जस्टिस बी. आर. गवई का यह कथन, "जब
देश संकट में हो तो सुप्रीम कोर्ट तटस्थ नहीं रह सकता," भारतीय न्यायपालिका की भूमिका और जिम्मेदारी पर एक गहरा विचार व्यक्त करता
है। यह न केवल सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक स्थिति को रेखांकित करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि असाधारण परिस्थितियों में न्यायपालिका को
निष्क्रिय या तटस्थ रहने के बजाय सक्रिय और निर्णायक भूमिका निभानी चाहिए।
कथन का संदर्भ और महत्व
जस्टिस गवई का यह
बयान संभवतः उन परिस्थितियों की ओर इशारा करता है जब देश सामाजिक,
राजनीतिक, आर्थिक या संवैधानिक संकट का सामना
कर रहा हो। सुप्रीम कोर्ट, जो भारत के संविधान का संरक्षक है,
ऐसी स्थिति में केवल एक मूक दर्शक नहीं बन सकता। इसका कर्तव्य है कि
यह संविधान के मूल्यों—न्याय, स्वतंत्रता,
समानता और बंधुत्व—को बनाए रखे। यह
कथन इस बात पर जोर देता है कि संकट के समय में सुप्रीम कोर्ट को न केवल कानूनी,
बल्कि नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए।
उदाहरण के लिए,
आपातकाल (1975-77) जैसे दौर में सुप्रीम कोर्ट
की भूमिका को लेकर कई सवाल उठे थे। उस समय कुछ फैसलों को संविधान के मूल ढांचे की
रक्षा में कमजोर माना गया। जस्टिस गवई का यह कथन शायद भविष्य में ऐसी गलतियों से
बचने और संकट के समय सक्रियता दिखाने की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
सुप्रीम कोर्ट की भूमिका: तटस्थता बनाम सक्रियता
सुप्रीम कोर्ट को
अक्सर "निष्पक्ष और तटस्थ" संस्था के रूप में देखा जाता है,
जो कानून की व्याख्या करता है और पक्षपात से बचता है। हालांकि,
जस्टिस गवई का कथन इस धारणा को चुनौती देता है। उनका कहना है कि जब
देश संकट में हो, तो तटस्थता एक विलासिता हो सकती है,
जो संविधान के उद्देश्यों को कमजोर कर सकती है।
- तटस्थता का अर्थ:
तटस्थता का मतलब है कि कोर्ट केवल कानूनी तथ्यों और
प्रक्रियाओं पर ध्यान दे, बिना सामाजिक या राजनीतिक
प्रभावों को ध्यान में लाए। लेकिन संकट के समय, यह
दृष्टिकोण निष्क्रियता का पर्याय बन सकता है।
- सक्रियता का महत्व:
सक्रियता का मतलब है कि कोर्ट संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के
लिए असाधारण कदम उठाए, जैसे कि मौलिक अधिकारों की
रक्षा, कार्यपालिका की मनमानी पर अंकुश लगाना,
या सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना।
उदाहरण के तौर पर,
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार जनहित याचिकाओं (PIL) के जरिए सक्रियता दिखाई है, जैसे कि पर्यावरण
संरक्षण, शिक्षा के अधिकार, या
कोविड-19 महामारी के दौरान ऑक्सीजन और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी जैसे मुद्दों पर
हस्तक्षेप करके।
संकट की परिभाषा और सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी
"संकट"
शब्द का दायरा व्यापक हो सकता है। यह निम्नलिखित परिस्थितियों को शामिल कर सकता
है:
- राजनीतिक संकट:
जैसे कि आपातकाल, केंद्र-राज्य
विवाद, या अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन।
- सामाजिक संकट:
जातिगत हिंसा, सांप्रदायिक दंगे,
या महिलाओं और कमजोर वर्गों के खिलाफ अत्याचार।
- आर्थिक संकट:
जैसे कि बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, गरीबी, या आर्थिक नीतियों का दुरुपयोग।
- संवैधानिक संकट:
जब संविधान के मूल ढांचे, जैसे कि धर्मनिरपेक्षता,
संघवाद, या मौलिक अधिकार, पर खतरा मंडराए।
