मध्यस्थता और समझौता भारत में विवादों को सुलझाने की एक पुरानी और पारंपरिक प्रणाली है। यह विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित थी, जहां लोग अपने झगड़ों को सुलझाने के लिए गांव के मुखिया या सम्मानित बुजुर्गों की मदद लेते थे। ये बुजुर्ग निष्पक्ष होकर दोनों पक्षों की बात सुनते और आपसी सहमति से कोई समाधान निकालते थे। हालांकि, इन समझौतों को कानूनी मान्यता नहीं थी, लेकिन लोग परंपरा और विश्वास के आधार पर इन्हें मान लेते थे। फिर भी, इन समझौतों में एक कमी थी कि भविष्य में कोई पक्ष असहमत हो सकता था या समझौते का पालन न करे।
समय
के साथ समाज और कानूनी व्यवस्था में बदलाव आए। विवाद अब पहले जैसे साधारण नहीं रहे,
बल्कि वे जटिल हो गए, खासकर वाणिज्यिक
(बिजनेस) और औद्योगिक (इंडस्ट्रियल) क्षेत्रों में। जैसे-जैसे विवाद जटिल हुए,
उनके समाधान की प्रक्रिया भी मुश्किल होती गई। अदालतों में मुकदमों
की संख्या बढ़ती गई, जिसके कारण मामले लंबित रहने लगे। यह
देरी, खासकर व्यापारिक और औद्योगिक विवादों में, अर्थव्यवस्था पर बुरा असर डालती है। वैश्वीकरण के दौर में, किसी देश की अर्थव्यवस्था को बढ़ाने के लिए यह जरूरी है कि विवादों का
समाधान जल्दी और प्रभावी ढंग से हो, क्योंकि इससे विदेशी
निवेश पर सीधा असर पड़ता है।
मध्यस्थता और समझौता का महत्व
मध्यस्थता
और समझौता एक ऐसी प्रणाली है जो समय और लागत बचाती है। यह न केवल विवादों को जल्दी
सुलझाती है, बल्कि इसे कानूनी मान्यता भी प्राप्त
होती है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसमें दोनों पक्ष आपसी सहमति से समाधान तक
पहुंचते हैं और उन्हें अपनी बात रखने का पूरा मौका मिलता है। यह प्रक्रिया एक
निष्पक्ष मध्यस्थ की मदद से होती है, जो दोनों पक्षों को
मैत्रीपूर्ण माहौल में बातचीत करने में मदद करता है।
भारत
में सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) की
धारा 89 में मध्यस्थता, समझौता, और अन्य वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR)
तरीकों को बढ़ावा दिया गया है। इसके अलावा, वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 की धारा 12A
में यह अनिवार्य किया गया है कि वाणिज्यिक विवादों में मुकदमा दायर
करने से पहले मध्यस्थता की कोशिश की जाए, जब तक कि तत्काल
राहत (जैसे निषेधाज्ञा) की जरूरत न हो। यह कानूनी प्रावधान मध्यस्थता को और मजबूत
बनाते हैं।
मध्यस्थता की प्रक्रिया
मध्यस्थता
में एक प्रशिक्षित मध्यस्थ होता है, जो दोनों
पक्षों की बात सुनता है और उन्हें समाधान की दिशा में ले जाता है। यह प्रक्रिया
मुकदमेबाजी से पहले या उसके दौरान भी हो सकती है। मध्यस्थता केंद्र, जो प्रशिक्षित मध्यस्थों और कानूनी विशेषज्ञों द्वारा संचालित होते हैं,
विवादों को सुलझाने में बहुत मददगार साबित हुए हैं। यह व्यक्तिगत,
वैवाहिक, और वाणिज्यिक सभी तरह के विवादों में
प्रभावी है।
दिल्ली उच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश
दिल्ली
उच्च न्यायालय ने Crl.M.C. 6197/2019
(श्री छत्तर पाल बनाम राज्य) मामले में मध्यस्थता के दौरान समझौता
तैयार करने के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश दिए हैं। ये दिशा-निर्देश खासकर वैवाहिक
और आपराधिक मामलों में समझौते को स्पष्ट और प्रभावी बनाने के लिए हैं। इनका सार
