तर्क है कि अगर राज्यपाल या राष्ट्रपति की ओर से
अनुचित देरी होती है, तो यह विधानसभा की संवैधानिक शक्तियों
को कमजोर करता है। कोर्ट ने केसरीलाल बनाम गुजरात (1966) और डॉ. विनय कुमार बनाम AIIMS (2001) जैसे
मामलों में कहा है कि वह सामान्यतः समय सीमा तय नहीं करता, लेकिन
अगर देरी मनमानी या दुर्भावनापूर्ण हो, तो वह हस्तक्षेप कर
सकता है। तमिलनाडु मामले में कोर्ट ने यही आधार लिया।
क्या
सुप्रीम कोर्ट राय देने के लिए बाध्य है?
नहीं,
सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति के सवालों पर राय देने के लिए बाध्य नहीं
है। पहले भी कई मामलों में कोर्ट ने राय देने से इनकार किया है:
- राम मंदिर विवाद (1993):
कोर्ट ने कहा कि ऐतिहासिक और पौराणिक मामलों में राय देना
अनुच्छेद 143 के दायरे में नहीं है।
- कावेरी जल विवाद (1993):
कोर्ट ने राय देने से मना कर दिया।
- गुजरात चुनाव (2002):
कोर्ट ने कहा कि रेफरेंस भेजना अपील का गलत तरीका है।
अनुच्छेद
143
के तहत सुप्रीम कोर्ट की राय बाध्यकारी भी नहीं होती। इसका मतलब है
कि अगर कोर्ट राय देता भी है, तो राष्ट्रपति या सरकार को उसे
मानना जरूरी नहीं।
राष्ट्रपति
क्यों उठा रही हैं सवाल?
राष्ट्रपति
द्रौपदी मुर्मु का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का समय सीमा तय करना संवैधानिक ढांचे
का उल्लंघन है। उनके 14 सवाल इस बात की गहराई से
जांच करने की कोशिश हैं कि क्या कोर्ट को ऐसी शक्ति है और क्या यह विधायी
प्रक्रिया में हस्तक्षेप करता है। यह मामला केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति संतुलन
और संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता से जुड़ा है।
पहले भी आए हैं ऐसे मामले
- दिल्ली लॉज एक्ट (1951):
सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 143 के तहत
राय दी थी।
- केरल शिक्षा बिल (1957):
कोर्ट ने राय दी और प्रावधानों की व्याख्या की।
- इंदौर नगर निगम
(2006): कोर्ट ने कहा कि
नीतिगत मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।
निष्कर्ष
संविधान
में राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए विधेयकों पर फैसले की समय सीमा नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु मामले में अनुच्छेद 142 के
तहत 3 महीने की समय सीमा तय की, लेकिन
राष्ट्रपति और विशेषज्ञ इसे संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन मानते हैं। राष्ट्रपति ने
अनुच्छेद 143 के तहत 14 सवालों पर राय
मांगी है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट राय देने के लिए बाध्य नहीं
है, और उसकी राय बाध्यकारी भी नहीं होगी। यह मामला संवैधानिक
संस्थाओं के बीच शक्ति संतुलन और न्यायिक हस्तक्षेप की सीमाओं को लेकर महत्वपूर्ण
है।