ऐसी परिस्थितियों
में सुप्रीम कोर्ट का दायित्व है कि वह न केवल कानूनी व्याख्या करे,
बल्कि संविधान की आत्मा को जीवित रखे। जस्टिस गवाई का यह कथन इस बात
की याद दिलाता है कि सुप्रीम कोर्ट केवल एक कानूनी संस्था नहीं, बल्कि लोकतंत्र का एक स्तंभ है।
ऐतिहासिक उदाहरण और प्रासंगिकता
सुप्रीम कोर्ट ने
कई बार संकट के समय सक्रियता दिखाई है:
·
केसवनंद भारती मामले (1973): में सुप्रीम कोर्ट ने "मूल ढांचा सिद्धांत" प्रतिपादित किया,
जो संसद को संविधान के मूल तत्वों—जैसे लोकतंत्र,
धर्मनिरपेक्षता, और मौलिक अधिकारों—को पूरी तरह बदलने या नष्ट करने से रोकता है।
- मणिपुर हिंसा (2023):
सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर में जातीय हिंसा के दौरान सक्रिय
हस्तक्षेप किया और राहत कार्यों की निगरानी की।
- कोविड-19
संकट: कोर्ट
ने केंद्र और राज्य सरकारों को स्वास्थ्य सेवाओं और संसाधनों के वितरण में
जवाबदेही के लिए बाध्य किया।
ये उदाहरण दर्शाते
हैं कि जब देश संकट में होता है, तो सुप्रीम कोर्ट की
सक्रियता न केवल जरूरी है, बल्कि अपेक्षित भी है।
आलोचनाएं और चुनौतियां
हालांकि,
सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता को लेकर कुछ आलोचनाएं भी हैं:
- न्यायिक अतिसक्रियता:
कुछ लोग मानते हैं कि कोर्ट कार्यपालिका और विधायिका के
क्षेत्र में अनावश्यक हस्तक्षेप करता है, जो शक्ति
संतुलन को बिगाड़ सकता है।
- चुनावी पक्षपात का आरोप:
कुछ मामलों में, कोर्ट के फैसलों को
सत्तारूढ़ दल के पक्ष में माना जाता है, जो उसकी
निष्पक्षता पर सवाल उठाता है।
- सीमित संसाधन:
सुप्रीम कोर्ट के पास सभी संकटों को हल करने के लिए पर्याप्त
संसाधन या समय नहीं होता।
जस्टिस गवई का कथन
इन आलोचनाओं का जवाब देता प्रतीत होता है। उनका कहना है कि संकट के समय तटस्थता
अपनाना कोर्ट की विश्वसनीयता को और कमजोर कर सकता है। इसके बजाय,
कोर्ट को संतुलित और संवैधानिक तरीके से सक्रिय होना चाहिए।
आम नागरिक के लिए
इसका क्या अर्थ है?
जस्टिस गवई का यह
कथन आम नागरिकों को आश्वस्त करता है कि सुप्रीम कोर्ट उनके अधिकारों का रक्षक है।
यह हमें याद दिलाता है कि जब सरकारें या अन्य संस्थाएं विफल हो जाएं,
तो सुप्रीम कोर्ट अंतिम आशा के रूप में खड़ा है। यह नागरिकों को भी
प्रेरित करता है कि वे अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाएं और जनहित याचिकाओं या
कानूनी रास्तों के जरिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाएं।
निष्कर्ष: सुप्रीम कोर्ट की नई दिशा
जस्टिस गवई का यह
कथन सुप्रीम कोर्ट को एक नई दिशा देने का प्रयास है। यह कोर्ट को न केवल कानूनी
व्याख्याता, बल्कि सामाजिक और संवैधानिक परिवर्तन का
वाहक बनने के लिए प्रेरित करता है। संकट के समय में तटस्थता को त्यागकर, सुप्रीम कोर्ट न केवल संविधान की रक्षा कर सकता है, बल्कि
लोकतंत्र में नागरिकों का विश्वास भी बहाल कर सकता है।
यह कथन हमें सोचने
पर मजबूर करता है: क्या हमारी न्यायपालिका संकट के समय में अपनी जिम्मेदारी को
पूरी तरह निभा रही है? और अगर नहीं, तो इसे और प्रभावी बनाने के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए?
अंतिम विचार:
जस्टिस गवई का यह बयान एक चेतावनी भी है और एक प्रेरणा भी। यह
सुप्रीम कोर्ट को याद दिलाता है कि वह केवल कानून की किताबों का पालनकर्ता नहीं,
बल्कि भारत के लोकतांत्रिक और संवैधानिक आदर्शों का प्रहरी है।