सरल भाषा में इस प्रकार है:
1. पक्षों
के नाम स्पष्ट करें: समझौते में सभी पक्षों के
नाम साफ-साफ लिखे जाने चाहिए।
2. अस्पष्ट
शब्दों से बचें: "याचिकाकर्ता" या
"प्रतिवादी" जैसे शब्दों का उपयोग न करें, क्योंकि
ये भ्रम पैदा कर सकते हैं।
3. सभी
विवरण शामिल करें: समझौते की हर शर्त, चाहे छोटी हो या बड़ी, स्पष्ट रूप से लिखी जानी
चाहिए।
4. समय-सीमा
निर्धारित करें: शर्तों को पूरा करने की
समय-सीमा और उनका पालन कैसे होगा, यह साफ करना चाहिए।
5. डिफॉल्ट
क्लॉज: अगर कोई पक्ष समझौते का पालन न करे,
तो इसके परिणाम स्पष्ट रूप से लिखे जाएं।
6. भुगतान
का तरीका: अगर कोई भुगतान करना है, तो उसका तरीका (जैसे बैंक ट्रांसफर, डिमांड ड्राफ्ट)
और विवरण स्पष्ट होना चाहिए।
7. अनुवर्ती
दस्तावेज: समझौते में यह लिखा जाना चाहिए कि कौन
से दस्तावेज तैयार होंगे और कौन उन्हें हस्ताक्षर करेगा।
8. वैवाहिक
विवादों में विशेष ध्यान: अगर समझौता धारा 498A
(IPC) जैसे आपराधिक मामलों से जुड़ा है, तो
सभी संबंधित पक्षों के नाम और FIR रद्द करने की प्रक्रिया
स्पष्ट होनी चाहिए।
9. आपराधिक
शिकायतें: अगर दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के खिलाफ
शिकायतें दर्ज की हैं, तो उनका विवरण और समाधान का तरीका
लिखा जाना चाहिए।
10. स्थानीय भाषा में समझौता:
समझौता स्थानीय भाषा में भी लिखा जाए ताकि पक्ष इसे अच्छे से समझ
सकें।
11. हस्ताक्षर:
अगर कोई पक्ष मौजूद नहीं है, तो यह स्पष्ट
करना चाहिए कि उनके लिए हस्ताक्षर कौन कर रहा है।
12. स्पष्ट भाषा:
समझौते की भाषा इतनी साफ होनी चाहिए कि पक्षों का इरादा और उद्देश्य
बिल्कुल स्पष्ट हो।
मध्यस्थता
के फायदे
1. समय
और लागत की बचत: मध्यस्थता अदालत की तुलना
में तेज और सस्ती है।
2. आपसी
सहमति: दोनों पक्ष मिलकर समाधान निकालते हैं,
जिससे असंतोष की संभावना कम होती है।
3. निष्पक्षता:
प्रशिक्षित मध्यस्थ निष्पक्ष होकर काम करते हैं।
4. कानूनी
मान्यता: मध्यस्थता के समझौते को अदालत की मंजूरी
मिलती है, जिससे यह कानूनी रूप से बाध्यकारी होता है।
5. विश्वास
बहाली: यह प्रक्रिया लोगों का न्यायिक व्यवस्था
में भरोसा बढ़ाती है।
भारत में मध्यस्थता को बढ़ावा
भारत
की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू और पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री संजीव खन्ना ने
मध्यस्थता को न्याय प्रणाली का महत्वपूर्ण हिस्सा बताया है। उन्होंने कहा है कि
मध्यस्थता न केवल अदालतों पर बोझ कम करती है, बल्कि यह
व्यवसाय करने और जीवन जीने को भी आसान बनाती है। मुख्य न्यायाधीश ने यह भी कहा था कि
हर विवाद को कानूनी नजरिए से नहीं, बल्कि मानवीय दृष्टिकोण
से देखा जाना चाहिए।
निष्कर्ष
मध्यस्थता
और समझौता एक ऐसी प्रणाली है जो विवादों को सुलझाने में समय,
लागत और मानसिक तनाव बचाती है। यह दोनों पक्षों के लिए जीत की
स्थिति बनाती है और न्यायिक प्रणाली पर बोझ कम करती है। कानूनी प्रावधानों और
प्रशिक्षित मध्यस्थों के साथ, यह प्रणाली भारत में तेजी से
लोकप्रिय हो रही है। यह न केवल व्यक्तिगत और वैवाहिक विवादों, बल्कि वाणिज्यिक और औद्योगिक विवादों को सुलझाने में भी प्रभावी है।
मध्यस्थता न केवल एक समाधान है, बल्कि यह लोगों का न्याय
प्रणाली में विश्वास भी बढ़ा रही है।